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राजनीति सीखनी हो तो चाणक्य की कर्मभूमि बिहार से सीखिए

ये भारतीय राजनीति के चौराहे हैं जो एक विन्दु पर आकर मिलते हैं और वह संगम है---बिहार की राजनीति

इतिहास भूतकाल की राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है I बिहार की भूमि सदा से ही राजनीति की प्रयोगशाला रही है I बिहार के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य ने एक बार फिर यह साबित किया है कि यहाँ की राजनीति देश को एक नई दिशा देती है तो हठात हतप्रभ भी करती रहती है I

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का इस्तीफ़ा, महागठबंधन का टूटना, नीतीश का पुनः विश्वासमत हासिल करना और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की वापसी—ये भारतीय राजनीति के चौराहे हैं जो एक विन्दु पर आकर मिलते हैं और वह संगम है—बिहार की राजनीति I वह राजनीति जो राजनीति के जनक कौटिल्य द्वारा पोषित हुई थी और तब से नित नए कलेवर में चोला बदलती रही और देश-दुनिया को राजनीति का पाठ पढ़ाती रही हैI

आज के समय में राजनीति में शुचिता की बात करना बेमानी है I लोकमान्य तिलक ने बहुत पहले ही कहा था कि राजनीति साधुओं के लिए नहीं है । राजनीति को द्यूतक्रीड़ा कहा गया है I यहाँ कुञ्ज की पुष्पशय्या जल उठती है, लाल फूल अंगारों का रूप धारण कर लेते हैं और शीतल समीरण सर्पों का फुफकार बन जाता है I

नीतीश कुमार ने यदि यह कहकर इस्तीफा दिया होता कि इससे बिहार को विशेष पैकेज मिलना निश्चित है और बिहार के हित के लिए मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ, किसी का भी समर्थन ले सकता हूँ तो शायद नीतीश कुमार जननायक बनकर उभरते I

अभी जो समर्थन में हैं वे तो हैं ही, पर जो विरोध कर रहे हैं, शायद उनमें से भी अधिकांश उनके पाले में खड़े होते I उनके चरित्र पर जो ऊंगली उठ रही है, वह शायद नहीं उठती I हालाँकि नीतीश जिस तरह अपनी स्वच्छ छवि को लेकर संवेदनशील रहे हैं उसे देखते हुए उनकी असहजता को समझा जा सकता है I नीतीश को दो असहजताओं में एक का चुनाव करना था और उन्होंने महागठबंधन की असहजता छोड़कर राजग के साथ जाना बेहतर समझा I हालाँकि कुछ वर्षों पूर्व ही नीतीश ने इसी बिना पर राजग का हाथ छोड़ महागठबंधन की ओर रुख किया था I
नीतीश कुमार की पूँजी उनकी बेदाग छवि, सौम्य और मृदुभाषी होना, एवं उनका विकासवादी चरित्र है I यह सत्य है कि नीतीश जब तक राजग के साथ थे तब तक उन पर कोई दाग नहीं लगा I महागठबंधन सरकार में नीतीश दबाव की राजनीति में जीते रहे, उन्हें कमजोर करने का प्रयास भी किया जाता रहा, सत्ता के कई अघोषित केंद्र बन गए–जिससे आपसी विश्वास का धागा कमजोर होता गया और हाल में उनके चरित्र पर भी सवाल खड़े किए जाने से भविष्य में सदा के लिए दूरियाँ बढ़ गईं हैं I साम्प्रदायिकता के खिलाफ एकजुट हुए इस महागठबंधन का मूल उद्देश्य अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करना एवं चुस्त-दुरुस्त करना था I मतभेदों पर गठबंधन टिका भी रह जाता पर मनभेद की स्थिति में इसे ज्यादा दिन नहीं ही टिकना था—देर सवेर विस्फोट होना ही था I हाँ, यदि तेजस्वी यादव का इस्तीफ़ा हो गया होता तो नीतीश के लिए राजग से मिलना कठिन होता I

 

एक बात बार-बार उठाई जा रही है कि यही करना था तो नीतीश ने 2013 में राजग से नाता क्यों तोड़ा ? इसका जबाव यह दिया जा सकता है कि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर किसी महत्वपूर्ण भूमिका की तलाश में (शायद पीएम मैटेरियल) नीतीश ने वह कदम उठाया—प्रमोशन कौन नहीं चाहता ! किन्तु जब वह भूमिका दूर की कौड़ी लगी और बिहार में ही अपनी सुशासन बाबू की छवि खतरे में दिखने लगी तो नीतीश ने अपना पूरा ध्यान बिहार पर केन्द्रित करना उचित समझा और ज्यादा सहज सहयोगी राजग का दामन थाम लिया I दूसरी बात यह उठाई जा रही है कि नीतीश को अपनी छवि की इतनी चिंता थी तो राजग से हाथ मिलाने के बजाय फिर से जनता के बीच चुनाव में जाना चाहिए था I पर सरकार दो वर्ष पूर्व ही चुनी गई थी और इतनी जल्दी फिर से चुनाव में जाना जन-धन की बर्बादी ही होती I अब नीतीश के इस कदम का बिहार और देश का समाज और विश्लेषक अपने-अपने नजरिये से आंकलन तो करेंगे ही I पर यह ऐसा बदलाव है जिसकी प्रभावन क्षमता दूरगामी है, वह भी गहराई के साथ I अगले आम चुनाव और विधानसभा चुनाव पर इसका असर पड़ना तय है I

28 जुलाई को बिहार विधानसभा में विश्वासमत के दौरान तेजस्वी यादव ने नीतीश के इस कदम को लोकतंत्र की हत्या बताते हुए बड़ा प्रभावशाली भाषण दिया—

तेजस्वी पहली बार ‘तेजस्वी’ नज़र आए–एक नेता की तरह प्रथम बार नजर आए जिसने सत्ता-पक्ष के नेताओं को भी प्रभावित किया I यही लोकतंत्र की खूबसूरती है I

बिहार के लिए अच्छा ही होगा कि सत्ता-पक्ष में मजबूत नेता होने के साथ-साथ विपक्ष का नेता भी मजबूत हो—बशर्ते जातीय गणित और छद्म-धर्मनिरपेक्षता के शिकंजे से बाहर आ सकें I बाकी राजनीति और कुर्सी का क्या भरोसा ! चुनाव पक्ष-विपक्ष की भूमिका बदलते रहते हैं I न ही अधिक उत्साहित होने की जरुरत है और न ही निराश होने की I

राजनीतिक उठापठक जो भी हो, बिहार की जनता के पास खोने के लिए कुछ नहीं है I यदि इस गठबंधन के साथ नीतीश सहज महसूस करते हैं और विकास कार्यों को बिना किसी बाधा के आगे बढ़ा पाते हैं तो आम जनता को इस गठबंधन से कोई परेशानी नहीं है I उम्मीद पर दुनिया कायम है I इस कदम से नीतीश आलोचकों और बुद्धिजीवियों में प्रखर आलोचना और प्रशंसा—दोनों के ही कारण बने हैं पर आम जनमानस की उम्मीद उनसे अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है I बदले निजाम में नीतीश के सामने कई चुनौतियाँ हैं—कानून-व्यवस्था को पटरी पर वापस लाना, अपराध और अपराधियों पर नकेल कसना, शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षकों की स्थिति में सुधार, बंद पड़े चीनी/पेपर मिल का उद्धार, अवसंरचना का विकास, बिहार में निवेश को बढ़ावा I उम्मीद की जाती है कि अब नीतीश को केंद्र की भी सहायता प्राप्त होगी और बिहार के विकास का काम आगे बढ़ेगा I यदि ऐसा नहीं होता तो फिर जनता कहेगी—

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

फ़िलहाल तो बिहार में नीतीश के मुकाबले अभी कोई सशक्त चेहरा नहीं दीखता I तेजस्वी ने कल अपने प्रभावशाली भाषण से लोगों में उम्मीदें जरुर जगाईं हैं पर जब तक वे अपने आपको और सशक्त और अनुभवपूर्ण नहीं बना लेते तब तक तो परिवारवाद से दूर सौम्य नीतीश कुमार का जबाव ‘नीतीशे कुमार’ हैं I पर हाँ, वर्तमान का एक संकेत भी है भविष्य की ओर—नीतीश बनाम तेजस्वी—भविष्य का बिहार I लालू के आभामंडल से दूर तेजस्वी यदि अपनी पहचान बना पाए तो शायद भविष्य में उनकी प्रबल दावेदारी दिखती है I आप क्या कहते हैं ?

 


लेखक – अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार I

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