बिहारी क्रन्तिकारी: स्वाधीनता संग्राम का प्रथम शहीद बिहार के तिलका मांझी

बिहार की भूमि वीरप्रसू रही है I बिहार की उर्वर धरा ने देश को वीर कुंवर सिंह, अमर सिंह, पीर अली, देशभूषण मौलाना मजहरुल हक़, डा० सच्चिदानंद सिन्हा, डा० राजेन्द्र प्रसाद, , योगेन्द्र शुक्ल, बैकुंठ शुक्ल, चंद्रमा सिंह, चुनचुन पाण्डेय, जगत नारायण लाल, रामप्यारी देवी, रामचंद्र शर्मा, नरसिंह नारायण, श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, ब्रज किशोर प्रसाद, रामनंदन मिश्र, रामदयालु सिंह, श्यामबिहारी लाल, तिलका मांझी, जुब्बा साहनी, जगलाल चौधरी, दरोगा प्रसाद राय जैसे स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी दिए I इसी भूमि पर राष्ट्रपिता के सत्याग्रह का श्रीगणेश हुआ जिसकी सफलता ने मोहनदास को महात्मा बनाया I

बाबा तिलका मांझी (जो जबरा पहाड़िया के नाम से प्रसिद्ध थे ) पहले आदिवासी नेता थे जिन्होंने मंगल पांडे से नब्बे वर्ष पूर्व ही 1784 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाए I उन्होंने आदिवासियों को एक सशस्त्र समूह के रूप में संगठित किया I तिलका मांझी का नाम देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और शहीद के रूप में लिया जाता है I

किन्तु इतिहास के पन्नों में तिलका मांझी उपेक्षित से दिखते हैं I हालांकि पहाड़िया समुदाय के लोकगीतों और कहानियां उनके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं I

आइए, आजादी की इस 70वीं वर्षगांठ पर इनके बारे में जानते हैं ..

भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहले लोकप्रिय आदिविद्रोही तिलका मांझी पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे I उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज तहसील में स्थित तिलकपुर ग्राम में एक संथाल परिवार में हुआ था I इनके पिता का नाम ‘सुंदरा मुर्मू’ था I बचपन से ही जंगली जीवन के अभ्यस्त हो जाने के कारण वे निडर और वीर बन गये थे I किशोर जीवन से ही अपने परिवार तथा जाति पर उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता का अत्याचार देखा था I गरीब आदिवासियों की भूमि, कृषि और जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासकों ने कब्जा कर रखा था I आदिवासियों और पहाड़ी सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ी सत्ता से होती रहती थी पर पहाड़ी जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का खुलकर साथ देता था I यह सब देखकर तिलका मांझी के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा हुआ और उन्होंने उनका विरोध करने का निर्णय लिया I

अंततः एक दिन 1771 में तिलका मांझी ने भागलपुर में ‘बनैचारी जोर’ नामक स्थान से अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। जंगल, तराई तथा गंगा, ब्रह्मी आदि नदियों की घाटियों में तिलका मांझी अपनी सेना लेकर अंग्रेज़ी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर लड़ाई लड़ते रहे I इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया I 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासकों की नींद उड़ाए रखा I वे अंग्रेज़ सैनिकों से मुकाबला करते-करते भागलपुर की ओर बढ़ गए I स्थिति प्रतिकूल देख ब्रिटिश सरकार ने ऑगसत्स क्लीवलैंड को मजिस्ट्रेट बनाकर राजमहल भेजा I क्लीवलैंड ने ब्रिटिश सेना और पुलिस के साथ धावा बोला I पर क्लीव लैंड को तिलका माँझी ने 13 जनवरी, 1784 को अपने तीरों से मार गिराया I इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियों में भय उत्पन्न कर दिया I

 

तिलका मांझी विश्वासघात के शिकार हुए

एक रात तिलका मांझी और उनके क्रान्तिकारी साथी, जब एक उत्सव में नाच-गाने की उमंग में खोए थे, तभी अचानक एक गद्दार सरदार जाउदाह ने उन पर आक्रमण कर दिया I अनेकों देशभक्त शहीद हुए और कुछ बंदी बनाए गए I तिलका मांझी ने वहां से भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली I तिलका मांझी एवं उनकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा और उन्होंने छापामार पद्धति अपनाई I आयरकूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना का तिलका की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया I

उन्हें चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया, पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था I खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी I भयाक्रांत अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली I

13 जनवरी 1785 को हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने मांझी का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए – हांसी-हांसी चढ़बो फांसी …! – वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं I तिलका मांझी ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत को ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध सबसे पहले आवाज़ उठाई थी और उनकी वही आवाज़ 90 वर्ष बाद 1857 के महाविद्रोह में पुनः फूट पड़ी थी I

ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, रेमन मैग्सेसे पुरस्कार प्रभृति से सम्मानित बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका एवं सामजिक कार्यकर्त्ता महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में ‘शालगिरार डाके’ नामक उपन्यास की रचना की I हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है I तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में स्थित भागलपुर विश्वविद्यालय को तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय कर दिया गया I उनकी स्मृति में भागलपुर में कचहरी के निकट उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है I झारखण्ड के दुमका में भी उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है I

यद्यपि तिलका मांझी का विद्रोह अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया पर यह बाद में पुनः अन्य आदिवासी विद्रोहों, 1857 के स्वतंत्रता-संघर्ष एवं परवर्ती निर्णायक संग्राम के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ I विदेशी शासन के विरुद्ध उनका संघर्ष देशभक्तिपूर्ण एवं प्रगतिशील कार्यवाही थी I तिलका भारत के उस राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के प्रेरणाश्रोत बन गए, जिसने वह हासिल कर दिखाया जिसका सपना तिलका ने देखा था I तिलका अपने समकालीन लोगों से बहुत आगे थे I अपनी निःस्वार्थ देशभक्ति, दुर्जेय साहस और दृढ़ निश्चय द्वारा तिलका ने भारत के स्वतंत्रता इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया I बिहार को अपने इस सपूत पर गर्व है, पूरे भारत को इस देशभक्त पर अभिमान है I आजादी की इस 70 वीं वर्षगांठ पर देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर देने वाले इस देशभक्त को हमारा नमन I

जय भारत, जय बिहार !


लेखक – अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार

देश के राष्ट्रपति आ रहे है बिहार, सज-धज के तैयार हो रहा है राजगीर

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26 अगस्त महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मूखर्जी बिहार में रहेंगे। वे प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के दिक्षांत समारोह में सामिल होने नालंदा आ रहें है।  राष्ट्रपति के आगमन को लेकर नालंदा में तैयारियां जोर शोर से चल रही हैं।

26 अगस्त को होने वाले दीक्षांत समारोह को लेकर राजगीर में सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतजाम किये जा रहे हैं। जिले के डीएम ने राजगीर के दुकानदारों और आम लोगों से अपील की है कि राष्ट्रपति के स्वागत में अपने-अपने घरों का रंग रोगन करवा लें, ताकि देश-विदेश से आने वाले लोगों के मन में राजगीर की छवि और भी बेहतर बन कर उभरे।

कार्यक्रम में राष्ट्रपति समेत अन्य देशों के भी प्रतिनिधि आयेंगे। शहर की सड़कों पर सफेद लाइनिंग कराने का काम भी शुरू कर दिया गया है. सुरक्षा के मद्देनजर कार्यक्रम स्थल पर काफी संख्या में सीसीटीवी लगाए जा रहे हैं।

बिहारी वीर: इस बिहारी ने 80 साल के उम्र में तलवार उठा के अंग्रेज़ी हुकूमत को हिला दिया

veer kunwar singh

आपन बिहार की टीम शहीदों को याद करते हुए एक विशेष कार्यक्रम शुरू की है।  आज दिनांक 28 जुलाई से स्वतंत्रता दिवस, अर्थात 15 अगस्त तक हम बिहार के भिन्न-भिन्न जिलों से स्वंतंत्रता संग्राम में शहीद हुए अमरों की अमर-कथा लायेंगे| क्योंकि हम आजाद हो चुके हैं, हमारा फ़र्ज़ है कि उन आजादी के मतवालों की कहानियाँ हम दुहराते रहें| तो मनाते हैं जश्न अपनी आजादी का, आज से लगातार स्वत्रंता दिवस तक|

 

इस कडी में आज हम बतायेंगे प्रथमस्वतंत्रता संग्राम 1857  के एक महान बिहारी क्रांतिकारी के बारे में जिसने 80 साल के उम्र में अपनी मातृभूमी को आजाद कराने के लिए तलवार उठा अंग्रेंजी हुकूमत को लल्कारा था और जंग-ए-आजादी का एलान किया था।  जी हाँ,  वह महान योद्धा  थे बिहार के बाबू वीर कुंवर सिंह। 

 

प्रथमस्वतंत्रता संग्राम 1857 का रणघोष हो चुका था। इसकी चिंगारी शोला बन चुकी थी और देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ जंग आजादी का एलान हो चुका था। दिल्ली में बहादुर शाह जफर, कानपुर में नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, काल्पी के राय साहब जैसे लोग स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूद चुके थे।

तो बिहार भी आजादी के इस शोले की धधक से अछूता नहीं रहा। जगदीशपुर के अस्सी वर्षीय वीर कुंवर सिंह 1857 की इस लड़ाई में बिहार का नेतृत्व कर रहे थे।

 

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.
बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.
बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने.

 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया

आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुँवर सिंह ने नोखा, बरांव, रोहतास, सासाराम, रामगढ़, मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवां बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मानियर और बलिया का दौरा किया था और संगठन खड़ा किया था।

 

सिंहन को सिंह शूरवीर कुंवर सिंह,
गिन गिन के मारे फिरंगी समर में।
कछुक तो मर गये, कछुक भाग घर गए,
बचे खुचे डर गए गंगा के भंवर में।

यह पंक्तियां सन 1857 की गर्मियों में गंगा तट पर बाबू कुंवर सिंह और अंग्रेजों के बीच हुए उस भीषण युद्ध का ध्वनि चित्र प्रस्तुत करती हैं। जिसमें तोप का गोला लगने से इस स्वधीनता सेनानी की बांह घायल हो गई थी। कुंवर सिंह ने अपनी तलवार से अपनी बांह काट कर गंगा मैया को अर्पित कर दी थी।

फरवरी 1858 में कुंवर सिंह लखनऊ दरियाबाद के बीच अंग्रेजों के दांत खट्टे कर रहे थे। मार्च में उन्होंने आजमगढ़ से बीस मील दूर अतरोली पर हमला किया और कर्नल मिलमैन को हराकर भागने पर मजबूर कर दिया।उन्होंने आजमगढ़ किला पर कब्जा कर लिया। यह क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी विजय थी। गाजीपुर से कर्नल डेम्स को भेजा गया। लेकिन कुंवर सिंह ने उसे भी परास्त कर दिया। अंतत: अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया। यह यूनियन जैक की साख का सवाल था। जनरल डगलस ने अपने संस्मरणों में लिखा है। कुंवर हताश होकर बिहार लौटने लगे। जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक गोला आकर लगा। उन्होंने अपनी तलवार से बांह काट कर गंगा मैया को अर्पित कर दी। आरा के पास पुन: एक बार निर्णायक युद्ध हुआ। कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के सौ सैनिकों और केप्टेन लिन्ग्रेड को मौत के घाट उतार दिया। यद्यपि वे विजयी भी हुए किंतु अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना उनके पीछे थी। वे बुरी तरह घायल थे। 24 अप्रैल 1858 को यह अस्सी साल का रणबांकुरा स्वर्ग सिधार गया। खुद कमिश्नर टेलर ने अपनी डायरी में लिखा।

बाबू कुंवर सिंह की वीरता का बखान गंग कवि ने निम्न लिखित छंद में किया है।
समर में निसंक बंक
बांकुरा विराजमान
सिंह के समाज सोहे
बीच निज दल के।
कमर में कटारी सोहे
करखा से बातें करै,
उछल उछल मुंड काटे
सत्रु बाहुबल के।
बांया हाथ मूंछन पे ताव देत
बार बार दहिन से,
समसेर बांके बिहारी सम चमके।
कहें कवि गंग जगदीशपुर कुंवर ङ्क्षसह,
जाकी तरवार देख गोरन दल दलके।
बाबू कुंवर सिंह उन इने-गिने स्वतंत्रता सेनानियों में से थे जिन्होंने 1857 में दिल्ली, लखनऊ, कानपुर आदि पर अंग्रेजों का पुन: कब्जा हो जाने के बाद भी सन 1858 की प्रथम तिमाही तक भी इस सशस्त्र क्रांति की मशाल को प्रज्जवलित रखा।

उन्हें अंग्रेजों के प्रति कोई व्यक्तिगत असंतोष नहीं था। वे वहाबी संप्रदाय के इस तर्क से सहमत थे कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति हर पैमाने पर अधार्मिक, असामाजिक और अन्यायी है।

उन्हें अंग्रेजों के प्रति कोई व्यक्तिगत असंतोष नहीं था। वे वहाबी संप्रदाय के इस तर्क से सहमत थे कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति हर पैमाने पर अधार्मिक, असामाजिक और अन्यायी है।

 

बिहार को अभिमान है अपने इस सपूत पर जिसने 80 साल के उम्र में भी तलवार उठा, जवानों में जोश भरकर आजादी का बिगूल फूक दिया और मरते दम तक देश के आजादी के लिए लडते रहे।  

कल फिर हम बिहार के नये योद्धा के बारे में हम आपको बातायेंगे जिसने देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। जुडे रहें आपन बिहार के साथ।

जय हिंद।