Jankpur Dham, Bihar, Mithila, nepal , Bihar

भारत में क्यों नेपाल के कब्जे वाले मिथिला को वापस लेने की उठ रही है मांग?

मौजूदा भारत-नेपाल संबंध विवाद अब नया मोड़ लेते दिख रहा है। नेपाल द्वारा नए नक्सा में भारतीय अधिकृत क्षेत्र को दिखाने के बाद अब भारत के मिथिला क्षेत्र में लोग मांग करने लगे हैं कि नेपाल के कब्जे वाले क्षेत्र मिथिला को वापस भारत में एकीकृत किया जाए| गौरतलब है कि मिथिला क्षेत्र भारत और नेपाल दोनों देशों के बीच बंटा हुआ है। 1816 में अंग्रेजों ने मिथिला का कुछ क्षेत्र नेपाल के गोरखा राजाओं को दे दिया था। मौजूदा विवाद के बाद अब उसे वापस लेने की बात हो रही है।

इसी संदर्भ में भारतीय मिथिला क्षेत्र में आंदोलन करने वाले युवा सामाजिक कार्यकर्ता आदित्य मोहन लिखते हैं कि समय आ गया है कि जनकपुर को भारत में पुनः मिलाकर विखंडित मिथिला को एकीकृत किया जाए।

उन्होंने आगे कहा, “इससे पहले कि चीन के गोदी में बैठ चुका भारत-विरोधी भ्रष्ट कम्युनिस्ट नेपाली सरकार जानकी मंदिर को हमारे लिए ननकाना साहब जैसा बना दे की हम तीर्थ करने तक ना जा सकें, भारत को नेपाल से मिथिला का हिस्सा वापस लेे लेना चाहिए। मिथिला को एक करने का समय आ गया है।”

आदित्य कहते हैं – नेपाल आज सिर्फ चीन के हाथ का एक कठपुतली बनकर रह गया है। चीन परस्त नेपाली सरकार ना केवल भारत विरोधी है बल्कि नेपाल में रह रहे करोड़ों मैथिलों की दुश्मन भी है। भारत हमेशा से नेपाल का एक मित्रवत देश रहा है लेकिन नई नेपाली कम्युनिस्ट सरकार हरेक क़दम पर भारत को आंख दिखाने का प्रयास कर रही है। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया को चाहिए की वो भी भारत का एक नया नक्सा जारी करे जिसमें नेपाल के कब्जे वाले मिथिला क्षेत्र को अपने नक्से में दिखाए और मिथिला के एकीकरण की तरफ़ क़दम बढ़ाए।

1816 में ईस्ट इंडिया कम्पनी और नेपाल राज के बीच हुई सुगौली संधि के 200 वर्ष 2016 में ही पूरे हो चुके हैं। ये संधि दो विदेशियों के बीच हुआ था लेकिन इसके कारण हमारे अपने ही मैथिल हमारे लिए विदेशी हो गए। संधि ब्रिटिश सरकार भी नहीं बल्कि एक फॉरेन कम्पनी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने की थी और तो और इसके क्लाउज 9 के अनुसार नेपाली राजा का सिग्नेचर जरूरी था लेकिन उसके बदले राजगुरु गजराज मिश्रा का सिग्नेचर से खानापूर्ति कर दी गई। दो विदेशियों के संधि का फ़ल मिथिला अपने घर के बंटवारे से भोगता रहा है। कानूनन इलीगल इस संधि के आज लगभग 200 वर्ष हो चुके हैं लेकिन किसी सरकार का ध्यान इसपर नहीं गया, आज भी वहाँ नेपाल में मैथिलों को दोयम दर्जे का नागरिक मानकर मधेशी कहा जाता है और कई नागरिक सुविधाओं से वंचित रक्खा गया है।

आदित्य कहते हैं कि आज चीन के गोद में बैठ चुकी नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार भारत विरोध में सर उचका रही है। जब नेपाल की भ्रष्ट कम्युनिस्ट चीन परस्त सरकार सुगौली संधि को मानने से इन्कार कर रही है फिर हम क्यों मानें सुगौली संधि और उसके हिसाब से अपने घर का बंटवारा ?”

आगे आने वाला समय भारत नेपाल संबंध और कूटनीतिक राजनीति के लिए अहम होने वाला है।

सिंगरहार फूल हमको याद दिलाता है गाँव का, दुर्गा पूजा का, दिवाली-छठ का, अप्पन मिथिला का

– बौआ रौ उठ, उठ ना.. भोर भ गेलै..

– ऊं.. हूँ.. ऊँ.. उठै छी..

– उठ जल्दी, नै ता केयो और बिछ लेतौ.. भोरे सँ सब फूल बिछअ लेल घुमैत रहै छी..

दुर्गा पूजा का टाइम रहता था.. सुबह का ठंडा इतना लगता था कि कम्बल पूरा शरीर में लपेट के मच्छरदानी में ओंघरा-पोंघरा के सोते रहते थे.. अभी अन्हरौका पूरा छाएले है.. महेन चा के गाय टुनुर-टुनुर घंटी बजा रही है.. माने चचा बाल्टी लेकर दूहने पहुँच गए है.. हल्का-हल्का कोहरा लगा हुआ है.. चचा पराती गा रहे हैं और घूरा जलाने के लिए पुआल का जुगाड़ भी देख रहे हैं.. ठंडी का मीठगर शुरुआत है ई.. हम कम्बल में थोड़ा-सा गरमाए ही थे कि दादी आकर उठाबे लगी.. पहीले ता हम पलंग के ई कोना से ऊ कोना में सरक गए.. उठे ता फिर तकिया पकड़ के सूत गए.. दादी अब गुस्सा के कम्बले उठा के फेंक दी..👵🏼😡

– भ गेलै, बिछा गेलै आब फूल..! ल गेलौ पछियारी टोल वाली सब फूल बीछ क..!

हम कम्बल फेंके आ तुरत फूलडाली लेकर दरवाजे पर दौड़ गए.. सिंगरहार का फूल नहीं बिछने देंगे किसी को.. सिंगरहार माने हरसिंगार.. गुलाब तोड़ लेगा, कनैल तोड़ लेगा, अड़हुल तोड़ लेगा, कोनो बात नहीं.. अरे भगवाने का पूजा करेगा ना जी.. फूल हमारा रहेगा तो भगवान् हमरे असीरबाद देंगे.. लेकिन सिंगरहार का फूल..! ना-ना-ना, ई नहीं बीछे देंगे.. सिंगरहार फूल मात्र नहीं है.. कभी धरती पर बिखरा सिंगरहार देखे हैं..? सुबह का ओस, हल्का-हल्का कुहासा आ धरती पर बिछाएल सिंगरहार.. अइसा लगता है जइसे दुर्गा माता का सवारी आ रहा है आ उनकर स्वागत में प्रकृति रानी अपने हाथ से अच्छत-गंगाजल छींट धूपबत्ती जलाए बैठल हैं..! कभी सांझ चाहे रात में सिंगरहार गाछी के बगल से गुजर जाइए, सुगंध से मन महमहा जाएगा.. ई गंध बारहों महीना नहीं मिलेगा.. ई सुंदर दृश्य बारहों महीना नहीं दिखेगा..

सिंगरहार आ ओकर गंध हमको याद दिलाता है अपना गाँव का, दुर्गा पूजा का, दिवाली-छठ का, कोजगरा का.. अप्पन मिथिला का..

हम एक तरफ से फूल बीछ-बीछकर रख रहे हैं आ दादी अब अड़हुल फूल तोड़ रही हैं.. इसमें से थोड़ा फूल घर के मन्दिर में रखाएगा आ ज्यादा फूल दुर्गा-पूजा वाला मन्दिर में जाएगा.. फूल बीछते-बीछते ओस से हाथ कनकना गया.. हम फूलडाली रखे दादी के पास आ दौड़ गए महेन चा के दलान पर.. चचा गाय दूह लिए हैं, आग जलाकर दुन्नू हाथ सेंक रहे हैं.. अगल-बगल में दू ठो बुजुर्ग और बैठकर आग को लकड़ी लेकर खोद रहे हैं..! महेन चा खैनी रगड़ते हुए बोले..🔥🔥

– का जी, भोरे उठ गया आज..? बिछा गया फूल.? आओ तुमको गैया का ताजा दूध पिलाते हैं..!!

समय कितना तेजी से बीत गया.. दिल्ली, महाराष्ट्र के बाद अब मध्य-प्रदेश में हैं.. घर छोड़े आठ साल हो गया.. कितना दुर्गा पूजा बीत गया, कितना दिवाली आ कितना छठ..! कल सुबह अमूल वाला दूध पोलोथिन में लटकाकर ला रहे थे.. एक पार्क के बगल से गुजरे ता बड़ा जाना-पहचाना सुगंध आया.. पैर अपने आप रुक गया.. अरे ई ता सिंगरहार का फूल है..! मन हुआ कि बीछ लें जाकर.. एक बार फिर पहुँच गए पन्द्रह साल पीछे.. अपने गाँव, जहाँ दुर्गा पूजा शुरू हो गया होगा.. फिर से सिंगरहार बिछ गया होगा.. महेन चा अभियो भोरे उठने में हर दिन की तरह सुरुज देवता को पछुआते होंगे.. आ दादी? दादियो हम्मर सिंगरहार के तरह एक दिन धरती पर बिछ गयीं.. हम दादी को बीछकर रख नहीं पाए.. प्रकृति रानी उनकरा को अपने पास बुला ली.. बस बचा ता खाली आंसू आ अगरबत्ती का धुआँ..!!😢😢

–  अमन आकाश 

Bhawana Kanth, Bihar, Mithila, begusarai

भारतीय वायु सेना की पहली महिला ऑपरेशनल फाइटर पाइलट बनी बिहार की भावना कंठ

बिहार कि बेटी और फ्लाइट लेफ्टिनेंट भावना कंठ बुधवार को इतिहास रचते हुए भारतीय वायुसेना की पहली महिला पायलट बनीं जिन्होंने लड़ाकू विमान में युद्धक मिशन पर जाने की अर्हता प्राप्त कर ली है|

भावना भारतीय वायु सेना के पहले बैच की महिला फाइटर पायलट हैं। उनके साथ दो अन्य महिला पायलट अवनी चतुर्वेदी और मोहना सिंह को 2016 में फ्लाइंग ऑफिसर के रूप में चुना गया था। एक साल से कम समय में ही सरकार ने प्रयोग के तौर पर महिला पायलटों के लिए युद्ध मिशन में शामिल होने का रास्ता खोलने का निर्णय लिया था।

भावना बिहार के दरभंगा जिले की हैं। हालांकि उनकी पैदाइश बेगुसराय जिले के बरौनी रिफाइनरी की कॉलोनी के मकान में हुई।

उनके पिता इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन में इंजीनियर, जबकि मां गृहिणी हैं। बरौनी रिफाइनरी के डीएवी पब्लिक स्कूल से पढ़ाई करने के बाद भावना ने बीएमएस कॉलेज, बेंगलूरू से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। भावना बचपन से ही पक्षी की तरह उड़ना चाहती थीं और अब फाइटर पायलट के तौर पर देश की सेवा करना चाहती हैं।

मौजूदा समय में भावना बीकानेर के नाल बेस पर तैनात हैं| एक अन्य अधिकारी ने कहा कि रात में अभियान के लिए प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उन्हें रात्रि अभियानों को अंजाम देने की इजाजद दी जाएगी|

जानकारी के लिए आपको बता दें कि वायुसेना में बतौर फाइटर पायलट शामिल होने वाले सदस्यों को लंबी ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है। एयरफोर्स अकादमी में फाइटर महिला पायलटों को बेसिक उड़ान भरने के बाद एडवांस जेट ट्रेनर हॉक पर उड़ान की ट्रेनिंग दी जाती है। इसके बाद फाइटर जेट पर वायुसेना की ओर से ट्रेनिंग दी जाती। फिर लंबे समय तक सीनियर फाइटर पायलट भी सभी पायलटों की ट्रेनिंग लेता है, जब वह यह जान लेता है कि फाइटर पायलट पूरी तरह से अकेले उड़ान भरने के दौरान हर मुश्किल का सामना करने के लिए तैयार है तब जाकर उसकी ट्रेनिंग कम्प्लीट होती है। इस तरह से एक फाइटर पायलट दिन और रात उड़ान भरकर पूरी तरह से दक्ष होते हैं, तब जाकर कमांडिंग ऑफिसर उन्हें किसी भी युद्ध में भेज सकते हैं।

MSU, MITHILA, BIHAR

ये नौजवान बिहार में आंदोलनों और संघर्ष की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं

MSU क्षेत्र और छात्र के लिए काम करने वाली युवाओं की एक गैरराजनीतिक संस्था है। विगत कई महीनों से ये मिथिला क्षेत्र के 20 जिलों को मिलाकर मिथिला डेव्लपमेंट बोर्ड के गठन के लिए आंदोलन कर रहे हैं। मिथिला क्षेत्र में ऐम्स, एयरपोर्ट, केंद्रीय विश्वविद्यालय, बंद पड़े चीनी मीलों-सुत मील-जुट मील-पेपर मील को पुनः खुलवाने, बाढ़-सुखाड़ समेत क्षेत्र की कई समस्याओं के कलेक्टिव मांग के लिए इन्होंने कई बार आंदोलन किया है। इसके लिए इन्होंने दिल्ली के संसद मार्ग पर हजारों की संख्या मे लॉन्ग मार्च किया, शांतिपूर्वक मिथिला बंद का आहवाहन किया और दरभंगा के राज मैदान मे हजारों मैथिलों को जुटाकर रैली कर चुके हैं।

इस सबके बाद जब सरकार व व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा तो फिर इन्होंने शांतिपूर्वक एनएच57 (ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर) बंद करने का आहवाहन किया। इसकी लिखित सूचना भी हमने 9 दिन पहले ही जिला प्रशासन के पास जमा करवा दिया था।

25 फरवरी के दिन जब एमएसयू ने एनएच जाम किया तो कई किलोमीटर की लंबी लाइन लग गई, बावजूद इसके हमने मरीजों, प्रीक्षार्थीयों और आर्मी को सममानपूर्वक रास्ता दिया। इनकी एक ही मांग थी की कोई औथेंटीक अधिकारी इनसे वार्ता करने आएँ लेकिन दरभंगा पूलिस ने तानाशाही दिखाते हुए शांतिपूर्वक बैठे हमारे कार्यकर्ताओं पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इनके दर्जनों कार्यकर्ता चोटिल हो गए और सबको डीएमसीएच मे भर्ती करवाना पड़ा।

इसके अलावे पूलिस ने इनके 7 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। पूलिसिया दमन की इंतहा तब हुई जब इनके गिरफ्तार कार्यकर्ताओं पर अटेम्प्ट मर्डर, किडनैपिंग, दंगा समेत 12 जघन्य चार्जेज लगाए गए। इनमे से अधिकांश नॉन-बेलेबल है और इनके कार्यकर्ता जेल मे हैं, उनकी बेल सेशन कोर्ट मे रीजेक्ट हो गई।

इनके सभी सेनानी शांतिपूर्वक जाम करके बैठे थे, उनके साथ मे एक डंडा तक नहीं था लेकिन इसके बावजूद उनके ऊपर 12 नॉन-बेलेबल चार्जेज लगाकर उन्हें जेल के अंदर डालना शासन का एक घिनौना दमन है। उन्हें डीएमसीएच से उठाकर जब उन्हें जेल ले जाया गया उनमे से अधिकांश का मेडिकल रीपोर्ट तक नहीं आया था|

एक व्यक्ति के हाथ की उंगली टूटी हुई है और बाकी सबको भी आंतरिक चोटें आई है। गिरफ्तार लोगों मे एक लड़का 17 साल का है और एक 19 साल का| आंदोलन के लिए जो पीकअप लाया गया था उसके गरीब ड्राईवर को भी गिरफ्तार किया गया है। ये अन्याय नहीं तो और क्या है? पूलिस ने इनके कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज किया और फिर उनके ही ऊपर जघन्य चार्जेज लगकर उनकी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है।

लाठीचार्ज के बाद बिहार के डीजीपी ने कहा था कि उन्हें इस लाठीचार्ज की कोई जानकारी नहीं है और यदि हुआ है तो दोषियों पर कार्यवाही होगी लेकिन जबकि हो उल्टा रहा है। अब इनके कार्यकर्ताओं पर जुल्म हो रहा है। इस सबके विरुद्ध पिछले चार दिन से दरभंगा में MSU कार्यकर्ता आमरण अनसन पर बैठे हैं। 20 से 25 साल के ये नौजवान बिहार में आंदोलनों और संघर्ष की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं।

– आदित्य मोहन, MSU, राष्ट्रीय महासचिव

(इस लेख में व्यक्त किये गए विचार लेखक के निजी विचार हैं|)

Aiims, Mithila, Darbhanga, DMCH Hospital, Bihar Aiims,

खुशखबरी: बिहार के दरभंगा में बनेगा राज्य का दूसरा AIIMS

कुछ दिन पहले ही पटना के एक बड़े मंच से मिथिला में एम्स और आईआईटी जैसी संस्था नहीं होने का मामला उठा था| अब खबर आ रही है कि मिथिला को जल्द ही एम्स का तोहफा मिल सकता है| दरभंगा स्थित डीएमसीएच को अपग्रेड कर AIIMS बनाया जा सकता है. इसके लिए बिहार सरकार ने पहल शुरू कर दी है| इसी के तहत सोमवार को चीफ सेक्रेटरी दीपक कुमार की अध्यक्षता में स्वास्थ्य विभाग की अहम बैठक हुई| बैठक में बिहार में प्रस्तावित दूसरे एम्स को दरभंगा में बनाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजने का फैसला लिया गया|

केंद्र सरकार की अनुमति मिलते ही एम्स के निर्माण की प्रक्रिया जल्द शुरू कर दी जाएगी|

ज्ञात हो कि 2015-16 के बजट में ही वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बिहार के हिस्से दूसरे एम्स की घोषणा की थी| जगह को लेकर बिहार सरकार को फैसला लेना था, जो कि लगभग दो वर्षों से लंबित था|

दरभंगा में एम्स निर्माण के फैसले पर खुशी जताते हुए जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के राष्ट्रीय महासचिव संजय झा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति आभार प्रकट किया है| उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार लगातार इस बात का जिक्र करते रहे हैं कि मिथिला के विकास के बिना बिहार का विकास अधूरा है| दरभंगा में एम्स हो, यह उनकी भी भावना रही है|

मिथिला का हृदय क्षेत्र है दरभंगा
बड़ी बात ये है कि दरभंगा ,उत्तर बिहार के केंद्र में है और केंद्र सरकार द्वारा अन्य एम्स जो बनाए जा रहे हैं उससे बिल्कुल दूर है| ज्ञात हो कि एम्स गोरखपुर, एम्स पटना और बनारस कैंसर संस्थान और सुपर-स्पेसियलिटी सेंटर से उत्तर बिहार दूर पड़ता है और उन केंद्रों का लाभ पश्चिमी, मध्य और केंद्रीय बिहार को मिलेगा| उत्तर बिहार की सघन आबादी के लिए दूर-दूर तक ऐसा कोई केंद्रीय अस्पताल नहीं है| साथ ही दरभंगा, मिथिलांचल का हृदय क्षेत्र भी है, जिसका फायदा नेपाल के मिथिला क्षेत्र के मरीजों को भी मिलेगा|

इसके साथ ही रेलवे, फोर लेन सड़क के बाद अब बहुत जल्द ही यहां से हवाई जहाज की सुविधा भी मिलने जा रही है| आपात स्थिति में यहां से एयर एंबुलेंस तक की सुविधा मिल सकती है|

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के एक पत्र के मुताबिक, एम्स के लिए लगभग 200 एकड़ जमीन की आवश्यक्ता है| डीएमसीएच के पास लगभग 240 एकड़ के आसपास जमीन है| सरकार को एम्स के लिए अलग से जमीन अधिग्रहण करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ेगी|

 

Mithila, mithilanchal, maithili, bihar, Sanjay Jha

इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में उठे सवाल: मिथिलांचल में एक भी आईआईटी, आईआईएम क्यों नहीं है?

बिहार का मिथिला क्षेत्र अपने इतिहास, संस्कृति, ज्ञान और कला के लिए पुरे देश में प्रसिद्ध है| कभी यह क्षेत्र अपने समृद्धि के लिए भी प्रसिद्ध था, मगर दुर्भाग्य से अभी पिछड़ेपन का शिकार है| मिथिला के विकाश के मुद्दे को लेकर अब विभिन्न मंचों से आवाज़ उठने लगा है|

शनिवार को यह मुद्दा राजधानी पटना में आयोजित इंडिया टुडे की स्टेट ऑफ स्टेट में भी गरमाया रहा|

सवाल उठे कि पढ़ाई मिथिलांचल के जीन में है, लेकिन अपनी विद्वता के लिए मशहूर मिथिलांचल में एक भी आईआईटी, आईआईएम क्यों नहीं है? पूसा इंस्टिट्यूट भी 2 साल पहले आया है|

पैनल में शामिल बिहार सीएम के राजनीतिक सलाहकार संजय झा ने कहा कि इस इलाके में पढ़ने वाले लोग हमेशा से रहे हैं| लेकिन आज तक इस इलाके में कोई बड़ा इंस्टिट्यूट नहीं खुला| हमारी परंपरा समृद्द है लेकिन उस परंपरा को बचाए रखने के लिए प्रयास करने होंगे| यहां रोजगार का कोई साधन नहीं है कोई इंडस्ट्री भी नहीं लगाई गई, आज हालात ऐसे बन गए हैं कि यहां का आदमी धान काटने के लिए पंजाब जाता है| उन्होंने कहा कि यहीं से युवा पढ़ने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी या जेएनयू जाते हैं. अगर उन्हें यहीं इंस्टिट्यूट उपलब्ध करा दिए जांएं तो पलायन रुक सकता है.

राज्यपाल के प्रधान सचिव विवेक कुमार सिंह ने कहा कि सबसे पहले हमें यह पता लगाना होगा कि हमारे पास संसाधन क्या हैं| उन्होंने बताया कि इलाके में पानी प्रचुर मात्रा में है, जमीन ऊपजाऊ है लोग बुद्धिमान हैं, लेकिन संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं हुआ है|

बिहार में न तो हरित क्रांति पहुंच पाई है और न ही चकबंदी हुई है| हमें जितनी उपज मिलनी चाहिए नहीं मिल रही है| ऐसे में पलायन कैसे रुकेगा| उन्होंने कहा कि अगर हम भ्रष्टाचार रोकने में सफल रहे, जमीन पर पूरी उपज मिलने लगेगी तो पलायन अने आप रुक जाएगा|

इतिहासकार रत्नेश्वर मिश्रा ने कहा कि मिथिलांचल को पलायन की दोहरी मार पड़ रही है\ 12वीं सदी में ही विद्वान धन और सम्मान के लिए मिथिलांचल छोड़कर जाने लगे थे| यहां के लोग मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कश्मीर और सुदूर दक्षिण में जाकर जज, मंत्री और दूसरे अहम पदों पर पहुंचे| इसलिए यहां विद्वता की परंपरा टूट गई. मुसीबतों का सामना करने वाले, इसके लिए राह दिखाने वाले लोग ही नहीं रहे| उन्होंने कहा कि पलायन का दूसरा नुकसान यह हुआ कि पलायन के बाद यहां लौटे लोगों ने या उनके भेजे पैसों से बाहर की बुराइयां भी आईं| उन्होंने कहा कि पहले यहां के लोग शराब ज्यादा नहीं पीते थे, लेकिन अब बच्चे भी बेहिचक ऐसा करने लगे हैं| उन्होंने इसपर चिंता जाहिर की|

कभी अपने बिहार के पास भी थी महाराजा एक्सप्रेस की तरह तिरहुत की शाही ट्रेन

सुनने में अजीब लगे लेकिन यह सच है। आज जिस बिहार में लोग मेट्रो और बुलेट ट्रेन के लिए तरस रहे हैं उसी बिहार में कभी महराजा एक्सप्रेस ट्रेने भी चला करती थी।

इसकी खासियत यह थी की इसमे फाइव स्टार होटल वाली सुविधाएं उपलब्ध थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर, पूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णनन सहित कई आला अधिकारी इसकी यात्रा कर चुके थे। जानकार लोगों की माने तो नेहरू ने इस रेल यात्रा के दौरान कहा था कि इस डिब्बे में बैठकर यात्रा अद्भुत रही।

भारत के जमीन पर रेलवे के आने के महज 20 साल बाद ही तिरहुत की जमीन पर रेल की आवाजाही शुरु हो गयी थी। 17 अप्रैल, 1874 को समस्‍तीपुर से तिरहुत रेलवे की पहली ट्रेन दरभंगा पहुंची थी। वैसे तिरहुत रेलवे का सफर सोनपुर से शुरु हुआ था, लेकिन तिरहुत की राजधानी दरभंगा तक का सफर 1874 में ही पूरा कर लिया गया।

भारत के रेल इतिहास में तिरहुत रेलवे दो कारणों से उल्‍लेखित किया गया है। पहला 1874 से 1934 के बीच भारत में सबसे ज्‍यादा रेल पटरी तिरहुत रेलवे ने ही बिछाई। दूसरा यात्री सुविधा को लेकर तिरहुत रेलवे ने कई प्रयोग किये, जिनमें सामान्‍य श्रेणी के डिब्‍बों में शौचालय की व्‍यवस्‍था भारत में सबसे पहले तिरहुत रेलवे ने ही यात्री को मुहैया करायी। तिरहुत रेलवे का विकास का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि 1934 के भूकंप में क्षतिग्रस्‍त पटरी आज तक यूं ही पडी हुई है और पूर्णिया प्रमंडल का दरभंगा प्रमंडल से जो रेल संपर्क 1880 के आसपास ही जुड गया था, वो 1934 से आज तक नहीं जुड पाया है।

जहां तक इसके इतिहास और इसके बनाये आधारभूत संरचना को बचाने या संरक्षित करने का सवाल है तो यह काम अब तक सही तरीके से नहीं हो पाया है।उल्‍लेखनीय है कि तिरहुत सरकार की राजधानी दरभंगा में पहले रेलवे के तीन स्‍टेशन बने थे, हराही (दरभंगा जं) , नरगौना टर्मिनल और अंग्रेजों के लिए लहेरियासराय।

बडी रेल लाइन का पैलेस आन व्‍हील बरौनी में रहता था, तो छोटी रेल लाइन का पैलेस आन व्‍हील नरगौना परिसर स्थित इसी स्‍टेशन पर आकर रुकता था। छत्र निवास पैलेस जो बाद में नरगौना पैलेस हुआ, देश का इकलौता महल था जिसके परिसर में रेलवे स्‍टेशन था। इस धरोहर को जनता के लिए बचा कर रखना चाहिए था। एक ओर जहां पैलेस आन व्‍हील गायब कर दिया गया, वहीं इस स्‍टेशन को भी नष्‍ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हाल के दिनों में विश्‍वविद्यालय प्रशासन ने प्‍लेटफार्म पर संरक्षण का बोर्ड जरुर लगाया है, लेकिन जिस दरबाजे से होकर ट्रेन परिसर में आती थी उसे 2017 के फरवरी में तोड डाला गया है और वहां नयी दीवार बनायी जा रही है।

अगर यह धरोहरों बचा कर रखा जाता तो आज अन्‍य पैलेस आन व्‍हील की तरह तिरहुत का भी अपना शाही ट्रेन होता। वहीं मिथिला विश्‍वविद्यालय विश्‍व का इकलौता विश्‍वविद्यालय होता जिसके परिसर में रेलवे टर्मिनल होता। बनारस और जेएनयू में जब बस टर्मिनल देखने को मिला जो यह स्‍टेशन याद आ गया। बरौनी में रखे गये पैलेस आन व्‍हील की करू तो 1975 में उसे आग के हवाले कर दिया गया। कहा जाता है कि उसे जलाने से पहले उसके कीमती सामनों को लूटा गया।

खैर तिरहुत रेलवे का इतिहास हम बताते रहेंगे…अभी आप इतना ही समझ लें तो काफी है कि तिरहुत में बिछी 70 फीसदी पटरी तिरहुत रेलवे के दौरान ही बिछायी गयी थी। आजाद भारत में महज 30 फीसदी का विस्‍तार हुआ है।

खुशखबरी: बिहार की एक और बेटी उड़ायेगी फाइटर प्लेन, वायुसेना में पायलट पद पर हुआ चयन

कहते है बेटे भाग्य से होते है,
लेकिन बेटियाँ सौभाग से ।

बिहार की बेटियां अपने हौसले और विश्वास के दम पर जीन ऊंचाइयों को छू रही है वह सराहनीय है। इसी क्रम में मधुबनी के छोटे से गांव उमरी की बेटी अद्विका झा का चयन वायुसेना में पायलट पद के लिए हुआ है। बेटी को मिली इस कामयाबी से घर परिवार के लोग ही नहीं बल्कि पुरे जिले के लोग गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं।

अपनी दृढ़ निश्चय और मेहनत के बल पर बिहार का नाम रोशन करने वाली, अद्विका का चयन भारतीय वायुसेना के शॉर्ट सर्विस कमीशन फॉर वीमेन कोर्स में पायलट के लिए हुआ है। अद्विका डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद भारतीय वायुसेना के फाइटर जेट और मालवाहक प्लेन को उड़ाते दिखेंगी।

अद्विका ने वर्ष 2012 में दिल्ली के शालीमार बाग स्थित केन्द्रीय विद्यालय से दसवीं की परीक्षा 10 सीजीपीए तथा बारहवीं की परीक्षा 93 प्रतिशत अंकों से साथ उतीर्ण की है। अद्विका ने बीटेक की पढ़ाई पूरी की है। अद्विका झा उर्फ तनु उमरी गांव निवासी डा. अजय कुमार झा एवं नूतन झा की पुत्री हैं। डा. झा खुद दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय में प्रवक्ता के पद पर हैं, जबकि नूतन झा गृहिणी हैं।

बिहार की बेटी अपने आंतरिक इच्छा से कहती हैं ,उस दिन उनके लिए ज्यादा सुखद होगा जब वायु सेना के आदेश पर वह दुश्मन देश को नाको चने चबाने के लिए वायुसेना के युद्धक विमान तथा मालवाहक विमान के कॉक पिट को संभालेगी।

सामा-चकेबा: जानिए क्यों महिलाएं वृंदावन के तिनकों में आग लगाकर चुगला के मूंछों को जला देती हैं

भाई बहन के अटूट प्रेम का त्योहार है सामा| मिथिला का यह सामा त्योहार बडा ही रमणीक होता है। यह कार्तिक शुक्ल द्वितीया से प्रारंभ और पूर्णिमा की रात तक चलता है। यह खास कर यहां के महिला समाज का ही पर्व है। जो स्कंद पुराण के इस निम्न श्लोक के आधार पर मनाया जाता है।

द्वारकायाण्च कृष्णस्य पुत्री सामातिसुंदरी।
………
साम्बस्य भगिनी सामा माता जाम्बाबती शुभा।
इति कृष्णेन संशप्ता सामाभूत् क्षितिपक्षिणी।
चक्रवाक इति ख्यातः प्रियया सहितो वने।।

उक्त पुराण में वर्णित सामा की कथा का संक्षिप्त वर्णन इस तरह है कि सामा नाम की द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा तथा उसके पति का नाम चक्रवाक था। चूडक नामक एक सूद्र ने सामा पर वृंदावन मे ऋर्षियों के संग रमण करने का अनुचित आरोप श्री कृष्ण के समक्ष लगाया, जिससे श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो सामा को पंक्षी बनने का शाप दे दिया और इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में उडने लगी। उसके प्रेम मे अनुरक्त उसका पति चक्रवाक स्वेच्छा से पंक्षी का रूप धारण कर उसके साथ भटकने लगा। शाप के कारण उन ऋर्षियों को भी पंक्षी का रूप धारण करना पडा। सामा का भाई साम्ब जो इस अवसर पर कहीं और रहने के कारण अनुपस्थित था और लौट कर आया तो इस समाचार को सुन बहन के बिछोह से दुखी हुआ। परंतु श्रीकृष्ण का शाप तो व्यर्थ होनेवाला नहीं था। इसलिए उसने कठोर तपस्या कर अपने पिता श्रीकृष्ण को फिर से खुश किया और उनके वरदान के प्रभाव से इन पंक्षियों ने फिर से अपने दिव्य शरीर का धारण कर अपने धाम को प्राप्त किया। इस अवसर के निम्य आगे दिए जानेवाले वरदान के रूप वचन के अनुसार स्वजन के अल्पआयु होने की आशंका और उसकी आयु वृद्धि की कामना से मिथिला में महिलाओं के द्वारा इस सामा की पूजा का प्रचार हुआ, जो अब तक चली आ रही है।

वर्षे वषे तु या नारी न करोति महोत्सवम्।
पुत्रपौत्रविनिर्मुक्ता भर्ता नैव च जीवति।।
तथा
भर्त्तुव्रियोगं नाप्रोति सुभगा च भविष्यति।
पुत्रपौत्रयुता नारी भ्रातृणां जीवनप्रदा।।

सामा त्योहार यहां खासकर अपने भाई तथा स्वामी के दीर्घआयु होने की कामना से मनाया जाता है। इस अवसर पर मिथिला की प्रायः प्रत्येक नारी अदम्य उत्साह के साथ महिला तथा पुरूष प्रभेद की पंक्षियों की मिट्टी की मूर्तियां अपने हाथों से तैयार करती हैं, जो सामा चकेबा के नाम से जाना जाता है। यह सामा श्रीकृष्ण की बेटी सामा तथा चकेबा उसके स्वामी चक्रबाक का ही द्योतक है। चक्रवाक का अपभ्रंष ही चकेबा बन गया है।

इस अवसर पर निम्य वचन के आधार पर एक पंक्ति में बैठे सात पंक्षियों की मूर्तियां भी बनायी जाती है, जो सतभैया कहलाते हैं। ये सप्त ऋर्षि के बोधक हैं। इस समय तीन-तीन पंक्तियों में बैठी छह पार्थिव आकृतियों की मूर्तियां भी बनाई जाती है, जिन्हें शीरी सामा कहते हैं। वे षडऋतुओं के प्रतीक माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त नये खड के तिनकों से वृंदावन तथा लंबी लंबीं सन की मूंछों से युक्त चूडक का प्रीतक उसकी प्रतिमा भी बनाई जाती है, जो वृंदावन और चुगला कहलाते हैं। सबके अंत में दो विपरित दिशाओं की ओर मुखातिब दो पंक्षियों की मूर्तियां एक ही जगह बैठी बनाई जाती है, जो बाटो-बहिनो कहलाती है। यह सामा और उसके भाई का प्रतीक माना जाता है। जिन्हें भाग्यचक्र ने विमुख कर दिया था।

इसके अतिरिक्त सामा चकेबा की भोजन सामग्री को रखने के लिए उपर एक ढंकन के संग मिट्टी की एक छोटी हंडी के आकार का बर्तन भी बनाया जाता है, जिसे सामा पौति कहते हैं। जिन्हें महिलाएं अपने हाथों से अनेक रंगों के द्वारा निम्य श्लोक के अनुसार रंगती हैं और जो बडे ही आकर्षक दिखते हैं।

चूडकस्यापि प्रतिमां तथा वृंदावनस्य च ।
सप्तर्षीणान्तथा कृत्वा नाना वर्णोर्विचित्रिताम्।।

इस अवसर पर यहां की महिलाएं दस दिनों में कुल मूर्तियों को तैयार कर और उन्हें बांस की कमचियों से निर्मित एक प्रकार के डलिये जिसे चंगेरा कहते हैं, उसमें सजाकर पंक्षियों का दाना भोजन नया धान का शीश उसके भोजन के रूप में डाल देती हैं। इसके बाद एकदशी से जब चंद्र की चांदगी कुछ प्रकाशयुक्त हो जाती है, तो आगे दिए गए वचन के अनुसार अपने अपने चंगेरों को माथे पर रख जोते हुए खेतों में हर रात अपनी सखियों के संग जा और चंगेरों को खेतों में रख समायानुकूल सामा गीत तथा अनेक तरह के हास्य और विनोदपूर्ण क्रियाओं द्वारा सामा की अर्चना करती है।

क्षेत्रे क्षेत्रे तथा नार्य्यः कृतकौतुककमंलाः।
तत् सर्वं वंशपात्रे तु कृत्वा धृत्वा तु मस्तके ।।

सामा त्योहार के समय आपस में अपनी अपनी रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में कुछ सामा चकेबा की मूर्तियां चुगला वृंदावन और चूडा तथा गूड चंगेरा में रख भेजना यहां की महिलाएं आवश्यक मानती हैं। जिनमें उच्च या निम्य वर्ग का भेद नहीं दिखता है और आपस में प्रेम बढाने की भावना निहित है। इस त्योहार की अंतिम रात पूर्णमासी को मिथिला में जब महिलाएं अपने अपने आंगन मे अर्धरात के समय चौमुख दीप से प्रकाशित और मिट्टी की मूर्ति तथा अन्य वस्तुओं से सुसज्जित चंगेरों को माथे पर धारण किए मधुर स्वर से लोक गीत गोते पंक्तिबद्ध हो निकली हैं और जोते हुए खेतों में पहुंच अपने-अपने चंगेरों को आगे रख मंडलाकार बैठ विनोदयुक्त हंसी की किलकारियों से आकाश को गुंजित करने लगती हैं तो उस समय ऐसा रमणीक तसवीर मालूम पडता है मानो चंद्रमा अनेक रूप धारण कर जमीन पर उतर आया हो और मधुर कंठों से निनादित वह लोकगीत सुन आनंद के मारे अपने पूर्ण कलाओं से युक्त हो प्रसंन्नता से हंस रहा हो, जिसकी हंसी प्रकाशित चांदनी के रूप में जमीन पर बिखर गई हो।

इस समय सामा खेल के अवसर पर प्रत्येक महिला एक निश्चित मंत्र उच्चारण के संग शीरी सामा को अपने अपने आंचल के छोडों पर रख आपस में एक दूसरे से बदलती हैं, जिसका तात्यपर्य अपने प्रीयजनों की आयु को परस्पर आदान प्रदान कर प्रत्येक पुरूष को लंबी आयुवाला बनाने का रहता है। इस बदलोबदल का दूसरा तात्यपर्य यह भी रहता है कि प्रत्येक पुरूष आपस में एक दूसरे का भाई बना रहे। इस तरह इस कार्य में एकता की भावना छिपाई गई है। इसी लिए बिना भाईवाली बहन के संग यह बदलाव करना महिलाओं के लिए वर्जित होता है। काफी देर तक विनोद पूर्ण लोकगीत के संग हर्षयुक्त खेल खेलने के बाद अंत में ये  और इसके बाद उन अर्ध जली मूंछोंवाली मूर्तियों को उनके नीचे लगी लकडियों के सहारे उन जोते हुए खेतों में खडा कर गाड देती हैं। ताकि उनकी दुर्दशा दुनिया के लोग देख सके और चुगली करने की आदत छोड दे।

इसके बाद ये महिलाएं अपने अपने सामा चकेबा की मूर्तियों को तोड-फोड कर उन खेतों में डाल अपने अपने घर की ओर रवाना हो जाती हैं और रास्ते में बाटो बहिनो की मूर्तियों को रखते हुए अपने घर को पहुंच बचा कर रखे हुए बाकी सामा को भाई के हाथों तोडबा देती हैं।

इन सब बातों का यह तात्पर्य है कि इन सब मूर्तियों के रूप मे श्रीकृष्ण की बेटी सामा शाप मुक्त होकर दिव्य शरीर धारण कर बाट जोहते हुए अपने भाई के पास फिर से अपने धाम को पहुंच गई और चूडक जिसने चुगली कर सामा पर कलंक लगाया था वृंदावन के संग जला कर राख बना दिया गया। ताकि उस प्रकार के लोगों का नामो-निशान मिट जाए।

मिथिला के इस सामा खेल में कुछ धार्मिक तात्पर्य भी छुपा है। वह यह है कि जैसे ये महिलाएं यह सामा खेलने के लिए कितने मेहनत से तरह-तरह से सुंदर मूर्तियों का अपने हाथों से निर्माण तथा रंग रोगन कर खेल के अंत में उन्हें अपने और अपने भाई के हाथों तोड देती हैं और दूसरे साल फिर से उसका निर्माण करती है, उसी तरह भगवान अपने मनोरंजन के लिए अपने हाथों से सुंदर से सुंदर वस्तुओं का निर्माण कर जमीन पर सृष्टि की रचना करता है और अपने ही इच्छानुसार अपने हाथों उसे नष्ट भी करता है। अर्थात यह सृष्टि अनित्य है। इन सब कारणों से मिथिला में यह सामा का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। इसी से ज्ञात होता है कि पौराणिक युग से ही मूर्तियों पर चित्रण करने की कला यहां की महिलाओं के संग चली आ रही है, जो इस समय भी लोक चित्रकला के रूप में प्रचलित है|

बनारस में भी मनाया जाता था यह त्यौहार

आप को जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि ये त्यौहार (सामा- चकेबा) बनारस स्टेट में रामनगर फोर्ट में भी मनाया जाता था| महारानी साहिबा जो अपनी ननिहाल शिवहर एस्टेट से इस परंपरा को लायीं थीं | वह हमारी नानी हुज़ूर थी और बड़ी विदुषी थी, उन्होंने स्कन्द पुराण की ये कथा सुना के इस परंपरा की शास्त्रीयता प्रमाणित की थी | उनका यह भी कहना था की ये परंपरा काशी में पहले भी थी कयोंकि कई महारानियाँ बिहार से यहां आयीं थी| इस उत्सव को हमारी माताश्री और दीदी भी मनाती थी हम भाई भी काफी एन्जॉय करते थे| इस उत्सव के आखिरी दिन सामा का गंगाजी में विसर्जन होता था और भर भरने की रस्म भी होती थी जिसमे बहन भाई को चूड़ा दही देती थी और भाई बहन को उसी में से निकाल कर देता था| इसका अर्थ था की भाई बहन सदा मिल बाँट कर जीवन के सुख को पाएं| सामा को भी दही चूड़ा खिला कर , सिंदूर से सजा का और खोइछा दे कर विदा किया जाता था | शेहनाई भी बजती थी जैसे सामा की ससुराल विदाई हो रही हो| इस दिन काशी में देव दीपावली भी मनाई जाती थी और जगमगाते दीपकों के बीच में सामा का विसर्जन वास्तव में दिव्य लगता था | काशी और मिथिला की परम्परों का ये अनूठा मेल था |
कुंवर इशान



आलेख साभार: मिथिला की लोक चित्रकला, लक्ष्मीनाथ झा, 1962

बिहार का लोकपर्व सामा-चकेबा जोते हुए खेत में बहनें आपस में शिरी का आदान-प्रदान करती हैं और चुगला का दहन करती हैं। भाई-बहन के स्‍नेह के लिए अदभुत पर्व पर समस्‍त बहनों को मेरी बधाई। सामा के भाई की तरह ही हर बहन को भाई मिले यही नारायण से कामना।

शिरी का आदान-प्रदान का मंत्र —

जीबो जीबो जीबो कि मोर भैया जीबो
कि तोर भैया जीबो! कि लाख बरिख जीयो।
जइसन करड़़ि कए थम्म तइसन भैया कए जांघ।
जइसन समुद्र-समाद्र तइसन भैया कए टीक।
जइसन धोविया कए पाट तइसन भैया कए पीठ।
जीबो जीबो जीबो कि मोर भैया..!


लेखक: कुमुद सिंह, संपादक, इस्माद

चित्र साभार – श्रीमति गणपति झा मनीषा झा व अन्य

भाई-बहन के अटूट रिश्ते का पर्व है बिहार में मनाया जाने वाला सामा-चकेवा

सामा-चकेवा बिहार में मैथिल लोगों का एक प्रसिद्ध त्यौहार है| भाई – बहन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को दर्शाने वाला यह त्यौहार कार्तिक माह के छठ के अगले दिन से कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है| इसका वर्णन पुरानों में भी मिला है| सामा-चकेवा की पौराणिक मान्यता है कि सामा कृष्ण की पुत्री थी जिनपर अवैध सम्बन्ध का गलत आरोप लगाया गया था, जिसके कारण सामा के पिता कृष्ण ने गुस्से में आकर उन्हें मनुष्य से पक्षी बन जाने की सजा दे दी| लेकिन अपने भाई चकेवा के प्रेम और त्याग के कारण वह पुनः पक्षी से मनुष्य के रूप में आ गयी|

जब सामा के भाई चकेवा को इस प्रकरण की जानकारी हुई तो उसे अपनी बहन सामा के प्रति सहानुभूति हुई| अपनी बहन को पक्षी से मनुष्य रूप में लाने के लिए चकेवा ने तपस्या करना शुरू कर दिया| तपस्या सफल हुआ| सामा पक्षी रूप से पुनः मनुष्य के रूप में आ गयी| अपने भाई का स्नेह और त्याग देख कर सामा द्रवित हो गयी|

तभी से बहनें अपने भाइयों के लिए यह उत्सव मनाने लगी।

पहले महिलायें अपने हाथ से ही मिट्टी की सामा-चकेवा बनाती थीं| विभिन्न रंगों से उसे सवांरती थी| लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता है| अब बाजार में रंग-बिरंग के रेडीमेड मिट्टी से बनी हुई सामा-चकेवा की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं| महिलायें इसे ही खरीदकर अपने घर ले आती हैं| लेकिन अब मिथिला की इस संस्कृति पर, ऐसी लोकगीतों पर, ऐसी लोकनृत्यों पर लोगों की आधुनिक जीवनशैली के द्वारा, एकल परिवार में वृद्धि के द्वारा एक प्रकार से चोट पहुंचाया जाने लगा है तथा रोजगार के कारण लोगों के अन्यत्र रहने से अब महिलायें सामा-चकेवा का उत्सव नहीं मनाती हैं| कहीं-कहीं हम सामा-चकेवा के अवसर पर गांवों की  सड़कों पर, शहरों की गलियों में सामा-चकेवा के गीत सुनते हैं| इन दिनों ये गाने मिथिलांचल के हर घर से सुनाई देते हैं जहाँ सामा चकेवा का आयोजन बहनें अपने भाइयों के लंबे उम्र के लिए करती हैं;

सामचक सामचक ऐहा हे ऐहा हे
सामा खेले गेली भौजी संग सहेली और चुगला करे चुगली बिलैया करे म्याऊ (यहाँ उसी चुगला को बहनें गाली देती हैं जिसने कृष्ण को मन गढ़ंत कहानी सुना कर सामा को पक्षी बनवा दिया था)

सामा-चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से जुड़ा है| यह उत्सव मिथिला के प्रसिद्ध संस्कृति और कला का एक अंग है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त सभी बाधाओं को तोड़ता है| यह उत्सव कार्तिक शुक्ल पक्ष से सात दिन बाद शुरू होता है| आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है, और नौवे दिन बहनें अपने भाइयों को धान की नयी फसल का चुरा एवं दही खिला कर सामा-चकेवा के मूर्तियों को तालाबों में विसर्जित कर देती हैं| गाँवों में तो इसे जोते हुए खेतों में भी विसर्जित किया जाता है|

बिहार ही नहीं,भारत का इकलौता गांव जिसने तीन पद्म श्री पुरस्कार अपने नाम किया

बिहार ही नहीं,भारत का इकलौता गांव जिसने तीन पद्म श्री पुरस्कार अपने नाम किया।

मधुबनी बिहार राज्य का एक ऐसा गांव है जिसने एक नहीं बल्कि तीन-तीन पद्मश्री पुरस्कार अपने नाम किया है।

प्रधानमंत्री मिथिला पेंटिंग के साथ

अभी तीसरा पद्मश्री पुरस्कार वौआ देवी को मिला है। मधुबनी के इस गांव का नाम है जितवारपुर।जिसकी मिट्टी के हर कण में जीत ही जीत है।

दीपक कुमार,मधुबनी
मधुबनी जिला के जितवारपुर गांव की 75 वर्षीया बौआ देवी को पद्मश्री अवार्ड के लिए चयनित किया गया है। मिथिला पेंटिंग के गढ़ माने जाने वाले जितवारपुर गांव की दो । महान शिल्पी जगदम्बा देवी और सीता देवी पद्मश्री अवार्ड से पहले ही सम्मानित हो चुकी हैं।
मधुबनी जिला मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर रहिका प्रखंड के नाजिरपुर पंचायत का जितवारपुर गांव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 670 परिवारों को अपने दामन में समेटे इस गांव का इतिहास गौरवशाली है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस गांव की तीन शिल्पियों को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
देश के इतिहास में यह पहली मिसाल है जब एक ही गांव को तीन पद्मश्री मिले हों। अब की बार तीसरी बार सिद्धहस्त शिल्पी बौआ देवी को यह सम्मान मिला है।
इससे पहले जगदम्बो देवी और सीता देव  को यह सम्मान मिल चुका है। ये दोनों भी इसी जितवारपुर गांव की निवासी रही हैं। सीता देवी का देहांत 2005 में हुआ।
लगभग साठ वर्षों से बौआ देवी मिथिला पेंटिंग से जुड़ी हुई हैं। बौआ देवी को 1985-86 में नेशनल अवार्ड मिल चुका है। वह मिथिला म्यूजियम जापान 11 बार जा चुकी है। जापान के म्यूजियम में मिथिला पेंटिंग की जीवंत कलाकृतियां उकेरी है।

बऊवा देवी

बौआ देवी बताती है कि तरह वर्ष की उम्र से ही मिथिला पेंटिंग बना रही हैं। नेशनल अवार्ड मिलने के बाद से अब तक लगातार उनको हर मुकाम पर सफलता मिली। वह देश के कोने-कोने में मिथिला पेंटिंग को लेकर हर मंच से सम्मानित हो चुकी हैं।
उनका पूरा परिवार इस विधा से जुड़ा है। वे अपने दो बेटे अमरेश कुमार झा,विमलेश कुमार झा व तीन बेटियां रामरीता देवी, सविता देवी और नविता झा को मिथिला पेंटिंग में सिद्धहस्त कर चुकी हैं।
 गांव के हर घर में यह कला रचती-बसती है। गांव के हर समुदाय के लोगों में कला कूट-कूट कर भरी हुई है।मिथिला आर्ट और कल्चर को करीब से जानने वाली पत्रकार
कुमुद सिंह कहती हैं मिथिला स्‍कूल आफ आर्ट को संरक्षित करने में जो भाूमिका इस गांव की महिलाओं की रही है वो अतुल्‍यनीय है। कला को संरक्षित करने में जितवारपुर की महिलाओं ने अपना पूरा जीवन सौंप दिया, उस नजर से देंखें तो यह पुरस्‍कार इन्‍हें काफी देर से मिला है।
मिथिला स्‍कूल आफ आर्ट को संरक्षित करने में जो भाूमिका इस गांव की महिलाओं की रही है वो अतुल्‍यनीय है। कला को संरक्षित करने में जितवारपुर की महिलाओं ने अपना पूरा जीवन सौंप दिया, उस नजर से देंखें तो यह पुरस्‍कार इन्‍हें काफी देर से मिला है।

http://www.aapnabihar.com/2017/01/special-award/

बिहार की एक बेटी इतिहास बनाने को तैयार, आसमान में उडायगी फाईटर प्लेन

पटना: 18 जून भारतीय एयरफोर्स का ऐतिहासिक दिन बनेगा, जब 18 जून को महिला फाइटर पायलट का पहला बैच शामिल होगा। इस उपलब्धि में राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार भागीदार बनेगा। अन तीनों राज्यों से आने वाली भावना कांत, मोहना सिंह और अवनी चतुर्वेदी भारतीय एयरफोर्स में महिला शक्ति की पहचान बनने जा रही हैं। बिहार का नाम रौशन कर रही है भावना कांत।  

 

अवनी मध्यप्रदेश की है,  मोहना राजस्थान की तो भावना कांत अपने बिहार के दरभंगा की बेटी है। दरभंगा के एक साधारण परिवार में जन्मी भावना कांत कभी आसमान में फाईटर प्लेन उडायगी, यह किसी ने शायद सोचा भी नहीं होगा।

 

उनके दादा एक इलेक्ट्रिशियन, तो पिता मैकेनिक रहे हैं। भावना ने डीएवी स्कूल, बरौनी रिफ़ाइनरी, बेगूसराय से वर्ष 2009 में दसवीं की परीक्षा पास की थी। उन्होंने बीएमएस बेंगलुरू से वर्ष 2014 में बीटेक किया। पिछले साल उन्हें भारतीय वायु सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत शामिल किया गया था।

 

भारतीय सेना में पहली बार किसी महिला को मिलिट्री नर्सिंग सर्विस के लिए वर्ष 1927 में शामिल किया गया था। वर्ष 1992 में तत्कालीन सरकार की मंजूरी के बाद सेना के तीनों अंगों में महिला अधिकारियों को शामिल किया जाने लगा।

 

यह पहला मौका होगा, जब भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान की कॉकपिट में कोई महिला बैठेगी। इंडियन एयरफोर्स में फिलहाल 94 महिला पायलट हैं, लेकिन ये पायलट सुखोई, मिराज, जगुआर और मिग जैसे फाइटर जेट्स नहीं उड़ाती हैं। वायुसेना में लगभग 1500 महिलाएं हैं, जो अलग-अलग विभागों में काम कर रही हैं। 1991 से ही महिलाएं हेलीकॉप्टर और ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट उड़ा रही हैं, लेकिन फाइटर प्लेन से उन्हें दूर रखा जाता था।।

 

आज महिलायें सभी क्षेत्रों में आगे बढ रहीं है।  बेटा और बेटी का फर्क मिटता जा रहा है।  लड़कियां भी लड़को से कम नहीं है।  भारत को गर्व है अपने नारी शक्ति पर।  बिहार को भी गर्व है अपने इस बेटी पर।