बिहार में इसबार जनता ने अपने जात वाले नेताओं को क्यों हरा दिया?

बिहार के 40 में से 39 सीटें एनडीए ने जीती है। जमीनी स्तर पर देखें तो यह जीत आश्चर्यजनक कतई नहीं है मगर हाँ, राजनितिक पंडित जो पुराने परंपरा और पुराने आंकड़ों के नजर से देख रहे थे, उनके लिए यह वाकई आश्चर्य करने लायक रिजल्ट है।

वर्षों से बनाया गया जातीय समीकरण यू ही नहीं टूट गया। इसके पिछे वर्षों से उनको गुमराह करने की राजनीति और मोदी-नीतीश के रूप में एक भरोसेमंद और लाभकारी विकल्प था।

विपक्ष मोदी सरकार पर उसके हिंदुत्व के विचारधारा को लेकर हमला कर रही थी। इसके साथ मोदी सरकार के बड़े कदम जैसे, नोटबंदी और जीएसटी पर हमला कर रही थी। विपक्ष की ये सब बाते तो सही थी मगर वे लोग मोदी सरकार के अनेक कल्यानकारी योजनाओं को बहुत हलके में ले लिया।

मोदी सरकार ने उज्जवला योजना के तहत काफी संख्या में गरीब परिवारों को गैस सिलेंडर दिया, आजादी से लेकर अबतक जितने शौचालय नहीं बने थे, उससे कही अधिक मोदी सरकार ने पाँच साल में बनाया, पीएम आवास योजना के तहत गरीब लोगों को यूपीए के तुलना में काफी अधिक पक्का मकान के लिए पैसा दिया। कभी बिहार में बिजली सपना जैसा था मगर इस बार चुनाव में बिजली मुद्दा ही नहीं था। बिहार के गाँव तक सड़को का जाल बिछा दिया गया है।

ये सब काम सिर्फ कागजों पर आंकड़े बनाने के लिए नहीं हुए, बल्कि जमीन पर जाईये तो यह दिखता भी है। कॉलेज से जब-जब मैं गाँव गया, पाँच साल में उसका प्रभाव देखा हूँ। इन सब योजना का फायदा सबसे ज्यादा गरीब लोगों को हुआ है। सबसे ज्यादा गरीब दलित और पिछड़े जाती के लोग हैं, जाहिर है सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को मिला है।

यहाँ एक बात गौर किजियेगा, गैस सिलेंडर, शौचालय, पक्का मकान और बिजली समृद्धी के तौर पर देखा जाता है। बिहार में ये चार चिजें समृद्ध लोगों के पास ही था। अगर जातीय नजर से देखें तो वर्षों से ये सब चिजें खानदानी अमीर और उच्च जाती के लोग के पास ही थे।

नरेंद्र मोदी ने यह सब पाँच सालों में गरीब पिछड़ों तक भी पहुंचा दिया। समाजिक न्याय सिर्फ आरक्षण की माँग करने से नहीं मिलेगा, यह नेताओं को अब सोचना होगा। दशकों से अपने जात वाला नेता, जिसको लोग जात पर वोट देते आय थे। उसने जो नहीं दिया, वह मोदी ने पाँच साल में दिया है। जाहिर है लोगों ने इस बार जात के जगह विकास पर वोट दिया है। किसान न्यूनतम आय योजना और स्वास्थ बिमा योजना इस कड़ी का अगला पड़ाव है। इसका प्रभाव देखना बाकी है। इस सब के साथ नीतीश कुमार और उनके काम का भी फायदा एनडीए को मिला है। यह अच्छी खबर है कि बिहार जातीवाद से आगे बढ़ रहा है।

– अविनाश कुमार

यूपी में भाजपा के जीत पर महागठबंधन में घमासान, रघुवंश ने नीतीश को कहा ‘धोखेबाज’

यूपी चुनाव में बीजेपी की भारी जीत से बीजेपी विरोधियों में हरकंप मच गया है । यूपी में मोदी विजय का असर परोसी राज्य बिहार में भी दिखने लगा है। एक तरफ बीजेपी खेमा में केसरिया होली चल जारी है तो विपक्षी खेमा बेचैन है ।

 

चुनाव के नतीजों पर राजद के बड़े नेता रघुवंश प्रसाद यादव ने सीएम नीतीश कुमार को आड़े हाथो लिया. रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार पर धोखा देने का आरोप लगाया और कहा कि नीतीश ने पहले तो नोटबंदी पर केंद्र सरकार की सराहना की, फिर उन्होंने उत्तरप्रदेश चुनाव में भी बीजेपी की मदद की. उन्होंने चुनाव प्रचार न कर के लोगों को गुमराह करने और जनता को धोखा देने का काम किया है.

 

दूसरी ओर जदयू ने नीतीश को यूपी में गठबंधन में शामिल नहीं करने का आरोप लगाया है. जदयू के नेता श्याम रजक ने आरोप लगाते हुए कहा कि यूपी में नीतीश कुमार को शामिल नहीं किया गया, जदयू हमेशा से चाहती थी कि उत्तरप्रदेश में भी बिहार की तरह महागठबंधन हो.
इसके लिए जदयू के वरिष्ठ नेता शरद यादव ने काफी कोशिशें कीं, लेकिन लोगों ने सीधे नकार दिया. पार्टी प्रवक्ता संजय सिंह ने भी कहा कि महागठबंध के चुनाव से बाहर रहने के कारण बीजेपी को यह जीत मिली है.

 

राजनीति के जानकर बता रहें हैं कि अभी तो यह शुरुआत है । बीजेपी की यह जीत बिहार के राजनीति में भी असर डालेगी ।

 

बिहार भाजपा का हो रहा है अबतक का सबसे बड़ा रूपान्तरण

बिहार में करारी हार के बाद भाजपा बिहार में अब नये रूप में अपने को पेश करने में लगी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रकाश पर्व के अवसर पर कोई तीन घंटे का पटना-प्रवास बहुआयामी राजनीतिक संदेश देकर चला गया. इसने सूबे के सत्तारूढ़ महागठबंधन की आंतरिक राजनीति में तो हलचल मचा ही दी, भारतीय जनता पार्टी के भावी नेतृत्व और राजनीति को लेकर भी कई संकेत दिए.

 

हालांकि प्रांतीय भाजपा के संदर्भ में केंद्रीय नेताओं की चिंता या रणनीति के संकेत गत एक साल में कई अवसरों पर मिलते रहे हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा के साथ पार्टी की आंतरिक राजनीति में उन संकेतों को बिहार ने जमीन पर उतरते देखा-प्रधानमंत्री के आगमन से लेकर उनकी विदाई तक.

बिहार की गैर भाजपाई राजनीति में सेंधमारी की मोदी की रणनीति की झलक तो इस यात्रा के हफ्ते भर के भीतर दिखी. जनता दल (यू) ने सूबे में पूर्ण शराबबंदी को लेकर जनजागरण अभियान के तहत 21 जनवरी को दो करोड़ लोगों की मानव-श्रृंखला बनाने का निर्णय लिया है. भाजपा ने इस कार्यक्रम के समर्थन की ही नहीं, बल्कि इसमें भाग लेने की भी घोषणा की है.

क्या यह अनायास है? ऐसा लगता नहीं है. नोटबंदी को लेकर हिन्दी पट्टी के कद्दावर नेता नीतीश कुमार से बिना शर्त मिले समर्थन का यह प्रतिदान हो सकता है. यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच विकसित हो रही नई राजनीतिक केमिस्ट्री की झलक हो सकती है. इस नई केमिस्ट्री का अंदाज बिहार की जमीन से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कर्नाटक की सार्वजनिक सभा के भाषण और उससे पहले भी मिलता रहा है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 25 दिसम्बर 2015 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर अचानक इस्लामाबाद पहुंचने का मामला हो या पाक की जमीन पर भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का, नीतीश कुमार उनके साथ रहे. नोटबंदी के सवाल पर तो अन्य विपक्षी दल ही नहीं, महागठबंधन के अपने सहयोगियों से अलग होकर उन्होंने उनका समर्थन किया और अब भी उनके साथ हैं.

प्रधानमंत्री ने पटना में शराबबंदी का पुरजोर समर्थन कर और नीतीश कुमार का सार्वजनिक तौर पर अभिनंदन कर इसकी कीमत चुका दी. अब शराबबंदी को लेकर जद(यू) के अभियान में भाजपा के शामिल होने से बहुत कुछ साफ हो रहा है. यह राजनीतिक सच्चाई है कि भाजपा ने बिहार में शराबबंदी का विधानमंडल में खुल कर समर्थन किया था.

यह भी सही है कि शराबबंदी से संबंधित पहला विधेयक मार्च 2016 के अंतिम हफ्ते में, जब विधानमंडल में पारित कराया जा रहा था, तब सत्ता पक्ष की इच्छा के अनुरूप विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को शराब नहीं पीने और इससे लोगों को दूर रखने के लिए प्रेरित करने की शपथ दिलाई गई थी. यह शपथ भाजपा के सदस्यों ने भी ली थी.

हालांकि यह भी सच है कि शराबबंदी के नए कानून के कई प्रावधानों को काले कानून की संज्ञा देकर भाजपा ने अगस्त में सदन का बहिष्कार किया था साथ ही विधेयक के खिलाफ राज्यपाल से गुहार लगाई थी. इस मसले पर प्रदेश भाजपा अब भी कड़े तेवर में है, लेकिन प्रकाश पर्व के अवसर पर प्रधानमंत्री ने जिस भाव-भंगिमा के साथ शराबबंदी के लिए नीतीश का अभिनंदन किया और उनके साथ होने की घोषणा की, भाजपा के लिए अब शराबबंदी कानून के समर्थन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा में प्रदेश भाजपा के लिए यह संकेत था कि यहां दल के भीतर नए युग की शुरुआत हो चुकी है. यह मात्र शब्दों में बयां नहीं किया गया, बल्कि आचरण में भी दिखा. पूरे प्रकरण को विस्तार से समझिए ।

प्रकाश पर्व के  लिए पांच जनवरी को गांधी मैदान के दरबार हॉल में आयोजित मुख्य समारोह के मंच पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद, केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान, संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद और तख्त हरमिंदर साहिब प्रबंध कमिटी के अध्यक्ष थे. मंच पर बिहार सरकार के किसी मंत्री और बिहार भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं बनाई गई थी.

हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) व बिहार सरकार की सहमति से किसी और की भी व्यवस्था की जा सकती थी, पर ऐसा नहीं किया गया. यह तो मंच की व्यवस्था थी. समारोह के बाद प्रधानमंत्री के भोजन का इंतजाम किया गया था. इसमें कोई दो दर्जन लोगों के लिए कुर्सियां लगी थीं और सभी पर आमंत्रितों के नाम थे.

यहां प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली से आए मंत्रियों के अलावा बिहार और पंजाब के मुख्यमंत्रियों, लालू प्रसाद के साथ साथ उनके दोनों पुत्रों तेजस्वी प्रसाद यादव और तेजप्रताप यादव, पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल और केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के नाम लिखे थे. हालांकि कुशवाहा इस भोज में मौजूद नहीं हुए इसलिए कुर्सी खाली ही रह गई.

यहां पर भी प्रदेश भाजपा के किसी नेता के लिए कोई जगह नहीं थी, विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर ख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार के लिए, न विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी के लिए. पर, इससे भी महत्वूर्ण यह रहा कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर प्रख्यात सुशील कुमार मोदी के साथ-साथ डॉ. प्रेम कुमार और नंदकिशोर यादव सहित इन लोगों के किसी करीबी नेता को एयरपोर्ट पर स्वागत या विदाई का पास तक नहीं दिया गया.

 

ऐसा पास प्रांतीय भाजपा के पदाधिकारी (अध्यक्ष कहना बेहतर होगा) की सहमति से ही जारी होना था. तो क्या सुशील कुमार मोदी या दल के बड़े और पुराने नेताओं को यह मौका नहीं देने का केंद्रीय नेतृत्व का कोई निर्देश था?

 

इसका उत्तर प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय या केंद्रीय कमिटी के लोग ही दे सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम में पार्टी के सूबे के जमे-जमाए और शिखर नेताओं के साथ यह सलूक यदि कोई संकेत देता है तो यह कि नए नेतृत्व को इनकी छाया से पूरी तरह मुक्त करने की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में पहुंच रही है. देखना है, यह प्रक्रिया कितने दिनों में पूरी हो जाती है.

 

यह नई परिघटना नहीं है और इसका संकेत भी नया नहीं है. विधानसभा चुनावों के बाद से केंद्रीय नेतृत्व अपने आचरण से यह जताता रहा है. विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद विधायक दल के नेता के चयन में सुशील कुमार मोदी की रणनीति को झटका लगा था. उस समय सुशील मोदी-मंगल पांडेय की जोड़ी ने नंदकिशोर यादव को इस पद पर बैठाने की तैयारी कर ली थी. उन दिनों विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त के बावजूद मोदी-मंगल-नंदकिशोर के गुट ने पटना से दिल्ली तक अपनी रणनीति की सफलता के लिए हरसंभव जुगाड़ कर लिया था.

 

हालांकि डॉ. प्रेम कुमार अपनी उम्मीदवारी पर अड़े थे, पर उन्हें भी कोई आश्वासन नहीं था. केंद्रीय नेतृत्व ने अंतिम समय में प्रेम कुमार के दावे को स्वीकार कर स्थापित नेतृत्व को झटका दे दिया. फिर, राज्यसभा चुनाव के वक्त इन नेताओं के मत के विपरीत गोपाल नारायण सिंह को उम्मीदवारी दे दी. कहते हैं, सुशील मोदी ने बिहार से दिल्ली जाने की पूरी तैयारी की थी. केंद्रीय नेतृत्व ने सबसे बड़ा झटका प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष को लेकर सुशील मोदी व उनके समर्थकों को दिया.

 

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव पिछली फरवरी में ही होना था, पर पंचायत चुनाव व अन्य कई कारणों से यह टलता रहा. हालत यह हो गई थी कि मंगल पांडेय को ही इस पद पर बने रहने की बात अनौपचारिक तौर पर कही जाने लगी, कामकाज भी इसी मिज़ाज से हो रहा था. जब कभी अध्यक्ष के चयन की बात चलती भी थी, तो ऊंची जाति- मुख्यतः भूमिहार मैथिल ब्राह्मण- को इस पर नवाजे जाने की बात चला करती थी.

 

कुछ नाम सामने भी थे, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व खुल कर कुछ बोल नहीं रहा था और बिहार के प्रभारी भूपेन्द्र यादव की बिहार से प्रेषित नामों पर आपत्ति होती रही. वे यादव मतदाताओं को रिझाने के ख्याल से युवा यादव को अध्यक्ष बनाने के पक्षधर थे.

 

कहते हैं, नित्यानंद उनकी ही पसंद हैं. अर्थात केंद्रीय नेतृत्व ने बिहारी नेताओं की नहीं, प्रभारी पर ज्यादा भरोसा किया, जो उसका ही प्रतिनिधि होता है. मोदी-युग के अंत की यह ठोस अभिव्यक्ति थी और अब यह ताज़ा उदाहरण उससे भी बड़ा संकेत है. हालांकि कह सकते हैं कि राजनीति में जिस तरह कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, उसी तरह कोई स्थिति स्थायी नहीं होती. जब तक सांस, तब तक आस.

 

भाजपा के नेतृत्व और इस वजह से राजनीति में बदलाव पार्टी के लिए कैसा रहेगा, यह कहना कठिन है. अभी यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इससे भाजपा के नए समर्थक सामाजिक समूहों के मानस पर क्या असर पड़ेगा. यह एक तथ्य है कि कोई दो-ढाई दशक पहले तक भाजपा (जनसंघ के समय से ही) को जिस सामाजिक समूह का समर्थन था, आज वह पीछे है. कांग्रेस के निरंतर क्षरण के कारण सूबे की कांग्रेस समर्थक अगड़ी जातियों में भाजपा निरन्तर मजबूत होती गई.

 

हालांकि यह विकल्पहीनता का ही परिणाम रहा है, पर बिहार का अगड़ा मतदाता कमोबेश भाजपा के साथ है. पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक तो यह आक्रामक रूप से मतदान केंद्र पर भाजपा के साथ था. हालांकि भाजपा के प्रदेश नेतृत्व पर भी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की तरह पिछड़ावादी होने का आरोप लगता रहा और अपने आचरण से वह इसे दिखाता भी रहा.

 

फिर भी, सूबे के अगड़े सामाजिक समूहों की यह सहज शरणस्थली रही. इसका एक कारण इसका उत्कट लालू विरोध रहा. इसकी समावेशी रणनीति भी कम महत्वपूर्ण कारण नहीं रही. कैलाशपति मिश्र, ताराकान्त झा, लालमुनि चौबे जैसों ने संगठन में सामाजिक समूहों के लिए समावेशी रणनीति अपनाई थी, वह उसी तरह बरकरार नहीं रही. पर सुशील कुमार मोदी ने उसे थोड़े बदलाव के साथ अपनाया. मोदी के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा में कुछ बड़े पद, जिनमें पार्टी अध्यक्ष का पद भी शामिल है, अगड़ों के लिए ही रहते रहे.

 

हालांकि, संगठन (और जब सरकार में रही तो वहां भी) महत्वपूर्ण व निर्णायक पदों को अगड़ों से मुक्त रखने की हरसूरत चेष्टा रहती थी. न बनने पर ही कोई ऐसा पद अगड़ों को मिलता था. ऐसी रणनीति के कारण बिहार के अगड़ों को बांध रखने में सुशील कुमार मोदी को कुछ हद तक सफलता मिलती रही. इस बार यह पहला मौका है कि अगड़े सामाजिक समूहों को भाजपा ने कोई पद नहीं दिया है. पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद में विपक्ष का नेता पद पिछड़े समुदाय को है, तो विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता पद अति पिछड़ा समुदाय को.

 

अवधेश नारायण सिंह विधान परिषद में सभापति हैं. पर वह पद भाजपा की नहीं, एनडीए की देन है. सो, बिहार भाजपा का रूपान्तरण हो रहा है. यह रूपान्तरण पार्टी को क्या देता या क्या लेता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल सभी छोटे-बड़े नेता दिल थाम कर आनेवाले दौर की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

सभार: चौथी दुनिया 

 

जिसके ऊपर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी है उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी एक बिहारी के ऊपर है

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बिहारियों के काबलियत से पूरी दुनिया प्रभावित है। आज बिहार के लोग पूरी दुनिया मे प्रतिष्ठित पद पर मौजूद है और अहम जिम्मेदारी निभा रहें हैं ।

देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए बने स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) की कमान भी बिहार कैडर के आईपीएस ए. आर. किन्नी को सौंपी गई है. वहीं अातंकवाद निरोधी दस्ते नेशनल सिक्यूरिटी गार्ड (एनएसजी) की कमान भी बिहार के ही राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी सुधीर प्रताप सिंह क दिया गया है।

बिहार कैडर के 1981 बैच के आईपीएस ए.आर.किन्नी को कैबिनेट सेक्रेटेरियट में सेक्रेटरी (सिक्यूरिटी) बनाया गया है. सबसे खास बात यह है कि किन्नी के ही हाथ में प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई है. अब देश में और देश के बाहर प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिजनों की सुरक्षा-व्यवस्था की जिम्मेवारी किन्नी संभालेंगे. किन्नी फिलहाल नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के डीजी हैं।

वहीएनएसजी के नए महानिदेशक सुधीर प्रताप सिंह 1983 बैच के आईपीएस अधिकारी है. वह सारण के अमनौर के रहने वाले है. उनका जन्म पटना में हुआ. उनके पिता विश्वनाथ सिंह बिहार के कृषि निदेशक थे. उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया में और पटना के संत माईकल हाई स्कूल से माध्यमिक शिक्षा के बाद उन्होंने दिल्ली के हसंराज कॉलेज से स्नातक किया. वही से ही उन्होंने स्नातकोत्तर की डिग्री भी ली. अभी वे सीआरपीएफ के स्पेशल डीजी हैं.

 

 

खुशखबरी : अब उत्तर बिहार में रसोई गैस की कमी नहीं होगी

मुजफ्फरपुर: 10 जून बिहार के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और लाभदायक रहा।  बिहार को केंद्र सरकार के दो विभागों के तरफ से बिहार के लिए खुशखबरी आई।  एक तरफ मोतिहारी में रेल मंत्री सुरेश प्रभु बिहार के लिए कई योजनाओं का घोषणा कर रहे थे तो दुसरे तरफ मुजफ्फरपुर में केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) धर्मेंद्र प्रधान ने भी बिहार को खुशखबरी दी।  

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केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) धर्मेंद्र प्रधान ने घोषणा किया कि ओडिशा के पारादीप से सीधे मुजफ्फरपुर तक पाइपलाइन से एलपीजी पहुंचेगी। यह गोरखपुर होते हुए लखनऊ तक जाएगी और साथ ही मोतिहारी में नया बॉटलिंग प्लांट खोला जाएगा।

इससे उत्तर बिहार में रसोई गैस की कमी नहीं होगी। वे इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड के प्रागंण में आयोजित विकास पर्व कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। इससे पूर्व उन्होंने इंडेन बॉटलिंग प्लांट में दूसरे केरोजल का शुभारंभ भी किया।

शुक्रवार को मंत्री ने कहा कि उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ रही है। इसको ध्यान में रखकर नये बॉटलिंग प्लांट खुलेंगे। देश में जितनी भी रिफाइनरी हैं उनको एक साथ जोड़ा जाएगा।

केंद्रीय मंत्री के घोषणा के अनुसार मोतिहारी में नये प्लांट की स्थापना से मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, सारण, सीवान, शिवहर, गोपालगंज, पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण व वैशाली जिले को लाभ होगा।

केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा मोदी सरकार का दो वर्ष पूरे होने पर हम यहा अपनी अपलब्धि गिनाने नहीं बल्कि जनता को हीसाब देने आए है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी देश में प्रधान सेवक के रूप में दो वर्षों से दिन रात काम कर रहे है।

मंत्री ने दावा किया कि बिहार में कुछ वर्ष पहले तक सौ में से सिर्फ 26 घरों में ही एलपीजी थी। पिछले साल काम किया। वर्ष 2016 में इसकी संख्या 36 तक पहुंच गई और सरकार का लक्ष्य लक्ष्य पांच करोड़ घरों तक गैस कनेक्शन पहुंचाना है, जिसमें बिहार में डेढ़ लाख घरों तक यह पहुंच चुका है।