मशहूर अभिनेता मनोज वाजपेयी ‘फेस्टिवल ऑफ ग्लोब’ परेड के मुख्य अतिथि होंगे

बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता मनोज वाजपेयी ने भारत और खासकर बिहारवासियों को गर्व का एक और अवसर दिया है। फेस्टिवल ऑफ ग्लोब में भारत के 70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर होने वाले परेड के मुख्य अतिथि ‘सत्या’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ फेम मनोज वाजपेयी बनाये गए हैं।

गौरतलब हो कि अपने क्षेत्र में विशिष्ट पहचान बनाने वाले भारतीयों को यह सम्मान पिछले 25 सालों से दिया जा रहा है। सात समंदर पार किसी अन्य देश में भारतीय नागरिक को परेड की अगुआई करने का अवसर मिलना देश के लिए गर्व का विषय है।

मनोज वाजपेयी की खासियत यह है कि इन्होंने कभी अपने आप को रिपीट रोल में नहीं लाया। हर रोल अलग और कहानी में खास जगह रखने वाला। यही वजह है कि इन्हें न सिर्फ जनता का प्यार मिला है, बल्कि फ़िल्म समीक्षकों की भी सराहना भी मिलती रही है।

अपनी जिंदादिल और स्वाभाविक अभिनय से बॉलीवुड में अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे मनोज वाजपेयी अब कैलिफोर्निया में होने वाले फेस्टिवल ऑफ ग्लोब में विशिष्ट अतिथि बनने की उपलब्धि हासिल कर रहे हैं।

यह फेस्टिवल अमेरिका में बसने वाले भारतीयों द्वारा 13 अगस्त को मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियाँ हासिल करने वाले भारतीयों को सम्मान के तौर पर यहाँ बुलाया जाता है।

सिलिकॉन वैली में हर साल मनाया जाने वाला यह फ़िल्म फेस्टिवल अन्य फ़िल्म फेस्टिवल की तरह मनोरंजन, व्यापार और संस्कृति के आदान-प्रदान का एक प्लेटफॉर्म है। यहाँ फिल्मों की स्क्रीनिंग होती है और फिर कलाकार, राजनीतिज्ञ, बिजनेसमैन, सभी के समक्ष अवार्ड की घोषणा भी की जाती है।

इस फेस्टिवल के संस्थापक डॉ. रमेश जपड़ा का मनोज वाजपेयी को लेकर कहना है,

“इस साल हिंदी सिनेमा के इस अभिनेता को अपना अतिथि बनाते हुए हमें बहुत गर्व का अनुभव हो रहा है। हम गोल्डन सिटी में उनका स्वागत करने को उत्सुक हैं और हम उन्हें उनके हज़ारों प्रसंशकों से मिलवाने को लेकर उत्साहित हैं।”

The Independence Day of India

independence day of india
The people we fight are the people we love. The people we might not know are the people we ought to die for. The people never matters for us are the people we are living for. We Indians bleed blue.
In the struggle for oneness, we are classified and further declassified into various sub-groups. Each sub-groups is the strength of unity and yet a diversification of a whole. And a whole into a bigger whole. It is no shame that in this 70th Independence Day we are still talking of poverty, caste, illiteracy, elimination of social injustice and a moral society based on intellect which would have been done back in the time. At least we are talking. It would have been a problem, a greater problem when the system even stops talking on it.
A much-agreed thesis is to load the burden on the incapable system to further unload our responsibilities towards the nation. To blame for what it is rather than to change from what it is. Anti-social fashions have crept into the foundational principles of youth are redefining the wrongs to right. The desire of the freedom from feudal society has razed the impeccable boundaries causing indestructible harm into the personal dignity of human race. Thus, breaking barriers and creating another in a process to redefine the freedom is the renaissance towards the better end. A mishandled dogmatic decision could lead to the destruction of all. Terrorists are not Indian. They could be controlled or killed but a terrorist born within is hard to cure.
Diversified groups into sub-groups and further has never been a problem for the nation but a classification on the grounds of inferiority is indigestible. Inferiority begets insecurity begets violent destruction of the social stratification. Fragments out of such destructions are the cause of violent uprising of deformative society.
A renaissance shall draw through scientific rationalisation of constructive principles to utilize the nation its highest potential.
Hope the future lies in wisdom.

 

Amar Bharat

#BihariKrantikari: #5 इस वीर बिहारी योद्धा के नाम से ही अंग्रेजी सिपाही थर-थर कांपने लगते थे..

चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था। भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे। वह वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ था। कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं। सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश मारने का आदेश देता है। तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत माता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देता है।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था। शहीद निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे। अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये।

एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे रोहतास जिले के डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन्हें कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया।
आनन-फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया। ना

चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था। भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे। वह वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ थ| कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं। सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश मारने का आदेश देता है। तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत माता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देता है।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था। शहीद निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे। अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये। एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे रोहतास जिले के डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन्हें कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया।
आनन-फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया। ना कोई मुकद्दमा, ना कोई बहस -जिरह, ना कोई अपील, ना कोई दलील। 5 जून 1858 को निशान सिंह को उनके ही निवास स्थान पर तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया। लेकिन कहते हैं मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं अमर हो जाते हैं। ऐसे ही निशान सिंह पूरे बिहार और भारत के लिए अमर है।

 

#BihariKrantikari: इस देशभक्त ने एक हाथ में गीता और दूसरे हाथ में कृपाण रख देश की आजादी की कसम खाई थी

बिहार के मुंगेर जिला में माउर नामक ग्राम का एक संभ्रांत कृषक परिवार| 21 अक्टूबर 1887 ई० को पिता हरिहर सिंह के चौथे पुत्र के रूप में आये श्री कृष्ण सिंह| पिताजी शिवभक्त थे, जिसका प्रभाव पुत्रों पर भी आजीवन बना रहा| श्री कृष्ण सिंह न सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री रहे बल्कि ये आधुनिक बिहार के निर्माता भी माने गये हैं| भारत माता के महान सपूत, स्वतंत्रता संग्राम के नायक, स्वच्छ राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी और किसानों और गरीबों के मसीहा, श्री कृष्ण सिंह को लोग यूँ ही प्यार से ‘श्री बाबू’ नहीं कहते| आजीवन देश को समर्पित रहे श्री सिंह कई बार कहा करते थे, “प्रत्येक नागरिक को सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि पहले देश है, फिर शेष|”
छात्र जीवन में ही मुंगेर के कष्टहरणी घाट पर, एक हाथ में गीता और दूसरे हाथ में कृपाण लेकर श्री बाबू ने संकल्प लिया था कि “जब तक देश आजाद नहीं हो जायेगा, तब तक चैन से नहीं बैठूँगा”|
श्री कृष्ण सिंह ने महात्मा गांधी की अगुआई में सन् 1920, 1930, 1940 एवं 1942 ई० में संचालित राष्ट्रिय आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई| इन्होंने 10 वर्षों तक जेल की यातनाएं सहीं| 1916 ई० में उन्होंने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, बनारस में गांधी जी का भाषण पहली बार सुना और इतने प्रभावित हुए कि होमरूल आन्दोलन के सक्रिय हो गये| इन्होंने मुंगेर के गाँव-गाँव में घूमकर स्वराज का सन्देश किसानों को सुनकर उन्हें संगठित किया|
1920 ई० में गांधी जी से पहली बार साक्षात्कार के बाद ये वकालत छोड़ कर असहयोग आन्दोलन में सक्रिय हुए| उनके क्रांतिकारी भाषणों से जनता आंदोलित हो उठी| 1920 ई० के कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में श्री बाबू को 260 प्रतिनिधियों में सर्वप्रमुख प्रतिनिधि चुना गया| फलतः उनका कार्यक्षेत्र समस्त बिहार बन गया| 1921 ई० में ये एक साल के लिए गिरफ्तार कर लिए गये|
असहयोग आन्दोलन के स्थगित होने पर ये स्वराज दल से जुड़े| 1923 ई० में खड़गपुर में उन्होंने बिहार के जमींदारों द्वारा किसानों पर किये जाने वाले जुल्म के खिलाफ किसानों को संगठित किया| उस वक्त श्री बाबू किसान सभा के सचिव थे| किसानों की और से सिंहेश्वर चौधरी ने उन्हें ‘बिहार केसरी’ की उपाधि से विभूषित किया|
श्री बाबू के सहृदय, धर्म-निरपेक्ष होने की कई घटनाएँ सामने आती हैं| 1924 ई० में मुंगेर जिला परिषद के चुनाव में उन्हें सर्व सम्मति से अध्यक्ष मान लिया गया| किन्तु उन्होंने अपने अग्रज शाह मुहम्मद जुबैर, जो एक प्रतिष्ठित वकील थे, को अध्यक्ष बना कर खुद उपाध्यक्ष बने| 1930 ई० में जुबैर साहब की मृत्यु के पश्चात् ही इन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार किया|
नमक सत्याग्रह की घटना श्री बाबू के क्रांतिकारी विचार को खुल कर सामने रखती है| उस समय वो अस्वस्थ चल रहे थे, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद भी नहीं चाहते थे कि ऐसी परिस्थिति में श्री बाबू नमक सत्याग्रह में भाग लें| लेकिन श्री बाबू उस हालत में भी मुंगेर से 30-35 मील पैदल चलकर बेगुसराय मंडल के ‘गढ़पुरा’ ग्राम में नमक सत्याग्रह में भाग लेने पहुँचे| वहाँ श्री बाबू ने पुलिस पदाधिकारी द्वारा विरोध जताने पर, खुलते कड़ाहे की मूठ को दोनों हाथों से पकड़ लिया| हाथ में फफोले पड़ गये लेकिन श्री बाबू ने मूठ नहीं छोड़ी|
श्री बाबू वो शख्स रहे हैं जिन्होंने कभी चुनाव में हार नहीं देखी| 20 जुलाई 1937 ई० में ये बिहार के प्रधानमंत्री बने, किन्तु 1939 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को विश्वयुद्ध में झोंकने के खिलाफ आकर इन्होंने पद त्याग दिया| 1940 में पटना में छात्र-सभा में इन्होंने कहा, “न देंगे एक पाई, न देंगे एक भाई”| इसके बाद इन्हें पुनः 9 महीने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया|
आजादी के बाद जब-जब आम चुनाव हुए, श्री बाबू विजयी रहे| विशेष बात यह थी कि ये कभी वोट मांगने अपने कार्यक्षेत्र में नहीं गये| कई विरोधियों के बावजुद एवं स्वयं वोट मांगने न जाने के बावजुद भी ये हर बार विजयी हुए| ये एक निस्वार्थ देश सेवक का अपने कार्य पर विश्वास नहीं तो और क्या है!
श्री बाबू ने बिहार के विकास में कई कार्य किये| निर्विवाद रूप से ये कहा जाता है कि आज विकासोन्मुख बिहार में जो भी प्रगति का प्रबल स्तंभ दिख रहा है, उन सब की परिकल्पना श्री बाबू ने ही दी थी| बिहार में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर उन्होंने नया कीर्तिमान स्थापित किया| जमींदारों के शोषण से मुक्त होकर किसान प्रगति की ओर उन्मुख हुए| शोषण और दमन में पिसती अनुसूचित जनजातियों का उद्धार किया|
श्री बाबू पुस्तक प्रेमी और स्वाध्यायी थे| मुख्यमंत्री आवास में उनका एक निजी पुस्तकालय भी था, जिसको अंतिम समय में उन्होंने ‘मुंगेर सेवा सदन’ को दान कर दिया| श्री बाबू कहते थे, “ दुनिया में दो बड़ी चीजें हैं- एक बोलना, दूसरा लिखना| बोली और लेखन से हम अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाते हैं| तुलसी की बात हम नहीं जानते, यदि उनमें बोलने-लिखने की ताकत नहीं होती| भाव तो पैदा होकर खत्म हो जायेगा| छः हजार वर्ष पहले वेद की ऋचाएँ कही गईं| फिर गीता बोली गई| अब तो उनपर अनेक भाष्य और पुस्तकें बनकर तैयार हो गयी हैं| बोलने और लिखने की ताकत, इन्हीं दोनों से मनुष्य आगे बढ़ता है| आज पुस्तकों से ही संभव है कि कुछ ही वर्षों में लड़के सब जान लेते हैं, जिसे जानने में संसार को हजार वर्ष लगे थे|”
विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में विक्रम और स्वभाव में शीतलता श्री बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं| मैथली शरण गुप्त ने इन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था-
“तुम स्वराज संयुग के योद्धा,
सिंह निहिंसन-वृति-वितृष्ण,
लो, स्वीकार करो हे विजयी,
इन जन का भी- ‘जय श्री कृष्ण’|”
लम्बे समय तक राजनीति में रहते हुए भी श्री बाबू ने कभी अपने परिवारजन को राजनीति में शामिल नहीं होने दिया| वो वंशवाद के विरोधी थे| जब तक वो मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने अपने परिवार से किसी को टिकट नहीं दिया| यहाँ तक की उन्हें ये भी पसंद नहीं था कि उनके बेटे उनके मुख्यमंत्री आवास में रहें|
1961 ई० में श्री बाबू ने अंतिम साँसें लीं| उनके निधन के पश्चात् उनकी तिजोरी खोली गयी| उसमें एक बड़ा लिफाफा था, जिसके अन्दर 3 छोटे लिफाफे थे| एक लिफाफे में 22 हजार रूपये थे, जिसके ऊपर लिखा था कि इसे बिहार प्रांतीय काँग्रेस कमिटी को दे दिया जाये, जिसका मैं आजीवन सदस्य रहा| दूसरे लिफाफे में 2 हजार रूपये थे जो उनके महरूम मित्र, जो उनके मंत्रिमंडल के सदस्य थे, के दूसरे बेटे को समर्पित था, जो उस वक्त आर्थिक कठिनाई में थे| तीसरा लिफाफा, जिसमें 1000 रूपये थे, उनके अत्यंत निकट राजनीतिक शख्सियत के नाम पर उसकी पुत्री की शादी के अवसर पर देने के लिए थे| 40 वर्षों तक राजनैतिक शिखर पर रहने वाले, 17 वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहने वाले इंसान के पास जो भी पूंजी थी, वह किसी को दान में देने के लिए ही थे|
श्री बाबू के जीवन से जुड़ी कई ऐसी कहानियाँ मिलती हैं जो उनके निस्वार्थ देशभक्त होने का पुख्ता सबूत देती हैं| सिर्फ बिहार नहीं, वो देश की बात किया करते थे| ऐसे सच्चे देशभक्त को हमारा नमन| ऐसे सहृदय व्यक्तित्व, स्वतंत्रता के नायक को हम कभी भूल न पाएंगे| इनके जैसे मिसाल बहुत कम लोग स्थापित करते हैं| राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-
“कौन बड़ाई चढ़े श्रृंग पर, अपना एक बोझ लेकर?
कौन बड़ाई पार गये यदि, अपनी एक तरी खेकर?
सुधा गरल वाली यह धरती, उसको शीश झुकाती है
खुद भी चढ़े साथ ले झुककर, गिरतों को बांहें देकर||”