गोपालगंज से रायसीना: क्या भारतीय राजनीति में आज भी लालू प्रसाद यादव की भूमिका प्रासंगिक है?

लालू यादव के राजनीति में प्रासंगिकता का  उत्तर  हमें उनकी जीवनी से बेहतर किसी और किताब में नहीं मिलेगा.

हाल ही में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने अपनी रजत जयंती मनाई है, इस मौके पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए अपने पार्टी के कार्यकर्ता और जनता को संबोधित किया और कहा कि “हमने बिहार में गरीब-पिछड़ों का राज्य स्थापित किया जिसको विपक्ष ने जंगल राज करार दिया”। पिछले कुछ सालों से लालू प्रसाद यादव राजनीति में पूरी तरह सक्रिय नहीं हैं, और यह कमी बिहार के वर्ष 2020 के चुनावों में भी खली । ऐसे में यह जानना बेहद आवश्यक है कि क्या लालू प्रसाद यादव की भारतीय राजनीति में भूमिका आज भी प्रासंगिक है?

90 के दशक में मेरा बिहार राज्य में जन्म हुआ तब से हम लालू प्रसाद यादव के बारे में यही सुनते आए हैं- लालू ने बिहार को बर्बाद कर दिया, लालू ने बिहार में जंगलराज ला दिया, उन्होंने बिहार को 20 वर्ष पीछे धकेल दिया, बिहार में कोई ‘प्रोग्रेस’ नहीं हुआ; इन बातों का लब्बोलुआब यह है कि अगर बिहार आज पीछे हैं तो लालू प्रसाद के वजह से पीछे है| शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक पायदानों पर अनेक तरह की बुराइयां जो है वो लालू प्रसाद यादव की वजह से है। लेकिन जब हम बड़े हुए और धीरे-धीरे उनके बारे में पढ़ें उनके व्यक्तित्व को बहुत माध्यमों से पहचाना तब हमें पता चला कि यह जो उनके बारे में छवि बनाई गई है, यह अपर कास्ट (कुलीन) मीडिया के दिमाग की उपज है। उनकी छवि को बिगाड़ने की लगातार कोशिश की गई है और एक बहुजन नेता कैसे अपने समाज के लिए आगे बढ़ता है और अपने पूरे समाज को कैसे आगे बढ़ाता है उस पर कोई भी प्रकाश नहीं डाला गया है।

लालू जी ने लिखा भी है, “मीडिया गरीबों के बजाय संपन्न तबके के मुख पत्र की तरह काम करता है और मुझे गलत तरीके से पेश करेगा । लेकिन मैं जो कुछ कर रहा था, उससे निचले तबके के लोग सशक्त हुए, जिन्हें सदियों से शोषण और अमानवीयता के बीच जीवनयापन करने को मजबूर होना पड़ा था” ।

यदि आज के दौर में अगर हम उनके बारे में न पढ़े और उचित जानकारी ना ले और उनकी अच्छाइयों को लोगों तक न पहुंचाए तो बहुजन समाज भी इन्हीं भ्रांतियों का शिकार हो जाएगा। इसीलिए बहुजन समाज के लोगों को उनके बारे में सही जानकारी लेना अत्यंत आवश्यक है ।

शहर में रह रहे आज भी कुलीन वर्ग के लोगों के लिए लालू प्रसाद यादव एक पिछड़ा नेता है, जो अनपढ़-गँवार हैं,  दूध-दही बेचता था, जिसको किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं है । लेकिन ऐसे सभी भ्रम को तोड़ने के लिए उनकी जीवनी  गोपालगंज से रायसीना: मेरी राजनीतिक यात्रा  पर्याप्त है । लालू जी के राजनीति में प्रासंगिकता का  उत्तर  हमें उनकी जीवनी से बेहतर किसी और किताब में नहीं मिलेगा ।

इस बुक में लालू के जीवन के बचपन से लेकर अभी तक के उनके अनेक संघर्षों की कहानी बताई गई है, जिसमें कुछ रोमांचक तथ्य भी है और कुछ भावुक करने वाले पल भी, जिन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि एक बहुजन नेता का राजनीतिक सफर आसान बिल्कुल भी नहीं होता है।

लालू के जीवन के अनेक ऐसे तथ्य जो आम जनता को शायद ही पता हो उनकी जीवनी  में उद्धत की गई है । यह किताब नलिन वर्मा के द्वारा लालू प्रसाद के शब्दों में लिखी गया है। 2019 में छपी यह पुस्तक 13 अध्याय में विभाजित हैं ।

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गोपालगंज से रायसीना: मेरी राजनीतिक यात्रा

इस किताब के पहले अध्याय पर आते हैं, तो इसका नाम दिया गया है गरीबी से संघर्ष, भूत का सामना लेकिन मैं इस  पाठ का नाम भगई से लेकर कुर्तापजामा तक का सफर रखूंगी । यह लालू जी के आरंभिक जीवन के दौर के संघर्ष की कहानी है, जिसमें उन्होंने बताया कि दो वक्त का खाना उनके लिए कितने नसीब की बात थी । उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी नहीं थे, सर्दियों में वह अलाव जला कर आग के पास बैठकर सारे भाई-बहनों के साथ कितने मुश्किलों से रात बिताते थे, और उन्होंने अपनी माता जी का और अपने पिताजी के संघर्ष  को भी बहुत ही मार्मिकता के साथ बयां किया है । उन्होंने बताया है कि गाँव में पिछड़े तबके के लोगों को शुद्ध पानी भी नसीब नहीं होता था और नाहीं लोगों को अच्छे तरीके से खाने को भोजन मिल पाता था । कभी- कभार पूड़ी-हलवा मिल जाए तो यह उनके लिए विशिष्ट पकवान होता था ।

प्रथम अध्याय में लालू प्रसाद यादव ने यह बताया है कि भगई जो एक लंगोट के प्रकार का कपड़ा होता है, जिसे शरीर के निचले भागों में बांधकर पहना जाता है, उनके पास पूरे वस्त्रों में वही बस एक वस्त्र होता था जिसको वह पूरे दिन पहने रहते थे । बिस्तर के नाम पर बस पुआल होती थी जिसपर सो कर वह अपने जाड़े की रात बिताते थे । यह सब पढ़कर ऐसा लगता है कि एक पिछड़े समाज के नेता को कितना मुश्किल होता है अपने आप को ऊपर  उठाना । जिसके पास पूरे कपड़े नहीं थे, नाही पीने का शुद्ध पानी और नाही दो वक्त का खाना । ऐसे व्यक्ति का आगे चलकर मुख्यमंत्री बनना कल्पना से परे था ।  यह गर्व सिर्फ उस नेता और उसके परिवार के लिए नहीं है, बल्कि पूरे बहुजन समाज के लिए है क्योंकि जातिवाद के दंश में फंसा हुआ आज भी भारतीय समाज पिछड़े व दलित नेताओं को आगे बढ़ने नहीं देता है ।

ऐसे में आज से तीन दशक पहले लालू प्रसाद यादव ने एक समानता का बीज बोया जिससे बहुत सारे बिहार के बहुजनों को फायदा मिला और उन्हीं की वजह से बिहार के पनवरियाँ, कहार, भार,  हज्जाम,  अहीर, कोइरी के बच्चे अपनी काबिलीयत के बदौलत दरोगा, शिक्षक और अफसर बने ।

उनकी जीवनी से यह पता चलता है कि वह अपने युवा दिनों से ही राजनीति में सक्रिय थे और कॉलेज के दिनों से ही वह पिछड़ी जातियों के लिए काम करना शुरू कर दिये थे । इस पुस्तक के आगे के अध्याय जो लालू जी के शैक्षिक जीवन से संबंधित हैं उन सारे लांछनों का जवाब देती है जो कि जातिगत चासनी में डूबे हुए तबकों द्वारा लालू प्रसाद यादव पर लगाये गए हैं ।

इस पुस्तक के तीसरे अध्याय में लालू जी ने इन सबकी वजह बतायी  है कि क्यों उन्हें जंगली और गँवार मुख्यमंत्री कहा गया । लालू प्रसाद यादव ने हर जगह पर जहाँ बस कुलीन लोग जा सकते थे, जैसे कि क्लब, कॉलोनी । उन सारे जगहों को सार्वजनिक बनाया ताकि  एक मैला ढोने वाला व्यक्ति या पशु चराने वाला व्यक्ति भी वहाँ सर उठा के चल सके जहाँ कल तक बस अमीर और उच्च जाति के लोग जा सकते थे।

लालू प्रसाद यादव के तमाम उपलब्धियों में से एक और अत्यंत महत्वपूर्ण भारत का रेल मंत्री बनना था, अध्याय दस, भारतीय रेलवे: दिवाला से दिवाली तक में यह बताया गया है कि जब वह रेल मंत्री बने थे, तब भारतीय रेल घाटे में चल रही थी उन्होंने अनेक नीतियों से घाटे को मुनाफ़े में तब्दील किया। उनके द्वारा ग़रीब रथ ट्रेन चलाया गया जिसके पीछे यह कहानी थी कि अब ग़रीब यात्री भी पटना से दिल्ली तक का सफ़र एयर कंडीशन में कर सकेंगे । उन्होंने लाखों भारतीय कुम्हारों को  रेल सेवा से पुनः जोड़ने का काम किया, और स्टेशन परिसर में फिर से कुल्हड़ में चाय परोसने की शुरुआत की, जिससे कुम्हारों की आय में बढ़ोतरी हुई । इस तरह से शुरुआत किये गए लालू प्रसाद यादव के अनेक कार्य बहुजन समाज को सीधा लाभ पहुँचाते थे ।

इस पुस्तक में उन सभी बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । मंडल की लहर से लेकर मन्दिर-मस्जिद विवाद पर लालूजी ने अपना स्पष्ट मत रखा है और पिछड़े समाज के लोगों को यह संदेश दिया है कि ‘मंडल’ की लड़ाई  ‘कमंडल’ यानी मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

इस पुस्तक में इस बात को रेखांकित किया गया है कि लालू प्रसाद यादव ने क्यों दलित-आदिवासी, पिछड़े, और मुसलमानों का पक्ष लिया । क्योंकि वह बचपन से उन्हीं लोगों के बीच में रहे उनके दुःख-दर्द को करीब से समझा और यह पाया कि इन वर्गों की आवाज़ को दबाया गया है और ऐसे में हमें इन समुदायों को स्वर देने की जरूरत है । जिसके वजह से उन्हें अपर कास्ट विरोधी भी कहा गया ।

इस पुस्तक में यह बताया गया है कि देश में विरोध, आंदोलन होते रहे है लेकिन कोई भी सरकार विरोधियों को पाकिस्तान जाने को नहीं कहती थी लेकिन आज देश में अघोषित आपातकाल लागू कर दिया गया है । जहाँ चारों तरफ़ असंतोष और अराजकता का माहौल है । एक निश्चित वर्गीय सोच को तरजीह दिया जा रहा है ।

आज के दौर में राजनीति से लेकर विश्वविद्यालय तक में बहुजनों के साथ अनेक प्रकार के दुर्व्यवहार हो रहे है,  असमानता में हमें बढ़ोतरी देखने को मिल रही है । ऐसे समय को लालू जी के संघर्षों का ज़िंदा रहना बहुत जरूरी है। उन्होंने जिस प्रकार नब्बे के दशक में प्रधानमंत्री वी पी सिंह के साथ मिल कर मंडल की लड़ाई लड़ी और देश के ओबीसी को एक नई पहचान दी वह विस्मरणीय है । आज देश के ओबीसी अपने सही इतिहास को भूलकर सवर्णों की भाषा बोलने लगे हैं ऐसे में उनको लालू प्रसाद यादव के संघर्षों को याद करना चाहिए । जिन समुदाय के लोगों को तुच्छ समझा जाता था उनको संसद का रास्ता दिखाने का काम लालू जी ने किया है । पिछड़े समुदाय के औरतों का उच्च जातीय पुरुषों  द्वारा उनके सम्मान को आए दिन ठेस पहुँचाया जाता था ऐसे लोगों की तानाशाही खत्म कर लालू प्रसाद यादव ने एक कुलीन राज का अंत किया है ।

देश में दलितों-पिछड़ो पर अत्याचार कम नहीं हो रहा है, ऐसे असामान्य समय में लालू प्रसाद यादव की भूमिका प्रासंगिक है, जिन्होंने समाज की नजर में  ‘इररेलेवेंट’ लोगों को आज ‘रेलेवेंट’ बनाया और इस प्रक्रिया को निरंतर जारी रखने के लिए उनका ‘रेलेवेंट’ होना जरूरी है ।

लालूजी के शब्दों में-

ए गाय चराने वालों

ए बकरी चराने वालों

ए कपड़ा धोने वालों

ए सुअर पालने वालों

ए मैला ढोने वालों

पढ़ना लिखना सीखो

पुस्तक का नाम गोपालगंज से रायसीना: मेरी राजनीतिक यात्रा

लेखक नलिन वर्मा

रूपा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2019

– ऋतु, शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय

(लेख में व्यक्त किये गए विचार लेखिका के व्यक्तिगत विचार है)

 

 

 

 

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