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नीतीश, मोदी और लालू के अलावा बिहार चुनाव में जनता के पास क्या है विकल्प?

बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक है, वर्तमान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार है पर सच्चाई ये है कि – भाजपा को छोड़ राजद के साथ गठबंधन और फिर राजद को छोड़ भाजपा के साथ वापस आने के कारण उनके छवि का बहुत नुकसान हुआ है| उन्हें कुर्सी कुमार भी कहा जा रहा है जिसे बिहार की समस्याओं से ज्यादा चिंता अपनी कुर्सी बचाने की है ।

पिछले 15 सालों के चुनाव परिणाम भी देखे जाए तो उनके अबतक के 10-15% वोट जिस गठबंधन को मिलते है उसको फायदा मिल जाता है| उनकी अपनी खुद की हैसियत 2014 के लोकसभा चुनावो में अकेले अपने बल पर चुनाव लड़ने से पता चल ही गई थी। वो केवल 2 सीट ही बचा पाए थे।

2015 में नीतीश के राजद से हाथ मिलाने के बाद भाजपा भी रामविलास पासवान की लोजपा व अन्य कई छोटी पार्टीयो के साथ चुनाव लड़ी थी, मोदी जी 2014 लोकसभा चुनाव में बम्पर बहुमत से जीते भी थे, मगर बिहार में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था। हालाँकि उनका वोट प्रतिशत बढ़ गया था|इसके बावजूद भाजपा को ये समझ आ गया कि बिना नीतीश बिहार में सरकार बना पाना उनके लिए एक सपना है। यही कारण है कि 2015 के चुनाव परिणाम के बाद से ही भाजपा नीतीश पर दवाब बनाने लगी और अंत मे सरकार बनाने में सफल भी हो गयी ।

वर्तमान मुख्य विपक्षी पार्टी – राष्ट्रीय जनता दल

लालू जी जेल में है और चारा घोटाले की सज़ा काट रहे है| वैसे तो 2010 विधानसभा चुनावो में ही राजद का खात्मा हो गया था पर 2015 में नीतीश के लालू यादव से गठबंधन करने से राजद और उनके दोनों बेटे जो राजनीति में कदम रखने को तैयार हो रहे  थे, उन्हें जैसे संजीवनी मिल गयी ।

नितीश के साथ गठबंधन से तेजस्वी उप-मुख्यमंत्री और तेज प्रताप स्वास्थ्य मंत्री बन गए और राजद एक बार फिर जिन्दा हो गयी। वैसे तेजस्वी यादव ने उसके बाद से ही लालू यादव की अनुपस्थिति में काफी परिपक्वता दिखाई भी है, पर उनपर या उनकी पार्टी राजद पर उनके परंपरागत वोट बैंक के इलावा जनता विश्वास करे, इसका एक भी कारण दूर-दूर तक दिखाई नही देता।

पर क्या इन्ही तीनों पार्टियों के बीच फंस के रह जायेगा बिहार का भविष्य?

बिहार के लोगों के पास क्या इन तीन पार्टियों के इलावा कोई विकल्प है जिसपर जनता को विश्वास हो पाएगा और जनता कुछ उलटफेर कर पायेगी? कहा जाता है बिहार के हर घर में एक नेता होता है , राज्य में पार्टियां और संगठन तो बहुत से सक्रीय है, पर क्या वो विकल्प देने में सफल हो पाएंगे ?

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पप्पू यादव

1) पप्पू यादव – शुरुआत करते है पप्पू यादव की नई पार्टी जन अधिकार पार्टी – जाप से , पप्पू यादव का अतीत भी कुछ अच्छा तो नही रहा है, पर हां, वर्तमान में वो बिहार में रोबिन हुड की तरह काम करते नज़र आते हैं| किसानों, विद्यार्थियों व गरीबो के मुद्दे उठाते रहते हैं। पिछले कुछ सालों में वो बिहार के बाढ़ में भी वो खूब सक्रिय रहे और बिहार की किसी भी नेता से ज़्यादा वो जमीन पे घूमे हैं| हालांकि 2019 के चुनावों में वो और उनकी पत्नी दोनों लोकसभा चुनाव हार गए थे – तो यह कहना कि वो अकेले इन बड़ी पार्टीयो का विकल्प बन सकते है, ऐसा निकट भविष्य में तो संभव नहीं दिख रहा है।

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प्रशांत किशोर

2) प्रशांत किशोर – जदयू से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद से ही प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में सक्रिय हो गए हैं| वो बात बिहार की मुहिम के माध्यम से बिहार का वर्तमान पिछड़ा हाल बाकी राज्यों की तुलना करके लगातार बता व दिखा रहे हैं – मगर क्या सिर्फ इतना करके वो इन बड़ी पार्टीयो का विकल्प बन पाएंगे? अभी के समय में तो ये कहना मुश्किल है।

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पुष्पम प्रिया

3) प्लूरल्स – पुष्पम प्रिया चौधरी, कुछ ही दिन पहले बिहार के लोग जब सो के उठे तो उन्होंने अखबार के पूरे पेज पर उनका विज्ञापन देखा और सुर्खियाँ भी बटोरी, फिलहाल बिहार के हालात बदलने और सरकार बनाने का दावा करने वाली दरभंगा की पुष्पम; आजकल पूरे बिहार का भ्रमण कर पुराने गौरवशाली बिहार की बाते सोशल मिडिया के माध्यम से साझा कर रही है| मगर सवाल है- क्या ऐसा करके वो बिहार के लोगो को कोई उम्मीद दे पायेंगीं? अभी तक तो बिहार के इस मुख्यमंत्री उम्मीदवार से सत्ता काफी दूर दिख रही है|

इन सब के अलावा भी बहुत से छोटे दल व संगठन हैं- जैसे उपेंद्र कुशवाहा कि रालोसपा, दरभंगा , मधुबनी में सक्रीय मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन (MSU), शरद यादव की लोकतान्त्रिक जनता दल पार्टी, आम आदमी पार्टी,  पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, सन ऑफ़ मल्लाह कहे जाने वाले मुकेश सहनी की विकासशील इंसाफ पार्टी| मगर ये सब अकेले इन बड़ी और पुरानी पार्टियों से लोहा लेने में संभव नही दिख पा रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले भाजपा के पूर्व दिग्गज और वाजपेयी जी की सरकार में रहे वित्त व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा जी ने बिहार में चुनावी विकल्प देने की बात कही है

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पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा

सिन्हा साहब की उम्र तो बहुत हो गयी है पर उनमें ऊर्जा की कमी नही है| जनता में उनकी स्वच्छ छवि भी है जिसपर विश्ववास किया जा सकता है और उम्र के इस पड़ाव पर उनका बिहार के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भी देखने लायक है।

उनके साथ कई पुराने व अनुभवी नेता भी साथ आये हैं – जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव, पूर्व बिहार मंत्री नरेंद्र सिंह, रेनू कुशवाहा, पूर्व सांसद अरुण कुमार और नागमणि जैसे नेता उनके साथ शामिल हुए थे|

सिन्हा ने नए फ्रंट के ऐलान के साथ कहा कि हम उन सभी का स्वागत करेंगे, जो हमारे साथ जुड़ना चाहते हैं| अपने इस बयान के जरिए उन्होंने बिहार में महागठबंधन के साथियों से जुड़ने का दरवाजा खुला रखा है| देखना होगा कि आगे जाकर कितनी छोटी-छोटी पार्टियों और विचारधारा को साथ लाकर एक मजबूत मोर्चे बनता है| मगर सवाल है कि क्या इतने कम समय में वो सभी को साथ एक मंच पर लाकर कुछ चमत्कार कर पाएंगे?

(इस लेख में व्यक्त की कई विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)

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Padma Awards 2020: बिहार के मुजफ्फरपुर के पूर्व सांसद जॉर्ज फर्नांडिस को पद्म विभूषण

गणतंत्र दिवस (Republic Day 2020) के मौके पर दिए जाने वाले पद्म पुरस्कारों (Padma Awards 2020)का ऐलान कर दिया गया है| इस बार 7 हस्तियों को पद्म विभूषण (Padma Vibhushan), 16 को पद्म भूषण(Padma Bhushan) और 118 को पद्मश्री (Padma Shri) से सम्मानित किया गया है| इस बार पद्म विभूषण पाने वालों में पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली(Arun Jaitley), पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज(Sushma Swaraj), जॉर्ज फर्नांडिस का भी नाम है|

मंगलुरु में पले बड़े पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडेस की जन्मभूमि भले ही दक्षिण में हो पर उनकी कर्मभूमि बिहार ही रहेगी. उस समय जब सोशल मीडिया जैसा आसान साधन नहीं हुआ करता था उस दौर में जॉर्ज फर्नांडेस (George Fernandes) ने दक्षिण से लेकर उत्तर की दुरी को तय किया.

फर्नांडेस ने उस समय जेल में थे जब 1977 में बिहार की जनता ने उन्हें तीन लाख वोट देकर मुजफ्फरपुर सीट से लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के लिए चुना.

तब वे जनता पार्टी के उम्मीदवार थे और देश में लगी इमरजेंसी के केस में जेल में बंद थे. चुनाव के दौरान वो शायद ही स्वयं प्रचार कर पाए. ये जीत ऐतिहासिक इसलिए भी रही क्योंकि जॉर्ज फर्नांडेस ने तीन बार के कांग्रेस सांसद एस.के.पाटिल को हराया था. जहां एक ओर 1989 में वी.पी सिंह सरकार के काल में जॉर्ज फर्नांडेस ने रेलवे मंत्री का कार्यभार संभाला वहीं 1998 – 2003 तक चली वाजपई सरकार के दौरान फर्नांडेस रक्षा मंत्री बनाए गए.

कारगिल युद्ध के समय सैनिकों का हौसला बढ़ाने वे सियाचिन जाते रहते थे. पोखरन टेस्ट से भी उन्होंने कभी अपनी नज़ारे नहीं हटाई.

मुजफ्फरपुर में फैलाई विकास की नई जड़े

अपनी इस जीत के बाद ही फर्नांडेस ने 1978 में मुज़फ़्फ़रपुर में थर्मल पावर प्लांट की नीव डाली जिसने ज़िले में रोज़गार के साधन बढ़ा दिए. फर्नांडेस ने चार बार मुजफ्फरपुर और तीन बार नालंदा से चुनाव जीता. नालंदा में उन्होंने फैक्टरियों के साथ राजगिर में सैनिक स्कूल भी खुलवाया.

जॉर्ज फर्नांडेस कि बदौलत दूरदर्शन केंद्र मुजफ्फरपुर तक पहुंचा. उन्होंने मुजफ्फरपुर में इंडियन ड्रग्स एंड फार्मासूटिकल्स लिमिटेड खुलवाया. इस से पहले मुजफ्फरपुर में केवल चीनी और तम्बाकू की फैक्टरियां ही हुआ करती थी.

लालू के लिए बन गए थे चुनौती

फर्नांडीस ने बिहार की राजनीति में एक प्रमुख भूमिका निभाई. याद होगा 1990 के दशक के दौरान फर्नांडेस ने राष्ट्रीय जनता दल (रजद) प्रमुख लालू प्रासाद यादव  के साथ अनबन के चलते रजद के लिए एक चुनौती बन चुके थे. फर्नांडेस ने शिकायत की कि उन्हें लालू द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है और ‘फ्रॉड फर्नांडेस’ कहकर बुलाया जा रहा है.

बाद में उन्होंने नितीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल ग़फ़ूर के साथ मिलकर 1994  में समता पार्टी को जन्म दिया. फर्नांडेस इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए. 1995 चुनाव में फर्नांडेस की समता पार्टी के खराब प्रदर्शन के चलते उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिला लिया. फर्नांडेस लालू की आँख का कांटा तोह थे ही पर इस गठबंधन के कारण लालू का शासन भी खत्म हो गया. 2005 के आते आते समता पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) में जा मिली.

जब नितीश के साथ बिगड़े सम्बन्ध

एक छत में रहने के बावजूद नितीश और फर्नांडेस में अनबन होना स्वाभाविक था. नितीश ने फर्नांडेस को हटाकर शरद यादव को अपनी पार्टी का नया अध्यक्ष नियुक्त कर लिया था. 2009 में ये खबर आई की खराब स्वस्थ्य के चलते फर्नांडिस को मुजफ्फरपुर से जनता दल (यूनाइटेड) के नामांकन से मना कर दिया गया था. फर्नांडेस की हार के बावजूद किसी तरह वे राज्य सभा में अपनी सीट सुनिश्चित करने में कामयाब रहे.

मुजफ्फरपुर के लोगो के थे चहेते

फर्नांडेस टैक्सी ड्राइवर यूनियन के प्रमुख नेता भी रह चुके हैं. उन्होंने सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन ज्वॉइन किया और होटलों, रेस्टोरेंटों में काम करने वाले मजदूरों की आवाज उठाई. नालंदा के लोगों के बीच फर्नांडेस ‘जारजे साहेब’ के नाम से मशहूर थे. मुज़फ़्फरपुर के लोग उन्हें बहुत पसंद किया करते थे. दिल्ली में होने के बावजूद वहां के लोगो फर्नांडेस को पोस्टकार्ड के ज़रिए अपनी समस्याएं लिखकर भेजते थे.

 

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बिहार के मधुबनी से लोकसभा सांसद हुकुमदेव नारायण को मिला उत्‍कृष्‍ट सांसद का पुरस्‍कार

बिहार के मधुबनी से लोकसभा सांसद और भाजपा के कद्दावर नेता हुकुमदेव नारायण को 2014 के लिए सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान दिया गया| राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने बुधवार को संसद भवन में उनको यह सम्मान दिया| इनके साथ पक्ष और विपक्ष के अन्य 4 लोगों को यह सम्मान दिया गया|

इनमें हुकुमदेव नारायण के अलावा नजमा हेपतुल्ला, गुलाम नबी आजाद, दिनेश त्रिवेदी और भर्तृहरि महताब शामिल हैं। इन पांचों सांसदों को संसद भवन में एक कार्यक्रम के दौरान सम्मानित किया गया। इस कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति वैंकैया नायडू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन भी शामिल थे।

हुकुमदेव नारायण यादव को यह सम्मान 2014 के लिए दिया गया| जबकि जबकि 2015 के लिए गुलाम नबी आजाद को, 2016 के लिए दिनेश त्रिवेदी और 2017 के लिए  भतृहरि माहताब को उत्‍कृष्‍ट सांसद का पुरस्‍कार दिया गया|

ज्ञात हो कि 17 नवंबर 1939 को बिहार के दरभंगा जिला के बिजूली में जन्‍मे  हुकुमदेव नारायण यादव काफी लोकप्रिय सांसद माने जाते हैं| वो भाजपा की ओर से बिहार के मधुबनी से जीतकर लोकसभा पहुंचे हैं| सबसे पहले हुकुमदेव नारायण यादव 1977 में लोकसभा के लिए चुने गये|

बिहार भाजपा का हो रहा है अबतक का सबसे बड़ा रूपान्तरण

बिहार में करारी हार के बाद भाजपा बिहार में अब नये रूप में अपने को पेश करने में लगी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रकाश पर्व के अवसर पर कोई तीन घंटे का पटना-प्रवास बहुआयामी राजनीतिक संदेश देकर चला गया. इसने सूबे के सत्तारूढ़ महागठबंधन की आंतरिक राजनीति में तो हलचल मचा ही दी, भारतीय जनता पार्टी के भावी नेतृत्व और राजनीति को लेकर भी कई संकेत दिए.

 

हालांकि प्रांतीय भाजपा के संदर्भ में केंद्रीय नेताओं की चिंता या रणनीति के संकेत गत एक साल में कई अवसरों पर मिलते रहे हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा के साथ पार्टी की आंतरिक राजनीति में उन संकेतों को बिहार ने जमीन पर उतरते देखा-प्रधानमंत्री के आगमन से लेकर उनकी विदाई तक.

बिहार की गैर भाजपाई राजनीति में सेंधमारी की मोदी की रणनीति की झलक तो इस यात्रा के हफ्ते भर के भीतर दिखी. जनता दल (यू) ने सूबे में पूर्ण शराबबंदी को लेकर जनजागरण अभियान के तहत 21 जनवरी को दो करोड़ लोगों की मानव-श्रृंखला बनाने का निर्णय लिया है. भाजपा ने इस कार्यक्रम के समर्थन की ही नहीं, बल्कि इसमें भाग लेने की भी घोषणा की है.

क्या यह अनायास है? ऐसा लगता नहीं है. नोटबंदी को लेकर हिन्दी पट्टी के कद्दावर नेता नीतीश कुमार से बिना शर्त मिले समर्थन का यह प्रतिदान हो सकता है. यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच विकसित हो रही नई राजनीतिक केमिस्ट्री की झलक हो सकती है. इस नई केमिस्ट्री का अंदाज बिहार की जमीन से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कर्नाटक की सार्वजनिक सभा के भाषण और उससे पहले भी मिलता रहा है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 25 दिसम्बर 2015 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर अचानक इस्लामाबाद पहुंचने का मामला हो या पाक की जमीन पर भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का, नीतीश कुमार उनके साथ रहे. नोटबंदी के सवाल पर तो अन्य विपक्षी दल ही नहीं, महागठबंधन के अपने सहयोगियों से अलग होकर उन्होंने उनका समर्थन किया और अब भी उनके साथ हैं.

प्रधानमंत्री ने पटना में शराबबंदी का पुरजोर समर्थन कर और नीतीश कुमार का सार्वजनिक तौर पर अभिनंदन कर इसकी कीमत चुका दी. अब शराबबंदी को लेकर जद(यू) के अभियान में भाजपा के शामिल होने से बहुत कुछ साफ हो रहा है. यह राजनीतिक सच्चाई है कि भाजपा ने बिहार में शराबबंदी का विधानमंडल में खुल कर समर्थन किया था.

यह भी सही है कि शराबबंदी से संबंधित पहला विधेयक मार्च 2016 के अंतिम हफ्ते में, जब विधानमंडल में पारित कराया जा रहा था, तब सत्ता पक्ष की इच्छा के अनुरूप विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को शराब नहीं पीने और इससे लोगों को दूर रखने के लिए प्रेरित करने की शपथ दिलाई गई थी. यह शपथ भाजपा के सदस्यों ने भी ली थी.

हालांकि यह भी सच है कि शराबबंदी के नए कानून के कई प्रावधानों को काले कानून की संज्ञा देकर भाजपा ने अगस्त में सदन का बहिष्कार किया था साथ ही विधेयक के खिलाफ राज्यपाल से गुहार लगाई थी. इस मसले पर प्रदेश भाजपा अब भी कड़े तेवर में है, लेकिन प्रकाश पर्व के अवसर पर प्रधानमंत्री ने जिस भाव-भंगिमा के साथ शराबबंदी के लिए नीतीश का अभिनंदन किया और उनके साथ होने की घोषणा की, भाजपा के लिए अब शराबबंदी कानून के समर्थन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा में प्रदेश भाजपा के लिए यह संकेत था कि यहां दल के भीतर नए युग की शुरुआत हो चुकी है. यह मात्र शब्दों में बयां नहीं किया गया, बल्कि आचरण में भी दिखा. पूरे प्रकरण को विस्तार से समझिए ।

प्रकाश पर्व के  लिए पांच जनवरी को गांधी मैदान के दरबार हॉल में आयोजित मुख्य समारोह के मंच पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद, केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान, संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद और तख्त हरमिंदर साहिब प्रबंध कमिटी के अध्यक्ष थे. मंच पर बिहार सरकार के किसी मंत्री और बिहार भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं बनाई गई थी.

हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) व बिहार सरकार की सहमति से किसी और की भी व्यवस्था की जा सकती थी, पर ऐसा नहीं किया गया. यह तो मंच की व्यवस्था थी. समारोह के बाद प्रधानमंत्री के भोजन का इंतजाम किया गया था. इसमें कोई दो दर्जन लोगों के लिए कुर्सियां लगी थीं और सभी पर आमंत्रितों के नाम थे.

यहां प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली से आए मंत्रियों के अलावा बिहार और पंजाब के मुख्यमंत्रियों, लालू प्रसाद के साथ साथ उनके दोनों पुत्रों तेजस्वी प्रसाद यादव और तेजप्रताप यादव, पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल और केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के नाम लिखे थे. हालांकि कुशवाहा इस भोज में मौजूद नहीं हुए इसलिए कुर्सी खाली ही रह गई.

यहां पर भी प्रदेश भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं थी, विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर ख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर प्रख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार और नंदकिशोर यादव सहित इन लोगों के किसी करीबी नेता को एयरपोर्ट पर स्वागत या विदाई का पास तक नहीं दिया गया.

 

ऐसा पास प्रांतीय भाजपा के पदाधिकारी (अध्यक्ष कहना बेहतर होगा) की सहमति से ही जारी होना था. तो क्या सुशील कुमार मोदी या दल के बड़े और पुराने नेताओं को यह मौका नहीं देने का केंद्रीय नेतृत्व का कोई निर्देश था?

 

इसका उत्तर प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय या केंद्रीय कमिटी के लोग ही दे सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम में पार्टी के सूबे के जमे-जमाए और शिखर नेताओं के साथ यह सलूक यदि कोई संकेत देता है तो यह कि नए नेतृत्व को इनकी छाया से पूरी तरह मुक्त करने की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में पहुंच रही है. देखना है, यह प्रक्रिया कितने दिनों में पूरी हो जाती है.

 

यह नई परिघटना नहीं है और इसका संकेत भी नया नहीं है. विधानसभा चुनावों के बाद से केंद्रीय नेतृत्व अपने आचरण से यह जताता रहा है. विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद विधायक दल के नेता के चयन में सुशील कुमार मोदी की रणनीति को झटका लगा था. उस समय सुशील मोदी-मंगल पांडेय की जोड़ी ने नंदकिशोर यादव को इस पद पर बैठाने की तैयारी कर ली थी. उन दिनों विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त के बावजूद मोदी-मंगल-नंदकिशोर के गुट ने पटना से दिल्ली तक अपनी रणनीति की सफलता के लिए हरसंभव जुगाड़ कर लिया था.

 

हालांकि डॉ. प्रेम कुमार अपनी उम्मीदवारी पर अड़े थे, पर उन्हें भी कोई आश्वासन नहीं था. केंद्रीय नेतृत्व ने अंतिम समय में प्रेम कुमार के दावे को स्वीकार कर स्थापित नेतृत्व को झटका दे दिया. फिर, राज्यसभा चुनाव के वक्त इन नेताओं के मत के विपरीत गोपाल नारायण सिंह को उम्मीदवारी दे दी. कहते हैं, सुशील मोदी ने बिहार से दिल्ली जाने की पूरी तैयारी की थी. केंद्रीय नेतृत्व ने सबसे बड़ा झटका प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष को लेकर सुशील मोदी व उनके समर्थकों को दिया.

 

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव पिछली फरवरी में ही होना था, पर पंचायत चुनाव व अन्य कई कारणों से यह टलता रहा. हालत यह हो गई थी कि मंगल पांडेय को ही इस पद पर बने रहने की बात अनौपचारिक तौर पर कही जाने लगी, कामकाज भी इसी मिज़ाज से हो रहा था. जब कभी अध्यक्ष के चयन की बात चलती भी थी, तो ऊंची जाति- मुख्यतः भूमिहार मैथिल ब्राह्मण- को इस पर नवाजे जाने की बात चला करती थी.

 

कुछ नाम सामने भी थे, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व खुल कर कुछ बोल नहीं रहा था और बिहार के प्रभारी भूपेन्द्र यादव की बिहार से प्रेषित नामों पर आपत्ति होती रही. वे यादव मतदाताओं को रिझाने के ख्याल से युवा यादव को अध्यक्ष बनाने के पक्षधर थे.

 

कहते हैं, नित्यानंद उनकी ही पसंद हैं. अर्थात केंद्रीय नेतृत्व ने बिहारी नेताओं की नहीं, प्रभारी पर ज्यादा भरोसा किया, जो उसका ही प्रतिनिधि होता है. मोदी-युग के अंत की यह ठोस अभिव्यक्ति थी और अब यह ताज़ा उदाहरण उससे भी बड़ा संकेत है. हालांकि कह सकते हैं कि राजनीति में जिस तरह कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, उसी तरह कोई स्थिति स्थायी नहीं होती. जब तक सांस, तब तक आस.

 

भाजपा के नेतृत्व और इस वजह से राजनीति में बदलाव पार्टी के लिए कैसा रहेगा, यह कहना कठिन है. अभी यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इससे भाजपा के नए समर्थक सामाजिक समूहों के मानस पर क्या असर पड़ेगा. यह एक तथ्य है कि कोई दो-ढाई दशक पहले तक भाजपा (जनसंघ के समय से ही) को जिस सामाजिक समूह का समर्थन था, आज वह पीछे है. कांग्रेस के निरंतर क्षरण के कारण सूबे की कांग्रेस समर्थक अगड़ी जातियों में भाजपा निरन्तर मजबूत होती गई.

 

हालांकि यह विकल्पहीनता का ही परिणाम रहा है, पर बिहार का अगड़ा मतदाता कमोबेश भाजपा के साथ है. पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक तो यह आक्रामक रूप से मतदान केंद्र पर भाजपा के साथ था. हालांकि भाजपा के प्रदेश नेतृत्व पर भी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की तरह पिछड़ावादी होने का आरोप लगता रहा और अपने आचरण से वह इसे दिखाता भी रहा.

 

फिर भी, सूबे के अगड़े सामाजिक समूहों की यह सहज शरणस्थली रही. इसका एक कारण इसका उत्कट लालू विरोध रहा. इसकी समावेशी रणनीति भी कम महत्वपूर्ण कारण नहीं रही. कैलाशपति मिश्र, ताराकान्त झा, लालमुनि चौबे जैसों ने संगठन में सामाजिक समूहों के लिए समावेशी रणनीति अपनाई थी, वह उसी तरह बरकरार नहीं रही. पर सुशील कुमार मोदी ने उसे थोड़े बदलाव के साथ अपनाया. मोदी के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा में कुछ बड़े पद, जिनमें पार्टी अध्यक्ष का पद भी शामिल है, अगड़ों के लिए ही रहते रहे.

 

हालांकि, संगठन (और जब सरकार में रही तो वहां भी) महत्वपूर्ण व निर्णायक पदों को अगड़ों से मुक्त रखने की हरसूरत चेष्टा रहती थी. न बनने पर ही कोई ऐसा पद अगड़ों को मिलता था. ऐसी रणनीति के कारण बिहार के अगड़ों को बांध रखने में सुशील कुमार मोदी को कुछ हद तक सफलता मिलती रही. इस बार यह पहला मौका है कि अगड़े सामाजिक समूहों को भाजपा ने कोई पद नहीं दिया है. पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद में विपक्ष का नेता पद पिछड़े समुदाय को है, तो विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता पद अति पिछड़ा समुदाय को.

 

अवधेश नारायण सिंह विधान परिषद में सभापति हैं. पर वह पद भाजपा की नहीं, एनडीए की देन है. सो, बिहार भाजपा का रूपान्तरण हो रहा है. यह रूपान्तरण पार्टी को क्या देता या क्या लेता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल सभी छोटे-बड़े नेता दिल थाम कर आनेवाले दौर की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

सभार: चौथी दुनिया