Durga Puja: मेला हज़ारों परिवारों के आर्थिक जद्दोजहद की दास्तां करती है बयां

दुर्गा पूजा का त्योहार आ चुका है, देश विदेश में इसे धूमधाम से मनाया जा रहा है, खासकर देश के पश्चिम बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस त्योहार को लेकर ज्यादा चहल-पहल देखी जा सकती है, जगह-जगह पर पंडाल लगे हैं, पंडाल में दुर्गा माँ की तरह-तरह की मूर्तियां सजी हुई है, शहरों और गांवों के सड़क-गलियां अच्छे से साफ की गई है, सुबह होते ही सबके घरों में माँ अम्बे की आरती सुनाई दे रही है और शाम को झिलमिल सी लाइट-झूमरों से पूरा गाँव-शहर जगमगा उठा है। इस पर्व को लेकर बच्चे से लेकर बुड्ढ़े सब में उत्सुकता देखी जा सकती है।

इस पर्व के केवल धार्मिक मायने नहीं है, यह सामाजिक सरसता का भी प्रतीक हैं, लोग इसी त्योहार के माध्यम से एक-दूसरे से मिल पाते हैं, एकजुट होकर भंडारा का आयोजन करते हैं, जिसके माध्यम से हर वर्ग के लोग एकसाथ खाना खाते हैं। कई महिलाएं जिन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नही होती, वह भी इस मेले से बाहर की दुनिया देख पाती है। विभिन्न गाँव-शहरों में मेले के वज़ह से व्यापारियों के व्यापार में वृद्धि होती है। लेकिन इन सारे पहलुओं के बीच एक बात तंग कर देने वाली है कि तमाम ग़रीबी उन्मूलन नीतियों के बावजूद भी देश में आज भी हम बाल मज़दूरी समाप्त नही कर पाए, पंडाल के आस-पास छोटे-छोटे बच्चे आपको विभिन्न स्टॉलों पर देखे जा सकते हैं।

मेला और बाल मजदूर

बहुत सालों बाद इस बार दुर्गा पूजा के अवसर पर दिल्ली से बिहार आना हुआ, बाकी लोगों की तरह मेरे अंदर भी मेले को लेकर बचपन से ही उत्सुकता रहती है, जब आज मैं अपने छोटे से शहर में मेले का लुत्फ़ उठाने गयी तो मुझे मेरे बचपन का वो मेला नज़र नही आया, इस बार मूर्तियों और पंडालो को देखकर मन में हज़ारों ख्याल आ रहे थे, ऐसा लगा कि जिस सिद्दत से लोगो ने चन्दा इकठ्ठा कर इस शहर को दुर्गा पूजा के लिए तैयार किया है, उसी सिद्दत से क्यों न किसी गरीब बच्चे के पढ़ाई के लिए चन्दा इकठ्ठा किया जाता हैं, जो आतुरता शहर को सजाने में युवाओं ने दिखाई वही आतुरता किसी पुस्तक मेले में क्यों नहीं दिखती?

ऐसे ही हज़ारों सवाल से घिर कर मैं विभिन्न पंडालों का भ्रमण कर रही थी, तभी मेरी नज़र एक चूड़ी के स्टाल पर पड़ी, जहाँ बचपन मे सिर्फ केवल काँच की चूड़ियाँ मिलती थी, लेकिन अब काँच के साथ प्लास्टिक की भी चूड़ियाँ बाज़ार में आ गई थी, जब मैं चुड़ियों के डिज़ाइन को पसंद कर रही थी तभी एक 14-15 साल की एक लड़की आ कर बोली, का लेब दीदी? (क्या लेंगी दीदी) मैंने पूछा आप यहाँ पर हैं? उसने हाँ में सर हिलाया, फिर डिजाइन पसन्द कर कुछ चूड़ियाँ मैंने ले ली, लेकिन मेरा मन वही रह गया, बार-बार मन यही सोच रहा था कि जिस उम्र में लड़कियां मेला घूमने की तैयारी करती है, तरह-तरह के कपड़े चुन कर रखती है, सहेलियों के साथ चाट-गोलगप्पों पर ठहाके मारती है, उस उम्र में यह लड़की अपने किशोरवस्था के आनंद को छोड़कर चुड़ी बेच रही हैं।

जैसे ही मैं आगे बढ़ी मेरी नज़र एक ग़ुब्बारे वाले पर पड़ी, जब मैंने उनसे गैस वाले ग़ुब्बारे की क़ीमत पूछा तो उन्होंने 5 रूपए बताए, मैं थोड़ा अचरज़ में थी, क्योंकि बड़े शहरों में तो शायद हम 5-10 रुपए की कीमत भूल ही गए हैं। उनके बगल में एक 7-8 साल का बच्चा प्लास्टिक के खिलौने बेच रहा था और बार-बार बोल रहा था, दीदी हमरो से कुछ कीन ल (दीदी हमसे भी कुछ ख़रीद लीजिए) मैंने उससे एक छोटे से कुर्सी का दाम पूछा था तो वह पहले बोला 20 रुपए फिर बोला 15 रुपए, मैंने उससे वह खिलौना लिया और 20 रुपया दिया, और पूछा कि स्टाल पर और कोई नही है? उसने धीरे से नही में उत्तर दिया, फिर मैंने पूछा कि स्कूल जाते हो? वह इस सवाल से थोड़ा असहज दिखा फिर बोला नही, उसके बाद मेरे बिना पूछे ही उसने बोला दीदी बहुत घर में दिक्कत है काम करना पड़ता है, इसलिए स्कूल नही जाते है। मैं मेले से तो चली आई, लेकिन उस बच्चे की बात को भूल नही पा रही हूँ। बार-बार मन यही सोच रहा है कि इस उम्र में तो हम खिलौनों की पापा से जिद किया करते थे, जलेबी और समोसा खाने के बाद भी चाट खाने के लिए उतावले रहते थे, ना ही हमें ये पता था कि गरीबी क्या होती है और कमाने के क्या-क्या साधन है? लेकिन गरीबी के दंश ने उस बच्चे को इतना समझदार बना दिया है कि उसे पता है कि बिना काम किए घर में पैसे नही आ सकते।

ऐसे अनेक दृश्य दिखे जहाँ गोलगप्पों की दुकान पर बच्चे गोलगप्पे खिला रहे थे, कही चाट की दुकान पर बच्चे प्लेट साफ कर रहे थे, बाल-मजदूरी तो हमारे बीच अब आम सी लगती है, लेकिन मेले में यह दृश्य और हृदय विदारक लगी, उन बच्चों के चेहरे की मासूमियत, आँखों की बेबसी, ललचाई निगाहें, एक संवेदनशील इंसान को तंग कर सकती है। जिस गुड़ की जलेबी को हम बड़े चाव से खाते हैं लेकिन उसी जलेबी में कई बच्चों की बेबसी छुपी हुई है। मेला शायद पहले भी ऐसा ही रहा होगा, पर अब मेरा नज़रिया बदल गया है, मुझे मेला हज़ारों परिवारों के आर्थिक जद्दोजहद की जगह दिखाई देती है।

ऋतु, शोधार्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय)

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