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विश्लेषण: जल्दी में है प्रशांत किशोर, क्या नीतीश को खटक रही है उनकी महत्वाकांक्षा?

प्रशांत किशोर को देशभर में सफल चुनावी रानितिकार के रूप में जाना जाता है मगर प्रशांत किशोर देश की राजनीति में खुद को एक सफल राजनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं| उनके पास कई विकल्प थे मगर बीती वर्ष 16 सितंबर को प्रशांत किशोर ने रणनीतिकार से नेता बनने के तरफ अपना पहला कदम बढ़ाते हुए जदयू में सामिल ही गये|

इस समय प्रशांत को लेकर जदयू के अन्दर जो घमासान मचा है, उसकी पटकथा तो उसी समय लिखा गया था, जब नीतीश कुमार ने पीके को ‘भविष्य’ बोलकर जेदयू में स्वागत किया| नीतीश कुमार ने यह किस परिप्रेक्ष्य कहा था, वह तो वे ही जाने मगर मीडिया ने इसे नीतीश के उत्तराधिकारी के रूप में लिया| नीतीश कुमार ने भी अघोषित रूप से उनको पार्टी में नंबर 2 की हैसियत दे दी|

पार्टी में प्रशांत किशोर के बढ़ते कद और पुराने नेताओं की घटती अहमियत से भड़कती चिंगारियों को शोला बनना तो तय था मगर उस समय नीतीश का आशीर्वाद होने के कारण किसी के आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं हुई| 

यहाँ यह जानना जरुरी है कि प्रशांत किशोर राजनीति में सिर्फ विधायक, सांसद या मंत्री बनने नहीं आये हैं| उनकी महत्वाकांक्षा इस से कही ज्यादा बड़ा है| ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार को पीके के महत्वाकांक्षा के बारे में पता नहीं रहा होगा| राजनीति में सब अपना फायदा देखता है| नीतीश और प्रशांत दोनों ने भी एक दुसरे में अपना फायदा देखा| मगर अब प्रशांत किशोर की जल्दबाजी अब नीतीश को खटक रही है!

प्रशांत जब से जदयू में सामिल हुए हैं, वे जदयू और नीतीश के नाम पर लोगों को जोड़ तो रहे हैं मगर पार्टी से नहीं खुद से| जदयू को उम्मीद थी कि पीके के आने से जदयू मजबूत होगा मगर उनकी संस्था आईपैक लगातार नीतीश कुमार के जगह प्रशांत किशोर को स्थापित करने में लगी है| प्रशांत किशोर पार्टी हित से ज्यादा अपने हित में लगे हुए हैं या यूं कहें कि प्रशांत नीतीश के जदयू में रहते हुए, उसके समान्तर अपना जदयू तैयार करने में लगे हैं| यही बात नीतीश को खटक रही है और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रशांत और नीतीश के बिच दूरी बढ़ गयी है|

इसका सबसे पहले संकेत हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी के गाँधी मैदान में हुए संकल्प रैली में दिखा| जिसमें पार्टी के पोस्टर के साथ मंच पर भी प्रशांत किशोर को जगह नहीं दी गयी| 

5 मार्च को पीके ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर मैं किसी को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनाने में मदद कर सकता हूं ,तो बिहार के नौजवानों को मुखिया या विधायक भी बना सकता हूं’। पार्टी में अकेले पड़े पीके का यह बयान जदयू को चेतवानी देने के तरह लिया गया| इसपर जदयू के नीरज कुमार ने तंज कसते हुए कहा कि मनुष्य को अपने बारे में भ्रम हो जाता है। विधायक, सांसद जनता बनाती है और उसे पार्टी टिकट देती है।

पीके यही नहीं रुके| एक इंटरव्यू में वे नीतीश कुमार के फैसले को ही गलत बता दिया है| जिसको लेकर पार्टी के अन्दर ही उनको लेकर भूचाल मचा है|

दरअसल, जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने कहा है कि वह भाजपा के साथ दोबारा गठजोड़ करने के अपनी पार्टी के अध्यक्ष नीतीश कुमार के तरीके से सहमत नहीं हैं और महागठबंधन से निकलने के बाद भगवा पार्टी नीत राजग में शामिल होने के लिये बिहार के मुख्यमंत्री को आदर्श रूप से नए सिरे से जनादेश हासिल करना चाहिये था|

इसपर जद (यू) के महसचिव आऱ सी़ पी़ सिंह ने शुक्रवार को एक प्रेस कांफ्रेंस में पीके का नाम लिए बगैर कहा, “जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वे उस समय पार्टी में भी नहीं थे। उन्हें इसकी जानकारी नहीं होगी। सभी नेताओं की सहमति से पार्टी महागठबंधन से अलग हुई थी और फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हुई थी।”

पीके के हालिया बयानों से स्पष्ट है कि जद (यू) में सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है। बेगूसराय के शहीद पिंटू सिंह के पार्थिक शरीर के पटना हवाईअड्डा पहुंचने पर जब सरकार और पार्टी की ओर से श्रद्धांजलि देने वहां कोई नहीं गया, तब पीके ने पार्टी की ओर से माफी मांगी थी और इसके लिए उन्होंने ट्वीट भी किया था। जिसके कारण प्रशांत किशोर कि व्यक्तिगत छवि तो चमकी मगर पार्टी की बहुत किरकिरी हुई| इसको भी अब इसी विवाद से जोड़ कर देखा जा रहा है|

जदयू के सूत्रों के मुताबिक प्रशांत किशोर को लेकर जदयू में पहले से ही नाराजगी थी मगर नीतीश कुमार के समर्थन के कारण कोई बोल नहीं रहा था| मगर हालिया घटनाक्रम को देखें तो यह साफ़ है कि प्रशांत किशोर अब पार्टी में अकेले पड़ गयें हैं| प्रशांत की महत्वाकांक्षा और उसके लिए उनकी बेतावी अब नीतीश को खटक रहा है! पीछे मुड़कर देखें तो नीतीश कुमार ऐसे हरकत को सहन नहीं करतें| उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और शरद यादव इसके कुछ उदाहरण हैं|

 

राजनीति सीखनी हो तो चाणक्य की कर्मभूमि बिहार से सीखिए

इतिहास भूतकाल की राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है I बिहार की भूमि सदा से ही राजनीति की प्रयोगशाला रही है I बिहार के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य ने एक बार फिर यह साबित किया है कि यहाँ की राजनीति देश को एक नई दिशा देती है तो हठात हतप्रभ भी करती रहती है I

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का इस्तीफ़ा, महागठबंधन का टूटना, नीतीश का पुनः विश्वासमत हासिल करना और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की वापसी—ये भारतीय राजनीति के चौराहे हैं जो एक विन्दु पर आकर मिलते हैं और वह संगम है—बिहार की राजनीति I वह राजनीति जो राजनीति के जनक कौटिल्य द्वारा पोषित हुई थी और तब से नित नए कलेवर में चोला बदलती रही और देश-दुनिया को राजनीति का पाठ पढ़ाती रही हैI

आज के समय में राजनीति में शुचिता की बात करना बेमानी है I लोकमान्य तिलक ने बहुत पहले ही कहा था कि राजनीति साधुओं के लिए नहीं है । राजनीति को द्यूतक्रीड़ा कहा गया है I यहाँ कुञ्ज की पुष्पशय्या जल उठती है, लाल फूल अंगारों का रूप धारण कर लेते हैं और शीतल समीरण सर्पों का फुफकार बन जाता है I

नीतीश कुमार ने यदि यह कहकर इस्तीफा दिया होता कि इससे बिहार को विशेष पैकेज मिलना निश्चित है और बिहार के हित के लिए मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ, किसी का भी समर्थन ले सकता हूँ तो शायद नीतीश कुमार जननायक बनकर उभरते I

अभी जो समर्थन में हैं वे तो हैं ही, पर जो विरोध कर रहे हैं, शायद उनमें से भी अधिकांश उनके पाले में खड़े होते I उनके चरित्र पर जो ऊंगली उठ रही है, वह शायद नहीं उठती I हालाँकि नीतीश जिस तरह अपनी स्वच्छ छवि को लेकर संवेदनशील रहे हैं उसे देखते हुए उनकी असहजता को समझा जा सकता है I नीतीश को दो असहजताओं में एक का चुनाव करना था और उन्होंने महागठबंधन की असहजता छोड़कर राजग के साथ जाना बेहतर समझा I हालाँकि कुछ वर्षों पूर्व ही नीतीश ने इसी बिना पर राजग का हाथ छोड़ महागठबंधन की ओर रुख किया था I
नीतीश कुमार की पूँजी उनकी बेदाग छवि, सौम्य और मृदुभाषी होना, एवं उनका विकासवादी चरित्र है I यह सत्य है कि नीतीश जब तक राजग के साथ थे तब तक उन पर कोई दाग नहीं लगा I महागठबंधन सरकार में नीतीश दबाव की राजनीति में जीते रहे, उन्हें कमजोर करने का प्रयास भी किया जाता रहा, सत्ता के कई अघोषित केंद्र बन गए–जिससे आपसी विश्वास का धागा कमजोर होता गया और हाल में उनके चरित्र पर भी सवाल खड़े किए जाने से भविष्य में सदा के लिए दूरियाँ बढ़ गईं हैं I साम्प्रदायिकता के खिलाफ एकजुट हुए इस महागठबंधन का मूल उद्देश्य अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करना एवं चुस्त-दुरुस्त करना था I मतभेदों पर गठबंधन टिका भी रह जाता पर मनभेद की स्थिति में इसे ज्यादा दिन नहीं ही टिकना था—देर सवेर विस्फोट होना ही था I हाँ, यदि तेजस्वी यादव का इस्तीफ़ा हो गया होता तो नीतीश के लिए राजग से मिलना कठिन होता I

 

एक बात बार-बार उठाई जा रही है कि यही करना था तो नीतीश ने 2013 में राजग से नाता क्यों तोड़ा ? इसका जबाव यह दिया जा सकता है कि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर किसी महत्वपूर्ण भूमिका की तलाश में (शायद पीएम मैटेरियल) नीतीश ने वह कदम उठाया—प्रमोशन कौन नहीं चाहता ! किन्तु जब वह भूमिका दूर की कौड़ी लगी और बिहार में ही अपनी सुशासन बाबू की छवि खतरे में दिखने लगी तो नीतीश ने अपना पूरा ध्यान बिहार पर केन्द्रित करना उचित समझा और ज्यादा सहज सहयोगी राजग का दामन थाम लिया I दूसरी बात यह उठाई जा रही है कि नीतीश को अपनी छवि की इतनी चिंता थी तो राजग से हाथ मिलाने के बजाय फिर से जनता के बीच चुनाव में जाना चाहिए था I पर सरकार दो वर्ष पूर्व ही चुनी गई थी और इतनी जल्दी फिर से चुनाव में जाना जन-धन की बर्बादी ही होती I अब नीतीश के इस कदम का बिहार और देश का समाज और विश्लेषक अपने-अपने नजरिये से आंकलन तो करेंगे ही I पर यह ऐसा बदलाव है जिसकी प्रभावन क्षमता दूरगामी है, वह भी गहराई के साथ I अगले आम चुनाव और विधानसभा चुनाव पर इसका असर पड़ना तय है I

28 जुलाई को बिहार विधानसभा में विश्वासमत के दौरान तेजस्वी यादव ने नीतीश के इस कदम को लोकतंत्र की हत्या बताते हुए बड़ा प्रभावशाली भाषण दिया—

तेजस्वी पहली बार ‘तेजस्वी’ नज़र आए–एक नेता की तरह प्रथम बार नजर आए जिसने सत्ता-पक्ष के नेताओं को भी प्रभावित किया I यही लोकतंत्र की खूबसूरती है I

बिहार के लिए अच्छा ही होगा कि सत्ता-पक्ष में मजबूत नेता होने के साथ-साथ विपक्ष का नेता भी मजबूत हो—बशर्ते जातीय गणित और छद्म-धर्मनिरपेक्षता के शिकंजे से बाहर आ सकें I बाकी राजनीति और कुर्सी का क्या भरोसा ! चुनाव पक्ष-विपक्ष की भूमिका बदलते रहते हैं I न ही अधिक उत्साहित होने की जरुरत है और न ही निराश होने की I

राजनीतिक उठापठक जो भी हो, बिहार की जनता के पास खोने के लिए कुछ नहीं है I यदि इस गठबंधन के साथ नीतीश सहज महसूस करते हैं और विकास कार्यों को बिना किसी बाधा के आगे बढ़ा पाते हैं तो आम जनता को इस गठबंधन से कोई परेशानी नहीं है I उम्मीद पर दुनिया कायम है I इस कदम से नीतीश आलोचकों और बुद्धिजीवियों में प्रखर आलोचना और प्रशंसा—दोनों के ही कारण बने हैं पर आम जनमानस की उम्मीद उनसे अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है I बदले निजाम में नीतीश के सामने कई चुनौतियाँ हैं—कानून-व्यवस्था को पटरी पर वापस लाना, अपराध और अपराधियों पर नकेल कसना, शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षकों की स्थिति में सुधार, बंद पड़े चीनी/पेपर मिल का उद्धार, अवसंरचना का विकास, बिहार में निवेश को बढ़ावा I उम्मीद की जाती है कि अब नीतीश को केंद्र की भी सहायता प्राप्त होगी और बिहार के विकास का काम आगे बढ़ेगा I यदि ऐसा नहीं होता तो फिर जनता कहेगी—

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

फ़िलहाल तो बिहार में नीतीश के मुकाबले अभी कोई सशक्त चेहरा नहीं दीखता I तेजस्वी ने कल अपने प्रभावशाली भाषण से लोगों में उम्मीदें जरुर जगाईं हैं पर जब तक वे अपने आपको और सशक्त और अनुभवपूर्ण नहीं बना लेते तब तक तो परिवारवाद से दूर सौम्य नीतीश कुमार का जबाव ‘नीतीशे कुमार’ हैं I पर हाँ, वर्तमान का एक संकेत भी है भविष्य की ओर—नीतीश बनाम तेजस्वी—भविष्य का बिहार I लालू के आभामंडल से दूर तेजस्वी यदि अपनी पहचान बना पाए तो शायद भविष्य में उनकी प्रबल दावेदारी दिखती है I आप क्या कहते हैं ?

 


लेखक – अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार I

बिहार भाजपा का हो रहा है अबतक का सबसे बड़ा रूपान्तरण

बिहार में करारी हार के बाद भाजपा बिहार में अब नये रूप में अपने को पेश करने में लगी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रकाश पर्व के अवसर पर कोई तीन घंटे का पटना-प्रवास बहुआयामी राजनीतिक संदेश देकर चला गया. इसने सूबे के सत्तारूढ़ महागठबंधन की आंतरिक राजनीति में तो हलचल मचा ही दी, भारतीय जनता पार्टी के भावी नेतृत्व और राजनीति को लेकर भी कई संकेत दिए.

 

हालांकि प्रांतीय भाजपा के संदर्भ में केंद्रीय नेताओं की चिंता या रणनीति के संकेत गत एक साल में कई अवसरों पर मिलते रहे हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा के साथ पार्टी की आंतरिक राजनीति में उन संकेतों को बिहार ने जमीन पर उतरते देखा-प्रधानमंत्री के आगमन से लेकर उनकी विदाई तक.

बिहार की गैर भाजपाई राजनीति में सेंधमारी की मोदी की रणनीति की झलक तो इस यात्रा के हफ्ते भर के भीतर दिखी. जनता दल (यू) ने सूबे में पूर्ण शराबबंदी को लेकर जनजागरण अभियान के तहत 21 जनवरी को दो करोड़ लोगों की मानव-श्रृंखला बनाने का निर्णय लिया है. भाजपा ने इस कार्यक्रम के समर्थन की ही नहीं, बल्कि इसमें भाग लेने की भी घोषणा की है.

क्या यह अनायास है? ऐसा लगता नहीं है. नोटबंदी को लेकर हिन्दी पट्टी के कद्दावर नेता नीतीश कुमार से बिना शर्त मिले समर्थन का यह प्रतिदान हो सकता है. यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच विकसित हो रही नई राजनीतिक केमिस्ट्री की झलक हो सकती है. इस नई केमिस्ट्री का अंदाज बिहार की जमीन से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कर्नाटक की सार्वजनिक सभा के भाषण और उससे पहले भी मिलता रहा है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 25 दिसम्बर 2015 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर अचानक इस्लामाबाद पहुंचने का मामला हो या पाक की जमीन पर भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का, नीतीश कुमार उनके साथ रहे. नोटबंदी के सवाल पर तो अन्य विपक्षी दल ही नहीं, महागठबंधन के अपने सहयोगियों से अलग होकर उन्होंने उनका समर्थन किया और अब भी उनके साथ हैं.

प्रधानमंत्री ने पटना में शराबबंदी का पुरजोर समर्थन कर और नीतीश कुमार का सार्वजनिक तौर पर अभिनंदन कर इसकी कीमत चुका दी. अब शराबबंदी को लेकर जद(यू) के अभियान में भाजपा के शामिल होने से बहुत कुछ साफ हो रहा है. यह राजनीतिक सच्चाई है कि भाजपा ने बिहार में शराबबंदी का विधानमंडल में खुल कर समर्थन किया था.

यह भी सही है कि शराबबंदी से संबंधित पहला विधेयक मार्च 2016 के अंतिम हफ्ते में, जब विधानमंडल में पारित कराया जा रहा था, तब सत्ता पक्ष की इच्छा के अनुरूप विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को शराब नहीं पीने और इससे लोगों को दूर रखने के लिए प्रेरित करने की शपथ दिलाई गई थी. यह शपथ भाजपा के सदस्यों ने भी ली थी.

हालांकि यह भी सच है कि शराबबंदी के नए कानून के कई प्रावधानों को काले कानून की संज्ञा देकर भाजपा ने अगस्त में सदन का बहिष्कार किया था साथ ही विधेयक के खिलाफ राज्यपाल से गुहार लगाई थी. इस मसले पर प्रदेश भाजपा अब भी कड़े तेवर में है, लेकिन प्रकाश पर्व के अवसर पर प्रधानमंत्री ने जिस भाव-भंगिमा के साथ शराबबंदी के लिए नीतीश का अभिनंदन किया और उनके साथ होने की घोषणा की, भाजपा के लिए अब शराबबंदी कानून के समर्थन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा में प्रदेश भाजपा के लिए यह संकेत था कि यहां दल के भीतर नए युग की शुरुआत हो चुकी है. यह मात्र शब्दों में बयां नहीं किया गया, बल्कि आचरण में भी दिखा. पूरे प्रकरण को विस्तार से समझिए ।

प्रकाश पर्व के  लिए पांच जनवरी को गांधी मैदान के दरबार हॉल में आयोजित मुख्य समारोह के मंच पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद, केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान, संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद और तख्त हरमिंदर साहिब प्रबंध कमिटी के अध्यक्ष थे. मंच पर बिहार सरकार के किसी मंत्री और बिहार भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं बनाई गई थी.

हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) व बिहार सरकार की सहमति से किसी और की भी व्यवस्था की जा सकती थी, पर ऐसा नहीं किया गया. यह तो मंच की व्यवस्था थी. समारोह के बाद प्रधानमंत्री के भोजन का इंतजाम किया गया था. इसमें कोई दो दर्जन लोगों के लिए कुर्सियां लगी थीं और सभी पर आमंत्रितों के नाम थे.

यहां प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली से आए मंत्रियों के अलावा बिहार और पंजाब के मुख्यमंत्रियों, लालू प्रसाद के साथ साथ उनके दोनों पुत्रों तेजस्वी प्रसाद यादव और तेजप्रताप यादव, पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल और केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के नाम लिखे थे. हालांकि कुशवाहा इस भोज में मौजूद नहीं हुए इसलिए कुर्सी खाली ही रह गई.

यहां पर भी प्रदेश भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं थी, विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर ख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर प्रख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार और नंदकिशोर यादव सहित इन लोगों के किसी करीबी नेता को एयरपोर्ट पर स्वागत या विदाई का पास तक नहीं दिया गया.

 

ऐसा पास प्रांतीय भाजपा के पदाधिकारी (अध्यक्ष कहना बेहतर होगा) की सहमति से ही जारी होना था. तो क्या सुशील कुमार मोदी या दल के बड़े और पुराने नेताओं को यह मौका नहीं देने का केंद्रीय नेतृत्व का कोई निर्देश था?

 

इसका उत्तर प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय या केंद्रीय कमिटी के लोग ही दे सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम में पार्टी के सूबे के जमे-जमाए और शिखर नेताओं के साथ यह सलूक यदि कोई संकेत देता है तो यह कि नए नेतृत्व को इनकी छाया से पूरी तरह मुक्त करने की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में पहुंच रही है. देखना है, यह प्रक्रिया कितने दिनों में पूरी हो जाती है.

 

यह नई परिघटना नहीं है और इसका संकेत भी नया नहीं है. विधानसभा चुनावों के बाद से केंद्रीय नेतृत्व अपने आचरण से यह जताता रहा है. विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद विधायक दल के नेता के चयन में सुशील कुमार मोदी की रणनीति को झटका लगा था. उस समय सुशील मोदी-मंगल पांडेय की जोड़ी ने नंदकिशोर यादव को इस पद पर बैठाने की तैयारी कर ली थी. उन दिनों विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त के बावजूद मोदी-मंगल-नंदकिशोर के गुट ने पटना से दिल्ली तक अपनी रणनीति की सफलता के लिए हरसंभव जुगाड़ कर लिया था.

 

हालांकि डॉ. प्रेम कुमार अपनी उम्मीदवारी पर अड़े थे, पर उन्हें भी कोई आश्वासन नहीं था. केंद्रीय नेतृत्व ने अंतिम समय में प्रेम कुमार के दावे को स्वीकार कर स्थापित नेतृत्व को झटका दे दिया. फिर, राज्यसभा चुनाव के वक्त इन नेताओं के मत के विपरीत गोपाल नारायण सिंह को उम्मीदवारी दे दी. कहते हैं, सुशील मोदी ने बिहार से दिल्ली जाने की पूरी तैयारी की थी. केंद्रीय नेतृत्व ने सबसे बड़ा झटका प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष को लेकर सुशील मोदी व उनके समर्थकों को दिया.

 

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव पिछली फरवरी में ही होना था, पर पंचायत चुनाव व अन्य कई कारणों से यह टलता रहा. हालत यह हो गई थी कि मंगल पांडेय को ही इस पद पर बने रहने की बात अनौपचारिक तौर पर कही जाने लगी, कामकाज भी इसी मिज़ाज से हो रहा था. जब कभी अध्यक्ष के चयन की बात चलती भी थी, तो ऊंची जाति- मुख्यतः भूमिहार मैथिल ब्राह्मण- को इस पर नवाजे जाने की बात चला करती थी.

 

कुछ नाम सामने भी थे, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व खुल कर कुछ बोल नहीं रहा था और बिहार के प्रभारी भूपेन्द्र यादव की बिहार से प्रेषित नामों पर आपत्ति होती रही. वे यादव मतदाताओं को रिझाने के ख्याल से युवा यादव को अध्यक्ष बनाने के पक्षधर थे.

 

कहते हैं, नित्यानंद उनकी ही पसंद हैं. अर्थात केंद्रीय नेतृत्व ने बिहारी नेताओं की नहीं, प्रभारी पर ज्यादा भरोसा किया, जो उसका ही प्रतिनिधि होता है. मोदी-युग के अंत की यह ठोस अभिव्यक्ति थी और अब यह ताज़ा उदाहरण उससे भी बड़ा संकेत है. हालांकि कह सकते हैं कि राजनीति में जिस तरह कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, उसी तरह कोई स्थिति स्थायी नहीं होती. जब तक सांस, तब तक आस.

 

भाजपा के नेतृत्व और इस वजह से राजनीति में बदलाव पार्टी के लिए कैसा रहेगा, यह कहना कठिन है. अभी यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इससे भाजपा के नए समर्थक सामाजिक समूहों के मानस पर क्या असर पड़ेगा. यह एक तथ्य है कि कोई दो-ढाई दशक पहले तक भाजपा (जनसंघ के समय से ही) को जिस सामाजिक समूह का समर्थन था, आज वह पीछे है. कांग्रेस के निरंतर क्षरण के कारण सूबे की कांग्रेस समर्थक अगड़ी जातियों में भाजपा निरन्तर मजबूत होती गई.

 

हालांकि यह विकल्पहीनता का ही परिणाम रहा है, पर बिहार का अगड़ा मतदाता कमोबेश भाजपा के साथ है. पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक तो यह आक्रामक रूप से मतदान केंद्र पर भाजपा के साथ था. हालांकि भाजपा के प्रदेश नेतृत्व पर भी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की तरह पिछड़ावादी होने का आरोप लगता रहा और अपने आचरण से वह इसे दिखाता भी रहा.

 

फिर भी, सूबे के अगड़े सामाजिक समूहों की यह सहज शरणस्थली रही. इसका एक कारण इसका उत्कट लालू विरोध रहा. इसकी समावेशी रणनीति भी कम महत्वपूर्ण कारण नहीं रही. कैलाशपति मिश्र, ताराकान्त झा, लालमुनि चौबे जैसों ने संगठन में सामाजिक समूहों के लिए समावेशी रणनीति अपनाई थी, वह उसी तरह बरकरार नहीं रही. पर सुशील कुमार मोदी ने उसे थोड़े बदलाव के साथ अपनाया. मोदी के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा में कुछ बड़े पद, जिनमें पार्टी अध्यक्ष का पद भी शामिल है, अगड़ों के लिए ही रहते रहे.

 

हालांकि, संगठन (और जब सरकार में रही तो वहां भी) महत्वपूर्ण व निर्णायक पदों को अगड़ों से मुक्त रखने की हरसूरत चेष्टा रहती थी. न बनने पर ही कोई ऐसा पद अगड़ों को मिलता था. ऐसी रणनीति के कारण बिहार के अगड़ों को बांध रखने में सुशील कुमार मोदी को कुछ हद तक सफलता मिलती रही. इस बार यह पहला मौका है कि अगड़े सामाजिक समूहों को भाजपा ने कोई पद नहीं दिया है. पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद में विपक्ष का नेता पद पिछड़े समुदाय को है, तो विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता पद अति पिछड़ा समुदाय को.

 

अवधेश नारायण सिंह विधान परिषद में सभापति हैं. पर वह पद भाजपा की नहीं, एनडीए की देन है. सो, बिहार भाजपा का रूपान्तरण हो रहा है. यह रूपान्तरण पार्टी को क्या देता या क्या लेता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल सभी छोटे-बड़े नेता दिल थाम कर आनेवाले दौर की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

सभार: चौथी दुनिया 

 

तीसरे मोर्चे के लीडर के रुप में नीतीश सबसे उपयुक्त : ममता बनर्जी

बिहार में भाजपा को पटखनी देने के बाद सीएम नीतीश कुमार अब 2019 लोकसभा चुनाव की तैयारी में अभी से ही जुट गए हैं, अपने मित्र दलों को एक साथ लाने की कवायद अब नीतीश तेज कर चुके हैं और विभिन्न दलों के मुखिया से मुलाकात शुरू कर चुके हैं

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संभावित तीसरे मोर्चे के गठन एवं मोर्चा के उपयुक्त नेता के चुनाव के लिए दिल्ली में आयोजित एक बैठक में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने कहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे को लीड करने के लिए सबसे उपयुक्त नेताओं में एक हैं।उन्होंने खुद को इस मोर्चे का ‘बैकबेंचर’ बताया।

इससे पहले एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी नीतीश कुमार को 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समक्ष एक संभावित साझे उम्मीदवार के रूप में आगे करने की वकालत की थी। वहीं मंगलवार की देर शाम नीतीश कुमार की ममता बनर्जी से मुलाकात भी हुई। सूत्रों के अनुसार दोनों की मीटिंग में तीसरे मोर्चे को आगे किस तरह बढ़ाएं, इस बारे में विस्तार से बात हुई। सूत्रों के अनुसार दोनों ने तय किया कि बड़े मुद्दों पर संसद के अंदर दोनों दल एकसाथ मिलकर सरकार पर हमला बोलेंगे।

बाद में नीतीश कुमार दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल से भी मिलेंगे। बिहार चुनाव में जीत हासिल करने के बाद नीतीश कुमार म