माह-ए-मुहब्बत 7:जातिवाद को पीछे छोड़ प्रेम की ताकत को साबित किया इस दंपति ने

एक ओर जहाँ प्रेम के सच्चे मूरत भगवान् कृष्ण की पूजा करता है हमारा देश, वहीं दूसरी ओर प्रेम में पड़े दो लोगों को कैसे अलग करें, इसके ढ़ेर सारे उपाय भी तलाशता रहता है। नफरत फैलाने के कई बहानों में से एक, जातिवाद, से जूझना लाखों प्रेमियों को पड़ता है। उनमें से कितने ही ऐसे जोड़े हैं जो हार मान लेते हैं और कुल 4 परिवारों की तबाही की वजह बनते हैं। जबकि कुछ जोड़े इस जातिवाद की बेड़ी लाँघकर आगे की राह बनाते हुए 2 परिवारों की ताकत बन जाते हैं। आज ‘माह-ए-मुहब्बत’ की कहानी कुछ इसी तरफ इशारे करती है।
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मैं बबलू कुमार और मेरी स्वीट सी वाइफ अल्का कुछ इस तरह मिले कि एक दूसरे की मासूमियत में दिल दे बैठे। अनोखा मिलन था हमारे मन का! जब हम मिले उस समय मैं अपनी आर्थिक तंगी के चलते और अच्छे पैसे के लिए मार्केटिंग बिजनेस में आ गया था। हम चाहने लगे कि एक हो जाएँ पर हमारे घरवाले मानने वाले कहाँ थे। हम दोनों दो जाति के, मैं चन्द्रवंशी और अल्का विश्वकर्मा। फिर भी हमदोनों ने मन बना लिया था। हम दोनों को नॉर्मल तरीके से शादी करनी थी पर एक मोड़ पर हमदोनों ने प्रेम मिलन को अच्छा माना क्योंकि इसके बिना ज़िंदगी में जितनी भी ख़ुशी मिलती कम होती। एक दिन निकल पड़े घर से दोनों। बाइक से बिहार से महोबा, यूपी पहुँच गए, जहाँ मैं बिजनेस कर रहा था। दो दिन बाद मेरी घर पर बात हुई। हमें बुलाया गया। हम वापस आए, लेकिन शादी नहीं की थी हमने, इसलिए घर नहीं गए। हमारे दो दोस्तों ने मदद की। हमलोग चाहते थे कुछ पैसे कमा लें, फिर शादी करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। फिर हमें लगा हमारी जिंदगी से बढ़कर न कोई ढोल है न तमाशा। हमारे बिहार में अक्सर लोग कर्ज में यानि कब्र में पैर होते हुए भी शादी के नाम पर नाजायज खर्चे करते हैं। आखिर में सिस्टर की शादी के बाद हमने मन्दिर में शादी कर ली। इस बीच बिजनेस में समय नहीं दे पाया, वो ख़त्म हो गया और मैं दिल्ली चला गया प्राईवेट जॉब के लिए। पैसा अच्छा नहीं मिलने के कारण वापस भी आ गया। कुछ वेंकसीज भरे। इस बीच मुझे बंधन बैंक में फाइनेन्स जॉब लगा और मेरी वाइफ ने भी जॉब के लिए तैयारी की। आज वो महिला बटालियन, बिहार पुलिस में हैं और मैंने फिर से अपना बिजनस शुरू किया है ताकि हमारे पास कम समय में पैसा और एक-दूसरे के लिए समय, दोनों हो सकेे, पूरी फैमिली के साथ जी सकूँ।
लोग कहते रहे, बर्बाद हो जाओगे, लेकिन हमारे दो मन के साथ दो ताकत का भी मिलन हुआ और आज हम आबाद हो रहे हैं। दोनों की फैमिली को सपोर्ट भी कर रहे हैं और सभी खुश भी हैं हमसे।
नोट- यह कहानी ‘आपन बिहार’ के फॉलोवर बबलू जी ने साझा की है। आप भी अपनी या अपने आसपास की कहानी हमसे साझा कर सकते हैं, पसंद आई तो पढ़ेगा पूरा बिहार। पता ध्यान रहे- [email protected]

माह-ए-मुहब्बत 6: ‘अनाम’ प्रेयसी की याद में कुछ यूँ बेकरार है ये प्रेमी

‘माह-ए-मुहब्बत’ सिर्फ उनके लिए नहीं जिनकी प्रेयसी या प्रेमी है, ये उनके लिए भी है जिनके मन-मष्तिष्क में कहीं एक अमिट छाप है किसी की। ये खुद उस अजनबी से अंजान हैं पर उसी परछाई के पीछे भागते जा रहे हैं, जिसमें ये अपना जीवनसाथी ढूंढ रहे हैं। भूमिका में ज्यादा नहीं, बस इतना कि ये कहानी गद्द रूप में लिखी गयी है, किसी अनजाने को याद करते हुए लिखी गयी है, किसी छवि से बेइंतहां प्रेम में लिखी गयी है।

 

“दिल्लगी में मैं उनके मरता रहा,

मन ही मन मैं उनसे प्यार करता रहा,

कहीं खो न दूँ एक अच्छी दोस्त,

इसी डर से उनसे कहने को डरता रहा।
काश कि वो हमें भी पढ़ पाते,

हम भी उनके प्यार में आगे बढ़ पाते,

इश्क़ की सीढियाँ चढ़नी आती नहीं मुझे ऐ दोस्त,

अगर होता हाथो में हाथ उनका ,

तो उन सीढ़ियों को भी हम चढ़ जाते।
बचपन की वो यादें, वो पल मस्ताने,

मैं तो तभी से था शामिल उनमें,

जिनमें होते उनके दीवाने।
मेरी चाहत की गहराई को जब उन्होंनेे था जाना,

तब समाज की सच्चाई ने हमें नहीं पहचाना।
जैसी चाहे मज़बूरी हो, चाहे  जितनी  भी दुरी  हो,

सिर्फ एक ही इच्छा जाहिर है भगवान तुम्हारे चरणों  में,

उनकी सारी मांगे पूरी हों, उनकी सारी मांगे पूरी हों।
नोट- यह कहानी हमें लिखी है ब्लॉगर विपुल श्रीवास्तव जी ने। आप भी अपनी या अपने आसपास की कोई प्रेम में डूबी कहानी/रचना साझा करें, पढ़ेगा पूरा बिहार। हमारा पता- [email protected]

माह-ए-मुहब्बत3: जातिवाद और दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों से यूँ जीत गया यह युगल!

हमारे समाज में प्रेम या प्रेम विवाह करना एक गुनाह के तौर पर देखा जाता है। तमाम सामाजिक-पारिवारिक बंधनों और रीति रिवाजों के डर से ज्यादातर युगल अपने प्रेम को मुक़म्मल अंत नहीं दे पाते, वहीं इन बन्धनों को तोड़ कुछ युगल अपने प्यार का इक़रार और इज़हार कर देते हैं। फिर प्रेम साबित करने के लिए उन्हें क्या-क्या करना होता है, यही है आज की इस कहानी में।


यह कहानी है अरुण कुमार टिकट परीक्षक ,पुर्व मध्य रेलवे सोनपुर मंडल और सोनी कुमारी महिला आरक्षक , केंद्रीय औद्यागिक सुरक्षा बल की।

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बात उन दिनों की है जब मैं पटेल छात्रवास ,पटना में रहकर पढ़ाई करता था। अक्सर अपने दोस्तों से मिलने मैनपुरा जाता था। पहली नजर में वहाँ सोनी कुमारी को दिल दे बैठा। सब कुछ ठीक चल रहा था। एक दिन सोनी अचानक बोली “मेरी शादी तय हो गयी है, जल्दी मुझसे शादी कर लो नहीं तो…”।
मेरे लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी थी क्योंकि एक तरफ मेरा प्यार था और दूसरी तरफ वायु सेना का ऑफर लैटर।
मैंने प्यार को चुना क्योंकि मुझे जॉब तो बाद में भी मिल जाता लेकिन प्यार नहीं। शादी करना इतना आसान भी नहीं था क्योंकि दोनों की जाति अलग थी- मैं कुर्मी जाति तो सोनी भूमिहार। परिवार वाले तैयार नहीं थे फिर भी हमदोनों ने शीतला माता की मंदिर में शादी की।
लेकिन शादी के अगले दिन ही हमें अलग कर दिया गया। सारे सपने एक पल में ही टूट गए। लेकिन हमदोनों ने हार नहीं मानी। 8 माह बाद हम मिले। उस समय दुनिया की कोई ताकत नहीं थी जो हमें अलग कर पाती। बहुत सारी सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयाँ आईं लेकिन सब से हमदोनों मिलकर लड़े क्योंकि हमें प्यार की ताकत को दुनिया को दिखाना था।
हमें नफरत है जातिवाद और दहेज़ प्रथा जैसी बुराइयों से। समय के साथ आज सबकुछ ठीक हो गया। आज हमदोनों केंद सरकार की सेवा में हैं। दो खूबसूरत बच्चे अस्मित और अरमान जो संत डॉमिनिक सविओस हाई स्कूल दीघा के छात्र हैं।
हमेशा प्यार की जीत होती है।

नोट- यह सच्ची कहानी हमारे पास आपही के बीच से अरुण कुमार जी ने भेजी है जिन्होंने खुद अपने प्रेम के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और उसे सफल बनाया। आप भी अपनी या आसपास की कहानी हमें भेज सकते हैं, पढ़ेगा पूरा बिहार। हमारा पता है- [email protected]

माह-ए-मुहब्बत 2: कोचिंग सेंटर में उपजी यह प्रेम कहानी जब अपने अंत तक पहुँची

प्रेम तो सबका एक समान ही होता है, बस पात्र, समय, स्थान और दृश्य अलग-अलग होते हैं। ‘माह-ए-मुहब्बत’ में आज ऐसी ही एक कहानी जो बिहार के किसी छोटे शहर के कोचिंग सेंटर पर घटित हुई।

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​वर्षों बाद देखा था उसे आज, या शायद ये दो तीन वर्ष ही ‘वर्षों’ जैसे बीते थे। नजरें ऐसे जमीं उस पर जैसे आलास्का में बर्फ जमती है। वही गहराई आँखों में आज भी थी।

जब पास पहुंचे तो हम दोनों ही खामोश रह गए ऐसा लगा कि उस पल को खामोशी के साथ जीना ही एहतियाज हो।

जून में गर्मी अपनी पूरी जवानी जीने की कोशिश कर रही थी और हम अपनी पूरी जवानी R.S Agarwal के math के सवालों के साथ गुजार रहे थे।

पहला क्लास था उसका। जब क्लास में आई तो नजरें इसलिए टकरा गईं कि उसकी वजह से मुझे अपनी सीट छोड़, पीछे जाना पड़ा था। बला की खुबसूरत थी, ऐसा हरगिज नहीं था पर आँखो की पाकीज़गी जरूर बेचैन कर रही थी मुझे। 

हर दिन क्लास आती। हम दोनों ही बैंक की परीक्षाओं की तैयारी में लगे हुए थे। कुछ महीने बाद ही मेरा रिजल्ट पीओ के एक एक्जाम में आया। मैंने पुरे क्लास को पार्टी दी, वो भी आई थी। रेड सुट में उसकी सांवली रंगत ऐसे निखर रही थी जैसे एक फूल में दो रंग जंचते हैं। पहली बार हमारी बातचीत हो पाई। बातें भी ऐसी जो अब तक ज़ब्त हैं ज़हन में। उस वक्त भी हम जुबां से ज्यादा आँखों से ही बात कर रहे थे। फिर phone number exchange हुए, feeling exchange हुई और शायद दिल भी। ‘शायद’ इसलिए कि उसके दिल में क्या था, पता नहीं था।

बातों का सिलसिला शुरू हुआ। जब हम बातें करते तो ऐसा लगता कि इस जहां में सिर्फ हम हैं, बाकी सारी दुनिया गौण है। हम इधर उधर की लाखों बातें करते पर ना ही कभी इजहार- ए- मोहब्बत हुई, ना ही कोई commitment. मेरे Joining की date आई तो लगा जाने से पहले एक बार उसे देखना जरूरी है।

हमारा मिलना आसान नहीं था क्योंकि ना ही शहर बड़ा था ना ही लोगों की सोच। तय हुआ कि हम रेस्टोरेंट जाएँगे पर साथ नहीं बैठेंगे। …और हम पहुँच गए अपनी आँखों में उसे भरने के लिए।

चाहे लाखों लड़कियाँ उससे बेहतर और बेपनाह खुबसूरत हों पर उस दिन के बाद मुझे कोई भी लड़की उससे अच्छी नहीं लगी। हमने कोल्ड काॅफी आर्डर किया था, पता नहीं उसका स्वाद कैसा था, क्योंकि काॅफी पर ध्यान एक बार के लिए भी नहीं गया।

उसके बाद मैं अपने शहर, और उसे जो आज कल सबसे जरूरी थी, को छोड़ दिल वालों के शहर दिल्ली आ गया। बातों का सिलसिला जारी था। कुछ महीनों बाद उसका सेलेक्शन भी एक बैंक में हो गया और वो कोलकाता चली गई।

अगस्त का महीना था उसका फोन आया थोड़ी उदासी थी उसकी आवाज में, बोली शादी तय हो गई है मेरी।

क्या…., कब …. I mean congratulations फोन कट गया।

उसके बाद क्या हुआ मुझे वो याद करने की हिम्मत आज भी नहीं होती ….बस ऐसा लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया कुछ बाकी नहीं रहा। क्या बोलूँ उसको की तुमने घोखा दिया, नहीं ये नहीं कह सकता। जब हम दोनों ने ही एक दूसरे से आज तक कोई वादा ही नहीं किया तो घोखे की बात कहां से आई।….फिर भी मुझे लगता था कि जुबां से ना सही जहन में तो ये बात थी कि हम हमेशा साथ रहेंगे।

4-5दिन बाद उसका फोन आया, मिलने आ सकते हो? क्या बोलूँ उसको, शायद जाते जाते उसने एक ख्वाहिश जाहिर की थी मना कैसे करता!

वो हमारी आखिरी मुलाकात थी । हम CCD में बैठे थे, आज भी हाथों में कोल्ड काॅफी ही थी। बस हालात अलग थे। उस वक्त स्वाद पर ध्यान नहीं था पर आज की काॅफी बहुत ही कड़वी लग रही थी।

उसने कहा, “मुझे पता है, हम दोनों ही एक दूसरे को पसंद करते हैं (ये हमारी पहली इजहार -ए – मोहब्बत थी वो भी तब जब हम अलग हो रहे थे ), पर मैं अपने घर की सबसे बड़ी बेटी हूँ। और भी दो बहनें हैं मेरी। बहुत अरमान है मेरे पैरेंट्स के, मैं उन्हें दुखी नहीं कर सकती। I think हमें यहां से अपने अपने रास्ते लौट जाना चाहिए।तुम एक बेहतरीन इंसान हो, तुम्हें एक अच्छी लाइफ पार्टनर मिलेगी पुरी उम्मीद है मुझे। और दोस्त की हैसियत से हम हमेशा टच में रहेंगे ही।” वो बोलते जा रही थी 

और मैं……मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। क्या सच में कोई रिश्ता किसी हैसियत में बंध कर रह सकता है।

जब वहां से स्टेशन जाने के लिए ऑटो में बैठा तो एक गाना बज रहा था-

“हम तुम मिले कोई मुश्किल न थी

पर इस सफर की मंजिल न थी

ये सोच कर दूर तुमसे हुए”
वो गाना हमारे दिल का हाल बता रहा था।

उस वक्त लगा कि जिदंगी ऐसे क्यों बदलती है कि यकीन ही नहीं आता। लौट आया मैं वापस दिल्ली, पर खाली था भीतर से। दिल वालों का शहर अचानक बेजार लगने लगा।

दिसंबर में उसकी शादी थी, उसने बुलाया था पर मैं नहीं गया। हिम्मत नहीं हुई। टच में रहने का भी किया था पर जो वादा खामोशी ने साथ रहने का किया था जब वो नहीं निभ पाया तो ये कैसे निभता।

आज हम फिर सामने हैं, दरसल हम एक काॅमन फ्रेंड की पार्टी में पहुंचे थे।

पास आकर बोली, “कैसे हो?” क्या जवाब देता कि अच्छा होना तो उसी दिन बंद हो गया था जब तुम गई थी ।पर ये कह नहीं पाया, बोला, “अच्छा हूँ”। “ये चोट कैसे लगी?”, मेरे हाथों का प्लास्टर देख उसने पूछा। “कुछ नहीं बस एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया था।”

उसके हसबैंड नहीं थे। हम पूरी पार्टी एक दूसरे को कंफर्टेबल करने की कोशिश में ही गुजार दिए। वापस जाने के वक्त मेरे जूते का फीता खुल गया था, जैसे ही मैं झुका बांधने उसने बोला, “रूको मैं बांध देती हूँ।” सच उस एक लम्हें में मैंने अपनी पूरी जिन्दगी जी ली उसके साथ।

वो अपनी दुनिया में खुश थी और मैं …खुश होने की पूरी कोशिश में।

हम मिल न सके इसका अफसोस जीवन भर रहेगा। पर जितने दिन भी उसका साथ मिल पाया वो एक अनमोल खजाना है मेरी यादों का। इसे मैं कभी खोने नहीं दूंगा।

और वो चली गई। उस रात के अंधेरे में भी मैं उसकी गाड़ी को दूर तक जाते देखता रहा।

फिर कहीं दूर से उसी गाने की धुन सुनाई दे रही थी, 

“हम तुम मिले कोई मुश्किल न थी

पर इस सफर की मंजिल न थी

ये सोच कर दूर तुमसे हुए हुए…”
नोट- प्रस्तुत कहानी सच्ची है और ये आपन बिहार की एक सदस्या सुश्री अर्पणा द्वारा हमारे साथ साझा किया गया है। आप भी अपनी या अपने आसपास की कोई प्रेम कहानी हमारे साथ साझा कर सकते हैं। हमारे पता है- [email protected]

माह-ए-मुहब्बत 1: आगाज़ बिहार के हीरो एवं प्रसिद्ध आईपीएस लांडे की रियल प्रेम कहानी से

एक हट्ठा-कट्ठा, फिट-गबरू जवान, जीवन की कई कठिनाइयों से लड़ते हुए भारतवर्ष की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षाओं में से एक को पास करता है। आईपीएस बनता है और बिहार में अपनी सेवा देना शुरू करता है। वो चाहता तो अन्य ऑफिसरों की तरह शांति से अपनी नौकरी के साथ जी सकता था। मगर उसने ऐसा कुछ नहीं किया।

एक सच्चे इंसान बनने की जो बीज परिवार ने बोई थी, उसके फलने-फूलने के दिन आ गए थे। वह नवजवान प्रसिद्ध होने लगा। जिस भी तरीके से हो सका, उसने अपना कर्तव्य निभाया। लड़कियों के बीच पूजा जाने लगा। माफियाओं में खलबली मचा के रख दी। दुश्मन बढ़ते गये, उससे कई गुना अधिक चाहने वाले बढ़ते गये। किसी ने ‘सिंघम’ कहा, किसी ने ‘दबंग’।

ये था हीरो का इंट्रोडक्शन। हर बड़े होते बच्चे की तरह ये हीरो भी अपने माता-पिता का बड़ा होता बच्चा था। हीरो की हिरोइन भी तो उसी टक्कर की होनी चाहिए थी। हीरो जानता था कि उसके इस अव्यवस्थित और असुरक्षित जीवनशैली के बीच कौन लड़की अपने जीवन की सुरक्षा तलाश करेगी! बस इसी सोच ने उसे शादी-विवाह के बारे में सोचने से दूर रखा हुआ था।

खैर! हर अभिभावक की तरह हीरो और हीरोइन के अभिभावकों ने भी दोनों को मिलवाने का कार्यक्रम तय कर रखा था। दोनों मिलते हैं।

पहली ही मुलाक़ात की पहली ही वार्ता में हीरो कहता है, “मैं नहीं जानता अपनी ज़िंदगी में मैं क्या करने वाला हूँ। हर रोज़ नये चैलेंज से खेलना ही मेरा शौक है। जरूरी नहीं आपकी हर मुश्किल घड़ी में आपके साथ रह पाऊँ। मैं देश-सेवा की जिम्मेदारी को सबसे ऊपर रखता आया हूँ, अपनी जान से भी ऊपर। क्या आप ऐसे लड़के के साथ अपना जीवन देखती हैं?”

इतना कहने के बाद, लड़के को पूरी उम्मीद थी कि लड़की पीछे हट जाएगी। फिर कोई शादी की बातें नहीं करेगा। आखिर कौन सी लड़की ऐसे लड़के के साथ ज़िन्दगी बसर करना चाहेगी जिसके हज़ारों दुश्मन हों, जिसकी ज़िन्दगी पर हर वक़्त खतरा मंडराता हो, जिसकी ज़िन्दगी असुरक्षित हो!

मगर वो लड़की भी क्या लड़की होगी जो सच्चाई से कही गयी बातों के भाव न समझ सके! वो लड़की भी तो पेशे से डॉक्टर थी, चैलेंज लेना तो उसे भी भाता था। आत्मनिर्भर वो लड़की भी दिल से समाज के लिए सेवा-भाव रखती थी। इस जमाने में जिसे सच्चा प्रेम और भरोसेमंद दोस्त मिल रहा हो, वो अपने जीवनसाथी में और क्या तलाशे। बिना एक पल भी गवाये उस लड़की के दिल ने हीरो की सच्चाई स्वीकार ली और जवाब ‘हाँ’ में ही दिया।

बस वो पहली मुलाक़ात ही प्रेम की वो डोर साबित हुई जिसके सहारे दोनों बंधते और बढ़ते चले गए।

आज इस दंपति के दाम्पत्य जीवन की चौथी वर्षगाँठ है। आज वसंत पंचमी का महोत्सव है, और आज ही से शुरू हो रहा है माह-ए-मुहब्बत में हमारी कहानियों का सिलसिला।

ये कहानी किसी और की नहीं, बिहार, बल्कि देश के सबसे प्रसिद्ध आईपीएस ऑफिसरों में शुमार होने वाले आईपीएस शिवदीप लांडे और उनकी पत्नी श्रीमती ममता शिवतारे (Mamata Shivtare) की प्रेम-कहानी का एक छोटा सा अंश मात्र है। दोनों के अंदर समाज की अपने-अपने स्तर से सेवा का जो भाव है, शायद इसी ने दोनों के दिल मिलाये। श्रीमती लांडे स्वयं भी गरीब बच्चियों की शादी करवाने की जिम्मेदारी का वहन करती आई हैं।

ये दोनों ही सुखी समाज की कल्पना करते हैं। गाहे-बगाहे शिवदीप लांडे के फेसबुक प्रोफाइल पर इनकी बेटी ‘अरहा’ की तस्वीरें आती रहती हैं, जिसमें अपने माता-पिता की जिंदादिली, वीरता और समाज के प्रति समर्पण की झलक भी साफ़ दिखती है। इस दंपति को आजीवन स्वस्थ, सुखी और समृद्ध होने की शुभकामनायें।


नोट- प्रस्तुत कहानी स्वयं श्री शिवदीप लांडे द्वारा आपन बिहार से हुई वार्तालाप में साझा की गयी है। आपके पास भी हो अपनी या अपनों की ऐसी ही कोई प्रेम कहानी तो लिखिए और भेजिए हमें, पढ़ेगा पूरा बिहार। हमारा पता है- [email protected]