#Biharikranitakari: #10 बिहार के इस मुख्यमंत्री ने देश के आजादी के लिए 26 महीने गुजारे थे जेल में

कर्पूरी ठाकुर ने सदियों से दबे-कुचले वर्गो में न केवल राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगायी, बल्कि उन्हें ताकत भी दी. एक गरीब परिवार में जन्म, संघर्षपूर्ण जीवन और फिर मुख्यमंत्री की कुरसी तक की राजनीतिक यात्रा अनुकरणीय है. आज के दौर में जब राजनीतिक मूल्य, निष्ठा, ईमानदारी एवं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है वंही कर्पूरी ठाकुर को आज भी जननायक के रूप में हर वर्ग के लोगों के दिलों में राज करते हैं।

यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल और हर वर्ग के बीच उन्हें शिद्दत से याद किया जाता है. उनका सादगी भरा जीवन, कमजोर तबकों के लिए चिंता और उसूल पर आधारित राजनीतिक ईमानदारी पथ-प्रदर्शक है.

कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर के एक गाँव पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में हुआ.
जननायक कर्पूरी ठाकुर समाजवादी राजनीति के उज्जवल नक्षत्र थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उनका उल्लेखनीय योगदान था. सन 1942 की अगस्त क्रांति में समाजवादी नेताओं की अग्रणी भूमिका थी. बंबई के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने आठ अगस्त 1942 को ‘अंगरेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और : करो या मरो (डू और डाई)’ का संकल्प लिया. अगले दिन नौ अगस्त को महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो गये. इसके बाद उस अगस्त क्रांति की कमान समाजवादियों ने संभाली. यही समय था जब कर्पूरी जी सीएम कॉलेज दरभंगा में बीए की पढ़ाई कर रहे थे. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए छात्रों को संगठित किया. दरभंगा के सिंघवारा में उन्होंने छात्रों का नेतृत्व करते हुए आंदोलन का सिंहनाद किया. जयप्रकाश नारायण के हजारीबाग जेल से भाग कर आने के बाद ‘आजाद दस्ता’ का गठन हुआ जो ‘गुरिल्ला संघर्ष’ का हिमायती था.

अंगरेजों पर धावा बोलना और फिर छिप जाना यही आजाद दस्ते की रणनीति बनी. कर्पूरी ठाकुर जी इस ‘आजाद दस्ता’ के सदस्य बने. इन पर छात्रों और युवकों को संगठित करने की जिम्मेवारी थी. लेकिन परिवार की आर्थिक कठिनाइयों के कारण इन्होंने शिक्षक की नौकरी कर ली और मिडिल स्कूल के हेडमास्टर बन गये, परंतु अंगरेजों की खुफिया पुलिस से ये बच नहीं पाये. 23 अक्टूबर 1942 को दो बजे रात में पितौंझिया स्कूल से सोये हुए में पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. इनके साथ वशिष्ठ नारायण सिंह और रामबुझावन सिंह भी गिरफ्तार हुए. इन तीनों को दरभंगा जेल भेज दिया गया.

बाद में दरभंगा से इन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया. कर्पूरी जी ने जेल में भूख हड़ताल शुरू की. यह भूख हड़ताल अट्ठाइस दिनों तक चली. ठाकुर जी की हालत बिगड़ गयी. चारों तरफ हड़कंप मच गया. 28वें दिन जेल-प्रशासन ने कैदियों की सभी मांगे मानते हुए इनका अनशन तुड़वाया. नवंबर 1945 ई में वे जेल से रिहा हुए. इस लंबी अवधि में जेल के भीतर उनकी दिनचर्या अन्य राजनैतिक बंदियों के लिए एक मिसाल थी.

जेल से रिहा होने के बाद उनका समाजवादी राजनीतिक जीवन शुरू हुआ. वैसे जेल जीवन के दरम्यान ही वे कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे-आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा से. किंतु मार्च 1946 ई से उन्होंने सक्रिय राजनीतिक दायित्व संभाला. समाजवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ गरीबों, दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक चेतना पैदा करना उनके जीवन का मकसद बन गया.

उन्हें दरभंगा जिला सोशलिस्ट पार्टी का मंत्री बनाया गया, जिसकी जिम्मेदारी उन्होंने सन 1947 ई तक संभाली. इस दरम्यान उन्होंने इलिमास नगर और विक्रमपट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकाश्त-आंदोलन का नेतृत्व किया और 60 बीघे जमीन गरीबों में बंटवाई. इस सफलता के बाद उन्हें राज्य स्तर पर काम करने का अवसर मिला. सन 1947 ई में पं रामनंदन मिश्र के नेतृत्व में भारतीय किसान पंचायत की स्थापना हुई. ठाकुर जी को इसमें पंचायत सचिव और बाद में प्रधान सचिव बनाया गया.

सन 1948 ई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से अलग सोशलिस्ट पार्टी को एक स्वतंत्र अस्तित्व मिला. सन 1948 ई से 1953 ई तक ठाकुर जी सोशलिस्ट पार्टी के राज्य सचिव रहे. सन 1952 ई में प्रथम आम चुनाव हुआ उसमें वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए.

यहीं से उनका संसदीय राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ. सन 1988 ई में मृत्युर्पयत वे बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित होते रहे. सन 1977 के लोकसभा चुनाव में वे सतस्तीपुर संसदीय क्षेत्र से एक बार लोकसभा के लिए भी निर्वाचित हुए. किंतु कुछ महीनों बाद बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ और जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. उस समय विधायक दल के नेतृत्व का प्रश्न खड़ा हुआ और सबकी नजरें ठाकुर जी की ओर उठी. विधायकों के आग्रह पर ठाकुरजी नेता पद का चुनाव लड़े और
विजयी हुए. फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

कर्पूरी ठाकुरजी एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन इससे उनके रहन-सहन और बात-विचार में कोई अंतर नहीं आया. यह गांधी-युग का प्रभाव था.
18 फ़रवरी 1988 को जननायक इस संसार से विदा हो गए।

#BihariKranitakari : #8 अपनी क्रांतिकारी रचनाओं के कारण 8 वर्ष जेल में बिताएं थे रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वे उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है। बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।”
23 दिसंबर 1899 को मुजफ्फरपुर में जन्मे भारत के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और नाटककार रामवृक्ष बेनीपुरी एक महान विचारक, चिन्तक, मनन करने वाले क्रान्तिकारी, साहित्यकार, पत्रकार और संपादक के रूप में भी अविस्मणीय हैं। बेनीपुरी जी हिन्दी साहित्य के ‘शुक्लोत्तर युग’ के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ये एक सच्चे देश भक्त और क्रांतिकारी भी थे। इन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ में आठ वर्ष जेल में बिताये। हिन्दी साहित्य के पत्रकार होने के साथ ही इन्होंने कई समाचार पत्रों, जैसे- ‘युवक’ (1929) आदि भी निकाले। इसके अलावा कई राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम संबंधी कार्यों में भी संलग्न रहे।
इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव की पाठशाला में ही पाई थी। बाद में वे आगे की शिक्षा के लिए मुज़फ़्फ़रपुर के कॉलेज में भर्ती हो गए।

स्वतंत्रता संग्राम

इसी समय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। ऐसे में बेनीपुरीजी ने भी कॉलेज त्याग दिया और निरंतर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े रहे। इन्होंने अनेक बार जेल की सज़ा भी भोगी। ये अपने जीवन के लगभग आठ वर्ष जेल में रहे। समाजवादी आन्दोलन से रामवृक्ष बेनीपुरी का निकट का सम्बन्ध था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय जयप्रकाश नारायण के हज़ारीबाग़ जेल से भागने में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनका साथ दिया और उनके निकट सहयोगी रहे।

रचनाएँ
रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिसके कारण आजीवन वह चैन की साँस न ले सके। उनके फुटकर लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण बार-बार उन्हें कारावास भोगना पड़ता। सन 1942 में ‘अगस्त क्रांति आंदोलन’ के कारण उन्हें हज़ारीबाग़ जेल में रहना पड़ा था। जेलवास में भी वह शान्त नहीं बैठे सकते थे। वे वहाँ जेल में भी आग भड़काने वाली रचनायें लिखते। जब भी वे जेल से बाहर आते, उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अवश्य होती थीं, जो आज साहित्य की अमूल्य निधि बन गई हैं। उनकी अधिकतर रचनाएँ जेल प्रवास के दौरान लिखी गईं।

उपन्यास – पतितों के देश में, आम्रपाली
कहानी संग्रह – माटी की मूरतें
निबंध – चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें
नाटक – सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा
संपादन – विद्यापति की पदावली
साहित्यकारों के प्रति सम्मान
रामवृक्ष बेनीपुरी की अनेक रचनाएँ, जो यश कलगी के समान हैं, उनमें ‘जय प्रकाश’, ‘नेत्रदान’, ‘सीता की माँ’, ‘विजेता’, ‘मील के पत्थर’, ‘गेहूँ और गुलाब’ आदि शामिल है। ‘शेक्सपीयर के गाँव में’ और ‘नींव की ईंट’, इन लेखों में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के प्रति जो आदर भाव उन्हें देखने को मिला, वह उन्हें सुखद भी लगा और दु:खद भी। शेक्सपियर के गाँव के मकान को कितनी संभाल, रक्षण-सजावट के साथ संभाला गया है। उनकी कृतियों की मूर्तियाँ बनाकर वहाँ रखी गई हैं, यह सब देख कर वे प्रसन्न हुए थे। पर दु:खी इस बात से हुए कि हमारे देश में सरकार भूषण, बिहारी, सूरदास और जायसी आदि महान साहित्यकारों के जन्म स्थल की सुरक्षा या उन्हें स्मारक का रूप देने का भी प्रयास नहीं करती। उनके मन में अपने प्राचीन महान साहित्यकारों के प्रति अति गहन आदर भाव था। इसी प्रकार ‘नींव की ईंट’ में भाव था कि जो लोग इमारत बनाने में तन-मन कुर्बान करते हैं, वे अंधकार में विलीन हो जाते हैं। बाहर रहने वाले गुम्बद बनते हैं और स्वर्ण पत्र से सजाये जाते हैं। चोटी पर चढ़ने वाली ईंट कभी नींव की ईंट को याद नहीं करती।

ख्याति
पत्रकार और साहित्यकार के रूप में बेनीपुरीजी ने विशेष ख्याति अर्जित की थी। उन्होंने विभिन्न समयों में लगभग एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। उनकी लेखनी बड़ी निर्भीक थी। उन्होंने इस कथन को अमान्य सिद्ध कर दिया था कि अच्छा पत्रकार अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता। उनका विपुल साहित्य, शैली, भाषा और विचारों की दृष्टि से बड़ा ही प्रभावकारी रहा है। उपन्यास, जीवनियाँ, कहानी संग्रह, संस्मरण आदि विधाओं की लगभग 80 पुस्तकों की उन्होंने रचना की थी। इनमें ‘माटी की मूरतें’ अपने जीवंत रेखाचित्रों के लिए आज भी याद की जाती हैं।

विधान सभा सदस्य
वृक्ष बेनीपुरी 1957 में बिहार विधान सभा के सदस्य भी चुने गए थे। सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श पर चलते हुए उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में बहुत काम किया था। वे भारतीयता के सच्चे अनुयायी थे और सामाजिक भेदभावों पर विश्वास नहीं करते थे।

सम्मान

वर्ष 1999 में ‘भारतीय डाक सेवा’ द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्रभाषा अपनाने की अर्धशती वर्ष में डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा ‘वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार’ दिया जाता है।

7 सितंबर 1968 को महान क्रांतिकारी देशभक्त, साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी सदैव के लिए अमर हो गए।

#BihariKrantikari : दिनकर की रचनाओं से घबराती थी अंग्रेजी हुकूमत

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वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे. ऐसा बहुत ही कम हिन्दी कविताओं में देखने को मिलता है. कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ को राष्ट्रकवि का दर्जा मिलता है मगर एक कवि राष्ट्रकवि भी हो और जनकवि, यह इज्जत बहुत ही कम कवियों को नसीब हो पाती है. रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं  जिनकी कविताएं किसी अनपढ़ किसान को भी उतना ही पसंद है जितना कि उन पर रिसर्च करने वाले स्कॉलर को.
दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी. समय भले ही बदल हो लेकिन परिस्थितियां अभी भी वैसी ही हैं.
आजादी से पहले और उसके बाद सालों तक जिनकी कविता गरीबों-आमजनों की आवाज बनकर गूंजती रही. वही राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के मौजूदा बेगुसराय (तब मुंगेर) जिले के सिमरिया घाट में हुआ था.

वर्ष 1935 में रचित रेणुका और वर्ष 1938 में हुंकार जैसी दिनकर  की रचनाओं में वो ताकत थी जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी तभी तो अंग्रेजी सरकार दिनकर के खिलाफ फाइलें तैयार करने लगी थी, बात-बात पर उन्हें धमकियां दी जाती थी यहां तक की चार वर्ष में उनका बाइस बार तबादला भी किया गया था.
उनके कविता की पक्तियों ने देशवासियों में राष्ट्रभक्ति का एक नया रक्त संचार किया और दिनकर बन गए राष्ट्रकवि।

1947 में देश आजाद हुआ तो रामधारी सिंह दिनकर बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनाए गए. 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिनकर को राज्यसभा सदस्य बनाया.
1965 से 1971 तक वो भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहे. हिंदी भाषा की सेवा के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया .
उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय को साहित्य अकादमी पुरस्कार और उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. महाभारत पर आधारित उनके प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र की गिनती दुनिया के सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में होती है.

कमजोरों के हक में खड़े होकर व्यवस्था की खिलाफ आवाज उठाने के इस तेवर ने दिनकर की कविताओं को जनता की जुबां पर ला दिया.

” आजादी तो मिल गयी, मगर यह गौरव कँहा जुगाएगा

मरभुखे! इसे घबराहट में तू बेच तो न खायेगा “

तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे ?
जलता हो सारा देश, किन्तु होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर
क्यों यह आग बुझाओगे

रामधारी सिंह दिनकर की पक्तियों में वो ताकत है जो किसी क्रांति के आगाज के लिए काफी है, तभी तो 70 के दशक में सम्पूर्ण क्रांति के दौर में दिल्ली के रमलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह की शंखनाद दिनकर की इन पंक्तियों ” सिंहासन खाली करो की जनता आती है “ के उद्घोष के साथ किया था।

पत्थर सी हो मांसपेशियां
लौहदंड भुजबल अभय
नस-नस में हो अगर लहर आग की
तभी जवानी जाती जय

24 अप्रैल 1974 को रामधारी सिंह दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में जीवित रखकर सदैव के लिए अमर हो गए।