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सीनियर आईपीएस ने कहा, मुंगेर में पुलिस ने नियमों की धज्जियां उड़ाई, लिपि सिंह को दी नसीहत

सोमवार देर रात बिहार के मुंगेर में दुर्गा विसर्जन सामिल हुए लोगों पर पुलिस द्वारा की गयी बर्बरतापूर्ण करवाई कू लेकर लोगों में काफी आक्रोश है| इसको लेकर मुंगेर की एसपी लिपि सिंह पर कई सवाल उठ रहे हैं| सोशल मिडिया पर चल रहे विडियो में साफ दिख रहा है कि पुलिस ने जरुरत से ज्यादा बल प्रयोग किया है और आरोप है कि पुलिस ने बिना चेतावनी के ही लोगों पर फायरिंग कर दी|

पुलिस अपने पक्ष में सफाई दे रही है कि उसने सहजता के साथ काम किया और लोगो पर ही हिंसा का आरोप लगाकर अपने करवाई को जायज बता रही है| मगर इसी बीच एक सीनियर आईपीएस ने ही लिपि सिंह के करवाई को अनुचित बता दिया है|

मुंगेर में हुई झड़प का विडियो शेयर करते हुए कर्नाटक सरकार की गृह सचिव डी रूपा ने कहा कि प्रतिमा विसर्जन के दौरान लोगों को काबू करने के लिए पुलिस कार्रवाई में नियमों की धज्जियां उड़ाई गई हैं।

अपने आधिकारिक ट्विटर से डी रूपा ने ट्वीट किया, ‘सीआरपीसी में अनियंत्रित भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस के न्यूनतम बल का उपयोग और भीड़ के अवरोध पैदा करने पर फोर्स की उचित संख्याबल निर्धारित है।’

उन्होंने आगे लिखा, ‘नियम के अनुसार, गोली चलाने से पहले चेतावनी और फिर आंसू गैस छोड़े जाते हैं। दुख की बात है कि मुंगेर में इसका पालन नहीं हुआ।’

अपना बिहार को मुंगेर से काफी लोगों ने विडियो भेजा और वहां हुए पुलिसिया करवाई की जानकारी थी| हमने इस मुद्दे को सोशल मिडिया पर प्रमुखता से उठाया है और मुख्यधारा के मिडिया का ध्यान इस घटना के तरफ खीचा है|

बता दें कि मुंगेर के दीनदयाल चौक के पास सोमवार देर रात प्रतिमा विसर्जन के दौरान पुलिस और लोगों के बीच झड़प हो गई। विडियो में गोलियों की आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई दे रही है और पुलिस निहत्य लोगों को घेरकर बेहरमी से पीटते हुए दिख रही है| इस घटना में अधिकारिक तौर पर एक व्यक्ति की मौत बताई गयी है मगर स्थानीय लोग 4 लोगों के मरने की बात कह रहे हैं|

हालांकि पुलिस ने सफाई में कहा कि असामाजिक तत्वों की ओर से पथराव और फायरिंग की गई, जिसमें कई पुलिसकर्मी जख्मी हो गए। इसके बाद पुलिस ने हालात को संभालने के लिए कार्रवाई की। पुलिस अभी भी गोली चलने की बात से इनकार कर रही है|

लोगों का यह भी आरोप है कि लिपि सिंह जदयू संसद आरसीपी सिंह की बेटी है, इसलिए सरकार लिपि सिंह के करतूत पर पर्दा डालने में लगी है|

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क्या कन्हैया कुमार महागठबंधन के टिकट पर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेंगे?

पिछले साल का लोकसभा चुनाव याद ही होगा कि कैसे कन्हैया कुमार के बेगूसराय सीट पर उम्मीदवारी को लेकर तेजस्वी ने वामदल के साथ गठबंधन नहीं किया था| यही नहीं, राजद ने उस सीट पर एक मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर कन्हैया को हरवा दिया था| मगर इस साल आने वाले विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार एक मंच पर दिख सकते हैं|

खबर है कि सत्ताधारी पार्टी को विधानसभा चुनाव में पटखनी देने के लिए महागठबंध में वामदलों का सामिल होना तय है| इसको लेकर सीपीआइ के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय और राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह की दूसरे चरण की बातचीत हो चुकी है| राम नरेश पाण्डेय ने कहा है कि कन्हैया कुमार को जरूरत पड़ी, तो विधानसभा चुनाव में उतारा जा सकता है| प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह ने भी कहा कि कम्युनिस्ट दल हमारे स्वाभाविक सहयोगी हैं| हम लोग मतभेद भुला कर मिल कर चुनाव लड़ेंगे|

कन्हैया कुमार सीपीआई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, इसलिए पार्टी के तरफ से उनका स्टार प्रचारक बनना तय है| इसी कारण से कहा जा रहा है कि कन्हैया कुमार और तेजस्वी यादव एक मंच पर दिख सकते हैं| ज्ञात हो कि अब तक तेजस्वी यादव कन्हैया के साथ मंच शेयर करने से परहेज करते आयें हैं| राजनितिक गलियारों में कहा जाता है कि तेजस्वी यादव मानते हैं कि भविष्य में कन्हैया कुमार उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर उभर सकते हैं|

तेजस्वी यादव और कन्हैया, दोनों फेमस नेता हैं| दोनों की प्रतिक्रिया मिडिया में जगह बनाती है| इन दोनों नेता के साथ आने से महागठबंधन को फायदा होना तय है मगर सवाल है कि एक म्यान में दो तलवारें कब तक रहेगी?

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विस्थापन, बाढ़ और कोरोना वायरस से जूझता बिहार, चुनाव की ओर अग्रसर क्यों?

बिहार न जाने कितनी ही समस्याओं से लड़ता रहा है। शायद उन्हीं समस्याओं से पार पाने के लिए बिहार के हर दूसरे घर का युवा या तो सरकारी नौकरी की तैयारी करता है। या फ़िर किसी अच्छे रोज़गार की तलाश में बिहार से बाहर किसी दूसरे राज्य, शहर या महानगर का रुख़ करता है। पलायन करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगो की होती है, जो बिहार से बाहर का रुख़ करके दूसरे शहरों में मज़दूरी करते हैं। ये मज़दूर आपको कश्मीर से कन्याकुमारी, हर क्षेत्र में मिलेंगे जो किसी ना किसी प्रकार से निर्माण कार्यों में अपना योगदान दे रहे होंगे।

साल के तीसरे महीने में कोरोनावायरस के कारण हुई तालाबंदी के बाद शुरू हुए अकस्मात विस्थापन से इन मज़दूरों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। जिन शहरों को इन्होंने अपने हाथों से रचा, उन्हीं शहरों ने उन्हें उस मुश्किल घड़ी में निर्मम होकर सैकड़ों किलोमीटर भूखे-प्यासे पैदल चलने को छोड़ दिया। प्रशासन की आँखें खुलीं तबतक कई मज़दूर अपनी जान गँवा चुके थे। ख़ैर, इस समस्या पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा चुका है।  धीरे-धीरे तालाबंदी को कम किया जा रहा है और कई मज़दूर अपनी आजीविका के लिए वापस शहरों की ओर जा चुके हैं।

बाढ़ और महामारी की मार!

बिहार लगभग हर वर्ष बाढ़ की मार झेलता है। खेतों में तैयार खड़ी फ़सलें बाढ़ की भेंट चढ़ जाती हैं। इस वर्ष भी ऐसा ही हुआ। यानि, हर वर्ष आती बाढ़ से प्रशासन ने कोई सीख नहीं ली और बाढ़ का पानी एक बार फिर से किसानों की मेहनत पर पानी फेरने में कामयाब रहा। लेकिन जो मौसम की मार के आगे हार जाए, वो किसान कहाँ? बर्बाद हुए खेतों से कुछ बची-खुची अपनी मेहनत का हिस्सा ढूँढते किसान फिर से खलिहानों को फसलों से सजाने की जद्दोजहद में लग गए हैं।

ध्यान देने वाली बात है कि, मौसम की मार से बेहाल हुए किसान सरकार से मदद की आस तो रखते हैं, लेकिन इस आस पर निर्भर नहीं होते। क्योंकि वह सत्ता की सच्चाई से कतई अनभिज्ञ नहीं हैं।

और इस बार तो बाढ़ ने अकेले कहर नहीं ढाया है। कोरोनावायरस नामक मुसीबत भी तेज़ी से बिहार में पैर पसार रही है। बिहार 12.85 करोड़ की आबादी वाला राज्य है। कोरोनावायरस से बिहार में अबतक करीब 40,000 लोग संक्रमित हो चुके हैं जिनमें से लगभग 26,000 मरीज़ ठीक हो चुके हैं और 250 के करीब मौतें हो चुकी हैं।

यह स्थिति तब है जब, 10 लाख लोंगों पर करीब 4000 सैम्पल का टेस्ट किया जा रहा है और हर 100 में से 7 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था का चिर-परिचित हाल तो बच्चों में होने वाली बीमारी एन्सेफलाइटिस के वक़्त सामने आ ही जाता है। लेकिन महामारी को देखते हुए कम से कम थोड़ी बहुत दुरुस्ती की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन प्रशासन ने सफलतापूर्वक इस उम्मीद पर भी पानी फेर ही दिया। कोरोना-काल में स्वास्थ्य सुविधाओं के तैयारी की सच्चाई सोशल मीडिया पर घूमते अस्पताल या मेडिकल स्टोर के बाहर पड़े लोगों वीडियो और तसवीरें बयां करने में सक्षम हैं।

जनता त्रस्त और प्रशासन चुनाव पर अटल

इतनी परेशानियों के बीच एक चीज़ है जो स्थगित तो की जा सकती है। लेकिन की नहीं जा रही। वह है लोकतंत्र का महापर्व “चुनाव”। बिहार में इसी वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनावों का आयोजन किया जाना है। राजनीतिक दल चुनाव जीतने की तैयारी भी कर चुके हैं और एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चल रहा है। सत्ता पक्ष (15 वर्ष से सत्तासीन) पूर्व मुख्यमंत्री से राज्य में अस्पताल ना बनवाने का कारण पूछने में भी पीछे नहीं नहीं हट रहा।

ऐसे वक़्त में जब, क्या आम और क्या खास, सभी एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल इलाज की तलाश में चक्कर काट रहे हैं, तब भी प्रशासन के लिए चुनाव महत्वपूर्ण हो चले हैं।

चुनाव करवाने के लिए हर संभव तरीके को तलाशा जा रहा है। स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी खराब क्यों है? इसे ठीक करने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं और अगर प्रयास हो ही रहे हैं, तो राज्य में व्यवस्था सुधारने की जगह और बिगड़ क्यों रही है? इसका जवाब शायद ही मिले। क्योंकि परेशान परिजनों की अस्पताल कर्मियों से मरीज़ को अस्पताल में भर्ती करने की गुहार लगाने वाली वायरल वीडियो, हर दावे की सच्चाई को सामने रख देते हैं।

तो इन सब के मद्देनजर, क्या बिहार को विधानसभा चुनाव की ओर धकेलना सही निर्णय होगा? और अगर चुनाव तय वक़्त पर होने जा ही रहे हैं, तो सत्ता पक्ष किन कार्यों के बदले मतदाताओं से वोट माँगेगा? महामारी के काल में प्राथमिकता जनता के स्वास्थ्य की रक्षा होनी चाहिए। मतदाता अगर खुद ही महामारी से भयभीत हो तो वह कैसे उम्मीदवार का चुनाव करेगा? वरना बिहार के अस्पताल और देशभर के सोशल मीडिया बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की उड़ती धज्जियों से भरमाए हुए हैं। फैसला कुछ आपके और कुछ प्रशासन के हाथ में है। लोगों की ज़िंदगी बचाने के प्रयास या अव्यवस्था के बीच चुनाव!

– खुशबू

Bihar Election 2020: क्या इस साल बिहार में चुनाव नहीं होना चाहिए ?

बिहार बीमार है लेकिन पार्टी सब चुनाव के लिए तैयार है। लोग लाचार हैं, बेरोजगार हैं, परेशान और बीमार हैं लेकिन नेता सब कुर्ता पायजामा पहन के तैयार हैं।

बिहार में राजनीतिक दलों ने चुनावी राजनीति की सरगर्मी बढ़ा दी है, वर्चुअल रैली और कार्यकर्ता संबोधनों की शुरुआत हो चुकी है। अभी जो स्थिति है उसके मद्देनजर बिहार विधानसभा चुनाव के समय को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार एक अध्यादेश पारित करे और इस साल जितने भी राज्यों में चुनाव होने हैं वहां की सरकारों की कार्यावधी को अगले 6 महीने के लिए एक्सटेंड करे।

हालात सामान्य होने पर अगले साल मार्च-अप्रैल में यदि चुनाव होता है तो वह बेहतर होगा। अभी के हालात में लोकतांत्रिक पर्व ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाएगा साथ ही नई सरकार को स्टेबल होने में भी समय लगता है। बिहार में आगे आने वाला समय चमकी बुखार से लेकर संभावित बाढ़ का भी है। बिहार इन तीनों आपदा को कैसे झेलेगा, ये ज्यादा महत्वपूर्ण है। सरकारों, पार्टियों और नेताओं को अभी रोजगार, राशन, कोरोना, चमकी और बाढ़ जैसे चैलेंजेज पर फोकस करना चाहिए ना कि चुनावी राजनीति में। थोड़ी सी चूक अनियंत्रित विपत्ति को न्यौता दे सकती है।

2020 सुरक्षित रहने का साल है, बीमारी से बचने और बिहार को बचाने का साल है। अभी किसी भी चुनावी राजनीति के कारण प्रशासनिक लापरवाही लाखों लोगों के जीवन-मौत का संकट उत्पन्न कर सकती है। अभी बिहार के लिए ज्यादा जरूरी ये है कि लाखों की संख्या में बाहर से आये मजदूरों को बिहार में ही रोजगार देने के प्रयास को प्राथमिकता दी जाए। लाखों लोगों की नौकरी छूट गई है, आमदनी का साधन बंद है और राशन की कमी है। ऐसे वक़्त में जरूरत है की लोगों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाए।

कोरोना एक विपत्ति है, इसे हल्के में लेना बिहार के करोड़ों लोगों की जान को खतरा उत्पन्न कर देगा। अभी अत्यन्त जरूरी है की बिहार के अस्पतालों की हालत सुधारी जाए, डॉक्टरों, दवाइयों, आईसीयू और मेडिकल फैसिलिटी की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।

इस कोरोना काल में दुनिया के बेहतरीन मेडिकल फैसिलिटी वाले देशों की हालत दयनीय हो चुकी है, कॉलेप्स कर चुकी है, ऐसे में प्रति 17000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर वाले प्रदेश बिहार का क्या हाल हो सकता है ये सोचने का विषय है। यदि भविष्य को सोचकर इससे निबटने का उपाय नहीं किया गया तो आगे बिहार में स्थिति भयावह हो सकती है।

बिहार के लिए अभी से आगे का चार महीना आपदा चौमाही ही होता आया है हर साल। जून-जुलाई मुजफ्फरपुर आसपास के जिलों में चमकी और मध्य बिहार में तेज बुखार का समय रहता है। पिछले साल इन्हीं महीनों में सैकड़ों बच्चे इन बीमारियों से मर गए थे। अगस्त, सितंबर बाढ़ का सीजन है। पिछले साल भी पहले मिथिला और फिर बाद में पटना बाढ़ से अरबों रुपए और सैकड़ों जानों की तबाही हुई थी। यदि बाढ़ नहीं भी आता है तो सुखाड़ आएगा और किसानों की फसल ना हो पाने के बाद खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो सकता है। इस सब से बचने के लिए सरकार को अभी ही प्रयास चालू करना पड़ेगा, तैयारी करनी पड़ेगी।

कोरोना के बाद ऐसे ही ढहे हुए सिस्टम में ये सब कैसे हो पाएगा ये स्वयं में एक चैलेंज है। चुनावी कार्यक्रम ये सब डिस्टर्ब कर देगा और असीमित संकट का कारण बनेगा।

इस सबके अलावा अभी जो सिचुएशन है उसमें ना चुनाव की ठीक से तैयारी हो पाएगी, ना रैली, ना प्रचार, ना संवाद और ना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का समुचित सम्मूलन। इस स्थिति में 10 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले राज्य बिहार में 8000 से अधिक पंचायत और 243 विधानसभाओं के 72000 से अधिक बूथों पर चुनावी प्रक्रिया सही से निष्पादन करवा पाना लगभग असम्भव है।

इसलिए बेहद जरूरी है अभी आगामी 6 महीना किसी भी चुनावी कार्यक्रम को एक्सटेंड किया जाए, इमरजेंसी सिचुएशन के तहत सरकार की कार्यवधी बढ़ाई जाए और चुनाव को अगले साल मार्च तक के लिए टाला जाए। एक बार ये कोरोना संकट टल जाए फिर उसके बाद ही चुनाव करवाना सबसे सही रास्ता होगा।

-Aditya Mohan

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Bihar Election 2020: प्रशांत किशोर करने जा रहे हैं ‘बात बिहार की’

प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने मंगलवार को पटना में अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर कुछ संकेत दिये। जदयू से 29 जनवरी को निकाले जाने के बाद चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पहली बार मंगलवार को पटना पहुंचे। उन्होंने मीडिया से बात करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर खुलकर निशाना साधा।

उन्होंने कहा- नीतीश से वैचारिक मतभेद हैं। हालांकि, प्रशांत ने यह भी कहा कि बिहार को सशक्त नेता की जरूरत है, पिछलग्गू की नहीं।

उन्होंने बताया कि वे 20 फरवरी से ‘बात बिहार की (Bat Bihar Ki)‘ कार्यक्रम शुरू करेंगे। वे इसके जरिए ऐसे युवा लोगों को जोड़ेंगे, जो बिहार को आगे ले जाएं। जिस दिन एक करोड़ बिहारी युवा कनेक्ट हो गए उस दिन बताएंगे कि राजनीतिक पार्टी लॉंच की जाए या नहीं।

राष्ट्रीय फलक पर नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के अभ्युदय के साथ चुनावी रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर के नाम से सियासत की दुनिया 2014 में रूबरू हुई थी। ‘अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ जैसे नारे गढ़ने वाले प्रशांत किशोर पिछले छह साल में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सशक्त पहचान बना चुके हैं। पीके नाम से प्रसिद्ध प्रशांत किशोर की मदद से अब तक कई राजनीतिक दल सत्ता की सीढ़ी चढ़ चुके हैं। इसके साथ पीके ने बिहार में जनता दल यूनाइटेड को अपनी सेवाएं दीं। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस को मिलाकर सरकार की राह बनाई। बदले में जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए गए। फिर जदयू में खटपट बढ़ी तो पीके ने नीतीश से अपनी राह अलग कर ली।

बकौल पीके उन्होंने देखा कि बिहार में बदलाव तो हो रहा है, लेकिन इसके आगे क्या होना चाहिए, यह कोई नहीं जानता है। ऐसे ही कई विषयों पर सोचने के बाद उन्होंने तय किया कि अब सारथी बनने से काम नहीं चलेगा। जितने भी वर्ष लगें बिहार को बदलने के लिए वो तैयार हैं।

बिहार के बक्सर जिले से हैं प्रशांत

साल 1977 में प्रशांत किशोर का जन्म बिहार के बक्सर जिले में हुआ था। उनकी मां उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की हैं वहीं पिता बिहार सरकार में डॉक्टर हैं। उनकी पत्नी का नाम जाह्नवी दास है। जो असम के गुवाहाटी की एक डॉक्टर हैं।

प्रशांत किशोर ने कहा कि बिहार में वह अब किसी के चुनाव प्रचार अभियान के संचालक नहीं बनेंगे बल्कि खुद एक ऐसा राजनीतिक प्रतिष्ठान तैयार करेंगे, जो बिहार के युवाओं और आम लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप हो।

उन्होंने कहा कि बिहार छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। चुनाव लड़ाना-जिताना मैं रोज करता हूं। बात बिहार की कार्यक्रम शुरू करूंगा। इसके तहत 8 हजार से ज्यादा गांवों से लोगों को चुना जाएगा, जो अगले 10 साल में बिहार को अग्रणी 10 राज्यों में शुमार करना चाहते हों। बिहार को वो चलाएगा, जिसके पास सपना हो। इसमें शामिल होना चाहें, तो उनका स्वागत है। प्रशांत किशोर ने ये भी कहा कि नीतीश कुमार से उनके वैचारिक मतभेद हैं|

उन्होंने कहा, “जो गांधी की विचारधारा का समर्थन करते हैं वो गोडसे के समर्थकों के साथ खड़े नहीं हो सकते| बिहार आने का अपना एजेंडा बताते हुए प्रशांत किशोर ने कहा, “मुझे ऐसे लड़को को तैयार करना है जो इस बात में यक़ीन रखते हैं कि बिहार दस साल में देश के अग्रणी राज्यों में कैसे खड़ा हो| इस विचारधारा से जो सहमत हैं, जो अपने जीवन के दो चार साल इस उद्देश्य में लगाना चाहते हों, मैं ऐसे युवाओं को जोड़ने आया हूं| मेरा मक़सद बिहार में निचले स्तर पर राजनीतिक चीज़ों को सुदृढ़ करना है. बिहार सिर्फ प्रदेश ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनैतिक बदलाव की प्रयोगशाला रही है। इसी कड़ी में नई कोशिश की तैयारी परवान चढ़ चुकी है।

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Delhi Eletion: दिल्ली में बिहारियों ने भी बोला, जमे रहो केजरीवाल

दिल्ली में विधानसभा चुनाव था मगर चर्चा यूपी-बिहार का भी जोड़ो पर था| कारण था कि दिल्ली के लगभग 15 सीटों पूर्वांचल बहुल है जबकि आधी से ज्यादा सीटों पर पूर्वांचली वोटर जीत-हार तय करते हैं| आम आदमी पार्टी (AAP), भारतीय जनता पार्टी (BJP) से लेकर कांग्रेस पार्टी, सबकी नजर पूर्वांचली वोटर्स पर थी| पूर्वांचली को लुभाने के लिए बीजेपी ने जहाँ प्रसिद्ध भोजपुरी गायक मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया हुआ है, तो कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पहले कृति आज़ाद (Kriti Azad) को प्रचार समीति का प्रमुख बनाया था| वहीं आम आदमी पार्टी को अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं पर भरोसा था|

पूर्वांचलियों ने लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) के पक्ष में वोट किया था| इसलिए बीजेपी को विधानसभा में भी उनसे बहुत उम्मीदें थी| मगर 11 फरवरी को रिजल्ट उसके ठीक उलट आया| बिहार और यूपी के लोगों ने बीजेपी के हिन्दू राष्ट्रवाद को नकार दिया और केजरीवाल(Arvind Kejriwal) के विकाश को अपना पूरा समर्थन दिया| यहाँ तक कि कांग्रेस और बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दलों के साथ गठबंधन में लड़ रही बिहार की तीन पार्टियों का हाथ भी खाली रहा|

जहां बीजेपी ने दो सीटें जेडीयू और एक सीट एलजेपी को दी थी वहीं कांग्रेस ने आरजेडी के लिए चार सीटें छोड़ी थी| लेकिन लगभग सभी पूर्वांचली सीटों पर आप का परचम लहराया| सबसे बुरा हाल आरजेडी का रहा जिसके चारों उम्मीदवारों की जमानत तो जब्त हुई ही, तीन को नोटा से भी कम वोट मिले|

पिछले कुछ चुनाव से लगातार इंडिया टुडे एग्जिट पोल (India Today Exit Poll) लगभग सही हो रहा है| उनके सर्वे के अनुसार इस विधानसभा चुनाव में कम्युनिटी वाइज वोट शेयर को देखा जाए तो लोगों ने आम आदमी पार्टी पर भरोसा जताया है| AAP के साथ दिल्लीवासी (55 फीसदी), पूर्वांचली (55 फीसदी), हरियाणवी (54 फीसदी), राजस्थानी (61) और अन्य (55 फीसदी) रहे| यानी इस चुनावी नतीजे से पता चलता है कि 2015 की तरह इस बार भी पूर्वांचली वोटर्स ने आम आदमी पार्टी को ही वोट दिया है|

दिल्ली में चुनाव प्रचार के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा. Image: Subhash Barolia

पूर्वांचली के वोटिंग पैटर्न को लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद एक दिलचस्प आंकड़ा सामने आया था| 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सीएसडीएस ने पूर्वांचली वोटर्स पर एक सर्वे करवाया| इस सर्वे में जिन 56 फीसदी पूर्वांचली ने लोकसभा के चुनाव में बीजेपी को वोट दिया था, उनमें से 24 फीसदी पूर्वांचली ने कहा कि वो राज्य विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को वोट करेंगे| मतलब बीजेपी के आधे वोटर्स पहले से ही मन बना चुके थे कि वो 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को वोट करेंगे| नतीजों से ऐसा लग भी रहा है|

धर्म के राजनीति को नकार, विकास की राजनीति को चुनकर दिया एक बड़ा सन्देश 

एक बड़ी बात ये भी रही है कि दिल्ली में पूर्वांचल के ज्यादातर वोटर्स वर्किंग क्लास से आते हैं| बहुत सारे लोग मेहनत मजदूरी करने वाले हैं| इन लोगों के लिए केजरीवाल सरकार की कल्याणकारी योजनाओं ने काम किया| इस वजह से भी एक तरफ वो मोदी के चेहरे को केंद्र में देखना चाहते थे तो राज्य में उन्हें केजरीवाल जैसा सीएम ही चाहिए था| दिल्ली का मिडिल क्लास पूर्वांचली वोटर्स भी आम आदमी पार्टी का समर्थक है- वजह है बिजली और पानी पर मिलने वाली छूट| सरकारी स्कूलों की बेहतर हालत और स्वास्थ्य सेवाओं की सुधरती स्थिति|

दिल्ली का चुनाव में बिहारियों या पूर्वांचलियों का वोट पैटर्न समझाना इसलिए भी जरुरी है कि इसी साल बिहार में भी विधानसभा चुनाव है| बिहार में भी भाजपा एक बड़ी पार्टी है| दिल्ली में उसके कट्टर हिंदूवादी प्रयोग के असफल हो जाने के बाद उसको फिर से अपनी रणनीति पर सोचना पड़ेगा| एक तरफ बीजेपी के कमजोर होने से उसके सहयोगी दल जदयू (Janta Dal United) खुश होगी, क्योकि अब वह बीजेपी से ज्यादा सीट लेने का दवाब बना सकेगी| वही दुसरे तरफ दिल्ली में शिक्षा के चुनावी मुद्दा बन जाने से नीतीश थोड़ा मुश्किल में होंगे, क्योंकि नीतीश कुमार के 15 साल के राज में शिक्षा उनकी सबसे कमजोर पक्ष है|

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लोकसभा चुनाव: मिनी चित्‍तौड़गढ़ के नाम से प्रसिद्ध बिहार के औरंगाबाद सीट के नाम दर्ज है यह रिकॉर्ड

मिनी चित्‍तौड़गढ़ के नाम से प्रसिद्ध औरंगाबाद जिला दक्षिणी बिहार में जीटी रोड पर स्थित है| देव सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध यह जिला मगध संस्कृति का केंद्र माना जाता है और यहां की प्रमुख बोली मगही है|

लोकसभा चुनाव 2019 के पहले चरण में बिहार के चार जिले में मतदान होने जा रहा है, उसमें से एक जिला औरंगाबाद है| इस बार के चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा गठबंधन और महागठबंधन के उम्मीदवारों में है| भाजपा के तरफ से वर्तमान सांसद सुशील कुमार सिंह एक बार फिर मैदान में है तो महागठबंधन ने हम के उपेन्द्र वर्मा को उतारा है| गौर करने वाला बात यह है कि कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले इस सीट पर कांग्रेस अपना उम्मीदवार नहीं उतार रही है|

2014 में यहां से बीजेपी ने ही जीत का परचम लहराया था, लेकिन उससे पहले के इतिहास पर नजर डालें तो बीजेपी यहां कभी नहीं जीती। इसलिए 2014 में जीती अपनी इस सीट को 2019 में भी बचाए रखना बीजेपी के लिए कड़ी चुनौती होगी।

राजपूत बहुल औरंगाबाद में 1952 के पहले चुनाव से अबतक यहां से सिर्फ राजपूत उम्मीदवार ही चुनाव जीते हैं| बिहार विभूति और राज्य के पहले उप मुख्यमंत्री डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह औरंगाबाद से आते हैं| उनके परिवार का औरंगाबाद लोकसभा सीट पर दबदबा माना जाता है| निखिल कुमार और उनकी पत्नी श्यामा सिंह भी कांग्रेस की ओर से यहां से सांसद चुने गए|

औरंगाबाद सीट कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। सत्येंद्र नारायण सिन्हा सबसे अधिक सात बार इस क्षेत्र से सांसद रहे। लेकिन 1989 के चुनाव में वीपी सिंह की लहर में जनता दल ने यहां सेंध लगाई। इस चुनाव में जनता दल के रामनरेश सिंह उर्फ लूटन सिंह ने कांग्रेस की श्यामा सिंह को मात दी थी। अभी वर्तमान में लूटन सिंह के पुत्र सुशील सिंह यहाँ भाजपा के टिकेट पर सांसद हैं|

औरंगाबाद की खास बातें

औरंगाबाद बिहार का महत्‍वपूर्ण लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र है। इस लोकसभा के अंतर्गत 6 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। प्राचीन काल में औरंगाबाद, मगध राज्‍य का हिस्‍स था। इस क्षेत्र के उमगा में एक वैष्णव मंदिर है। इसे उमगा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां सूर्य देव मंदिर धार्मिक रूप से महत्‍वपूर्ण है। औरंगबाद में विद्युत उत्‍पादन के लिए एनटीपीसी का बड़ा प्‍लांट भी है। यहां सीमेंट उत्पादन, कालीन और कंबल बनाने के कारखाने भी हैं। यह क्षेत्र प्रदेश की राजधानी पटना से करीब 148 किलोमीटर दूर है, जबकि राष्‍ट्रीय राजधानी नई दिल्‍ली से इस क्षेत्र की दूरी 993 किलोमीटर है।

औरंगाबाद महान मगध साम्राज्य का केंद्र रहा है| बिम्बिसार, अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक जैसे शासकों ने यहां राज किया| मध्यकाल में शेरशाह सूरी के काल में रोहतास सरकार के नाम से इस इलाके का सामरिक महत्व फिर से स्थापित हुआ| मुगल शासन में यहां अफगान शासक टोडरमल के कारण अफगान संस्कृति का भी प्रभाव देखा जाता है|

दो परिवार रहे आमने-सामने 

लोकसभा चुनाव में सत्येंद्र नारायण सिन्हा और रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू का परिवार आमने-सामने रहा है। वर्ष 1952 से कांग्रेस के सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने औरंगाबाद की सीट पर कब्जा जमाए रखा। इस दौरान उनके विधानसभा में जाने के बाद रमेश बाबू सांसद बने। 1962 में रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह के परिवार की एक सदस्या महारानी ललिता राजलक्ष्मी सांसद बनीं। इसके बाद 1967 में मुंद्रिका सिंह सांसद बने। पुन: वर्ष 1971 से 1984 तक चार बार लगातार सत्येंद्र बाबू इस सीट पर जीत दर्ज करते रहे। वर्ष 1989 में रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू जनता पार्टी के टिकट पर यहां से चुनाव में उतरे और उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी श्यामा सिंह को पराजित किया। दूसरी बार 1991 में लूटन सिंह ने फिर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और इस बार उन्होंने सत्येंद्र नारायण सिन्हा को पराजित कर दिया। वर्ष 1996 में यहां चुनाव हुए, जिसमें वीरेंद्र कुमार सिंह ने सत्येंद्र नारायण सिन्हा को हरा दिया।

क्या कहता है राजनीति का गणित ?

औरंगाबाद लोकसभा सीट पर मतदाताओं की कुल संख्या 1,376,323 है जिनमें से पुरुष मतदाता 738,617 और महिला मतदाता 637,706 हैं| औरगाबाद सीट के लिए होनेवाले चुनाव में राजपूत वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। दूसरे स्थान पर यादव वोटरों की संख्या 10 प्रतिशत है। मुस्लिम वोटर 8.5 प्रतिशत,  कुशवाहा 8.5 प्रतिशत और भूमिहार वोटरों की संख्या 6.8 प्रतिशत है। एससी और महादलित वोटरों की संख्या इस लोकसभा क्षेत्र में 19 प्रतिशत है। इस क्षेत्र में जो प्रत्याशी वोटरों को अपने पाले में लाने में सफल होते हैं, उन्हीं के सिर पर ताज सुशोभित होता है।

बना रहेगा चित्तौड़गढ़ का रिकॉर्ड?

 औरंगाबाद लोकसभा सीट के साथ एक रिकॉर्ड जुड़ा हुआ है जो 1952 से लेकर अब तक बरकरार है। 1952 से अबतक यहां सिर्फ राजपूत जाति के उम्मीदवार ही विजयी हो सके हैं। इसलिए इस लोकसभा क्षेत्र को मिनी चितौड़गढ़ के नाम से भी जाना जाता है। यहां के पहले सांसद सत्येंद्र सिन्हा राजपूत जाति से थे, जो बाद में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने थे। इसका एक कारण यह भी था कि यहाँ दोनों प्रमुख उम्मीदवार राजपूत ही होते थे मगर इसबार बात वोह बात नहीं है| हम ने महागठबंधन समर्थन में एक कुशवाहा उम्मीदवार उतारा है| देखना दिलचस्प होगा कि इतिहास फिर दोहराया जायेगा या बदलेगा|

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हम सत्ता में आते ही पटना यूनिवर्सिटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देंगे: राहुल गाँधी

आज कांग्रेस पार्टी ने पटना के गाँधी मैदान में 30 साल बाद अकेले रैली की है| कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘जन आकांक्षा रैली’ में अपनी पूरी शक्ति झोक दी| रैली में राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव समेत महागठबंधन के अन्य नेता शामिल हुए|

रैली को संबोधित करते हुए राहुल गाँधी ने मोदी सरकार पर कई हमले तो किये ही, साथ ही सरकार में आने पर बिहार के लिए कई वादें भी किये|

राहुल गांधी ने कहा कि मैं झूठा वादा नहीं करता| आज पटना यूनिवर्सिटी की हालत खराब है| हम सत्ता में आते ही पटना यूनिवर्सिटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देंगे|

उन्होंने कहा कि पहले बिहार शिक्षा का केंद्र होता था, आज बेरोजगारी का केंद्र है| आप गुजरात जाते हो, महाराष्ट्र जाते हो तो बीजेपी के लोग आपको मार कर भगाते हैं| हम बिहार को फिर गौरवशाली बनाएंगे|

कांग्रेस नेता ने कहा कि पहले हरित क्रांति पंजाब-हरियाणा से शुरू हुई थी, अब मैं चाहता हूं कि अगली हरित क्रांति राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में हो और इसमें बिहार का नाम भी शामिल हो| मैंने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को कह दिया है कि किसान के लिए फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाइए| अगर आप हमें मौका दोगे तो हम बिहार के किसानों को भी समृद्ध बनाएंगे|

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राहुल गांधी बनेंगे PM

इस रैली में राहुल गाँधी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनने की भी बात हुई| कांग्रेस के नेता के साथ मंच पर मौजूद महागठबंधन के नेताओं ने भी इसके पक्ष में अपना सुर मिलाते हुए दिखे| जीतनराम मांझी के साथ आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने भी ने भी कहा कि राहुल में प्रधानमंत्री बनने लायक सभी काबलियत है|

कांग्रेस का दावा- रैली में पांच लाख लोग जुटे

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राजीव गांधी ने 1989 में गांधी मैदान में रैली की थी। गांधी मैदान को भर पाना किसी भी पार्टी के लिए चुनौती होती है। बिहार कांग्रेस के नेता पिछले एक माह से सक्रिय रूप से रैली की तैयारी में जुटे थे। पार्टी नेताओं का दावा है कि गांधी मैदान में पांच लाख लोग पहुंचे थे। हालाँकि गाँधी मैदान का कई हिस्सा खाली ही दिख रहा था|

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उपेन्द्र कुशवाहा की डिमांड से एनडीए में आ सकता है भूचाल, कट सकता है नीतीश कुमार का पत्ता

चुनाव नजदीक आते ही बिहार की राजनीति दिलचस्प होती जा रही है| सीटों के बटवारे के लिए एनडीए में घमासान मचा हुआ है| बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बिहार आकर बंद कमरा में नीतीश कुमार से समझौता किया ही था कि एनडीए के दुसरे घटक दल रालोसपा ने अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर कर बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए की मुसीबत फिर से बढ़ा दी|

उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी ने एनडीए में जदयू से अधिक सीटों की डिमांड रख दी है| यही नहीं, आरएलएस ने नीतीश कुमार को नहीं बल्कि उपेन्द्र कुशवाहा को 2020 विधानसभा चुनाव के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा भी घोषित करने की मांग रख दी है|

रालोसपा के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा कि पिछले 4 सालों में उनकी पार्टी का कद काफी बढ़ा है ऐसे में  उन्हें जनता दल युनाइटेड(जदयू) से ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए।

रालोसपा के उपाध्यक्ष और प्रवक्ता जितेंद्र नाथ ने एक अंग्रेजी अखबार को बताया कि जदयू और भाजपा के बीच सीट शेयरिंग को लेकर काफी बातें हुई है। उपेंद्र कुशवाहा बिहार की राजनीति के भविष्य हैं। बिहार में एनडीए का चेहरा बनाना चाहिए। जितेंद्र नाथ ने कहा कि जदयू ने पिछली बार लोकसभा में दो सीटें जीती थी जबकि रालोसपा ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे जीता भी।

गौरतलब है कि रालोसपा और आरजेडी नेतृत्व के बीच दो बैठकें हुई हैं। राजद के एक सूत्र की मानें तो रालोसपा ने छह से सात सीटों की मांग की थी। भाजपा की तुलना में राजद निश्चित रूप से रालोसपा को ज्यादा सीटों की पेशकश करेगी।