बिहारी क्रन्तिकारी: स्वाधीनता संग्राम का प्रथम शहीद बिहार के तिलका मांझी

बिहार की भूमि वीरप्रसू रही है I बिहार की उर्वर धरा ने देश को वीर कुंवर सिंह, अमर सिंह, पीर अली, देशभूषण मौलाना मजहरुल हक़, डा० सच्चिदानंद सिन्हा, डा० राजेन्द्र प्रसाद, , योगेन्द्र शुक्ल, बैकुंठ शुक्ल, चंद्रमा सिंह, चुनचुन पाण्डेय, जगत नारायण लाल, रामप्यारी देवी, रामचंद्र शर्मा, नरसिंह नारायण, श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, ब्रज किशोर प्रसाद, रामनंदन मिश्र, रामदयालु सिंह, श्यामबिहारी लाल, तिलका मांझी, जुब्बा साहनी, जगलाल चौधरी, दरोगा प्रसाद राय जैसे स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी दिए I इसी भूमि पर राष्ट्रपिता के सत्याग्रह का श्रीगणेश हुआ जिसकी सफलता ने मोहनदास को महात्मा बनाया I

बाबा तिलका मांझी (जो जबरा पहाड़िया के नाम से प्रसिद्ध थे ) पहले आदिवासी नेता थे जिन्होंने मंगल पांडे से नब्बे वर्ष पूर्व ही 1784 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाए I उन्होंने आदिवासियों को एक सशस्त्र समूह के रूप में संगठित किया I तिलका मांझी का नाम देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और शहीद के रूप में लिया जाता है I

किन्तु इतिहास के पन्नों में तिलका मांझी उपेक्षित से दिखते हैं I हालांकि पहाड़िया समुदाय के लोकगीतों और कहानियां उनके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं I

आइए, आजादी की इस 70वीं वर्षगांठ पर इनके बारे में जानते हैं ..

भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहले लोकप्रिय आदिविद्रोही तिलका मांझी पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे I उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज तहसील में स्थित तिलकपुर ग्राम में एक संथाल परिवार में हुआ था I इनके पिता का नाम ‘सुंदरा मुर्मू’ था I बचपन से ही जंगली जीवन के अभ्यस्त हो जाने के कारण वे निडर और वीर बन गये थे I किशोर जीवन से ही अपने परिवार तथा जाति पर उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता का अत्याचार देखा था I गरीब आदिवासियों की भूमि, कृषि और जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासकों ने कब्जा कर रखा था I आदिवासियों और पहाड़ी सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ी सत्ता से होती रहती थी पर पहाड़ी जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का खुलकर साथ देता था I यह सब देखकर तिलका मांझी के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा हुआ और उन्होंने उनका विरोध करने का निर्णय लिया I

अंततः एक दिन 1771 में तिलका मांझी ने भागलपुर में ‘बनैचारी जोर’ नामक स्थान से अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। जंगल, तराई तथा गंगा, ब्रह्मी आदि नदियों की घाटियों में तिलका मांझी अपनी सेना लेकर अंग्रेज़ी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर लड़ाई लड़ते रहे I इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया I 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासकों की नींद उड़ाए रखा I वे अंग्रेज़ सैनिकों से मुकाबला करते-करते भागलपुर की ओर बढ़ गए I स्थिति प्रतिकूल देख ब्रिटिश सरकार ने ऑगसत्स क्लीवलैंड को मजिस्ट्रेट बनाकर राजमहल भेजा I क्लीवलैंड ने ब्रिटिश सेना और पुलिस के साथ धावा बोला I पर क्लीव लैंड को तिलका माँझी ने 13 जनवरी, 1784 को अपने तीरों से मार गिराया I इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियों में भय उत्पन्न कर दिया I

 

तिलका मांझी विश्वासघात के शिकार हुए

एक रात तिलका मांझी और उनके क्रान्तिकारी साथी, जब एक उत्सव में नाच-गाने की उमंग में खोए थे, तभी अचानक एक गद्दार सरदार जाउदाह ने उन पर आक्रमण कर दिया I अनेकों देशभक्त शहीद हुए और कुछ बंदी बनाए गए I तिलका मांझी ने वहां से भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली I तिलका मांझी एवं उनकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा और उन्होंने छापामार पद्धति अपनाई I आयरकूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना का तिलका की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया I

उन्हें चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया, पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था I खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी I भयाक्रांत अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली I

13 जनवरी 1785 को हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने मांझी का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए – हांसी-हांसी चढ़बो फांसी …! – वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं I तिलका मांझी ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत को ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध सबसे पहले आवाज़ उठाई थी और उनकी वही आवाज़ 90 वर्ष बाद 1857 के महाविद्रोह में पुनः फूट पड़ी थी I

ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, रेमन मैग्सेसे पुरस्कार प्रभृति से सम्मानित बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका एवं सामजिक कार्यकर्त्ता महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में ‘शालगिरार डाके’ नामक उपन्यास की रचना की I हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है I तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में स्थित भागलपुर विश्वविद्यालय को तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय कर दिया गया I उनकी स्मृति में भागलपुर में कचहरी के निकट उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है I झारखण्ड के दुमका में भी उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है I

यद्यपि तिलका मांझी का विद्रोह अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया पर यह बाद में पुनः अन्य आदिवासी विद्रोहों, 1857 के स्वतंत्रता-संघर्ष एवं परवर्ती निर्णायक संग्राम के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ I विदेशी शासन के विरुद्ध उनका संघर्ष देशभक्तिपूर्ण एवं प्रगतिशील कार्यवाही थी I तिलका भारत के उस राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के प्रेरणाश्रोत बन गए, जिसने वह हासिल कर दिखाया जिसका सपना तिलका ने देखा था I तिलका अपने समकालीन लोगों से बहुत आगे थे I अपनी निःस्वार्थ देशभक्ति, दुर्जेय साहस और दृढ़ निश्चय द्वारा तिलका ने भारत के स्वतंत्रता इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया I बिहार को अपने इस सपूत पर गर्व है, पूरे भारत को इस देशभक्त पर अभिमान है I आजादी की इस 70 वीं वर्षगांठ पर देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर देने वाले इस देशभक्त को हमारा नमन I

जय भारत, जय बिहार !


लेखक – अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार

#BihariKrantikari: #14 राजेंद्र बाबू की ईमानदारी और सच्चाई एक सच्चे देशभक्त की तस्वीर प्रतिबिंबित करती है

rajendra prashad

“यूँ तो दुनिया के समंदर में कमी होती नहीं,
लाखों मोती हैं, पर इस आब का मोती नहीं|”

राजेंद्र बाबू का नाम लेते ही ऐसा अनुभव होने लगता है, मानो किसी वीतराग, शांत एवं सरल संन्यासी का नाम लिया जा रहा हो और सहसा एक भोली-भाली, निश्छल, निष्कपट, निर्दोष, सौम्य मूर्ती सामने आती है| भागीरथी के पवित्र जल के समान उनका पुनीत एवं अकृत्रिम आचरण आज भी मनुष्यों के हृदयों को पवित्र बना रहा है| वह उन योगिराजों में थे, जो वैभव एवं विलासिता में रहते हुए भी पूर्ण विरक्त होते हैं| राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर रहते हुए भी अभिमान रहित थे| तभी तो इन्हें ‘देशरत्न’ की उपाधि से अलंकृत किया जाता है|
जब राजेन्द्र बाबू स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने, तो गाँधी जी की यह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हो गयी कि “भारत का राष्ट्रपति किसान का बेटा नहीं, किसान ही होगा|”
राजेन्द्र बाबू का जन्म बिहार के सिवान जिले के जीरादेई में 3 दिसम्बर 1884 ई० में एक संभ्रात परिवार में हुआ| इनके पूर्वज हथुआ राज्य के दीवान थे| राजेन्द्र बाबू प्रारम्भ से ही प्रबुद्ध और मेधावी छात्र थे| हाई स्कूल से लेकर एम.ए. एवं एल.एल.बी. और एल.एल.एम. तक में हमेशा प्रथम स्थान लाते रहे| छोटी के वकीलों में गिनती होती थी| राजेन्द्र बाबू के अलावा ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी छात्र की उत्तरपुस्तिका पर परीक्षक ने स्वयं लिख दिया हो, “examinee is better than examiner”|
रोलेट एक्ट बनने के बाद इन्होंने वकालत छोड़ असहयोग आन्दोलन में सहयोग देना शुरू किया| गोपाल कृष्ण गोखले की देशभक्ति से बहुत प्रभावित थे, शायद इसलिए कि गोखले की देशभक्ति में राजनीति ही नहीं अपितु उच्चकोटि की विद्वता, राजनीतिक योग्यता, समाज सेवा आदि तत्व भी निहित थे|
राजेन्द्र बाबू ने गाँधी जी के आदर्श और सिद्धांतों से आकर्षित होकर अपना सर्वस्व देश-सेवा के नाम कर दिया| इनमें विनम्रता और विद्वता के साथ-साथ अपूर्व संगठन शक्ति, अद्वितीय राजनीतिक सूझ-बूझ और अलौकिक समाज सेवा की भावना थी| ये काँग्रेस के शुरूआती सदस्यों में शामिल थे| इन्होंने 1906 में सर्वप्रथम काँग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में हिस्सा लिए एक कार्यकर्ता के रूप में|
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के बाद इन्होंने बिहार में किसानों को तथा बिहार की जानता को सफल नेतृत्व प्रदान किया| 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था। 1934 में बिहार में आये भयानक भूकंप से जन-धन की अपार क्षति हुई थी| राजेन्द्र बाबु ने पीड़ितों की सहायता के लिए सेवायें समर्पित कीं, जिनके आगे जनता सदैव-सदैव के लिए नत-मस्तक हो गयी| धीरे-धीरे राजेन्द्र बाबू की गणना भारत के उच्चकोटि के कांग्रेसी नेताओं में होने लगी|
देश-सेवा के लिए इन्होंने कई बार जेल की यात्रा की| वे दो बार अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी रहे| 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् देश के लिए नये संविधान बनाने के लिए ‘विधान निर्माण सभा’ बनाई गयी, जिसमें राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष नियुक्त किये गये|
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राष्ट्रपति भवन की विलासिता उनके लिए अर्थहीन थी| उनके सेवानिवृति के बाद जब वो सदाकत आश्रम लौट रहे थे तो दिल्ली की जनता ने अश्रुपूर्ण विदाई दी थी|
चीनी आक्रमण के समय भी राजेन्द्र बाबु के ओजस्वी भाषण और एक आह्वान पर बिहार की जनता अपना सर्वश्व देश को समर्पित करने को तैयार थी|
राजेन्द्र बाबू ने कई सारी किताबें भी सौपीं हैं जैसे- आत्मकथा (१९४६), बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं। हालाँकि राजेन्द्र बाबू उर्दू और संस्कृत के विद्वान थे, फिर भी हिंदी भाषा के प्रति उनका लगाव काफी गहरा था|
28 फ़रवरी 1963 को सदाकत आश्रम में ही उन्होंने अंतिम साँसे लीं| राजेन्द्र बाबू से आज भी सारा देश प्रेरणा लेता है| उनकी देशभक्ति और सेवा भाव अद्वितीय हैं| उनकी ईमानदारी और सच्चाई एक सच्चे देशभक्त की तस्वीर प्रतिबिंबित करती हैं|
निःसंदेह उनका व्यक्तित्व और अस्तित्व दोनों महान थे और उनका चरित्र अनुकरणीय|
किसी कवि की ये पंक्तियाँ राजेन्द्र बाबू के जीवन के लिए बिल्कुल सही लगती हैं-
“न तन सेवा, न मन सेवा, न जीवन और धन सेवा,
मुझे है इष्ट जन सेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा|”

#BihariKrantikar: #13 जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादर देता है,

जिससे हो सकता उऋण नहीं, ऋण भार दबा तन रोम-रोम,
सौ बार जन्म भी लूँ यदि मैं, जिसके हित जीवन होम-होम||

जयप्रकाश नारायण जी के बारे में ब्रिटिश विद्वान ह्यूग गैट्स केल ने कहा था, “उनकी एक हस्ती है जिनका समाजवाद केवल उनकी राजनीति में ही नहीं चमकता, केवल उनकी सिखावत में ही नहीं रहता, बल्कि उनके सारे जीवन में समाया हुआ है|”

राजनीतिज्ञों की धरती, बिहार, से निकले देशभक्त क्रांतिकारियों में जयप्रकाश नारायण का नाम अग्रणी है| इनका जन्म छपरा जिले के सिताबदियारा नामक गाँव में दशहरे के दिन 11 अक्टूबर, 1902 को हुआ था| पिता का नाम श्री दयाल तथा माँ का नाम फूलरानी देवी था| पशु-पक्षियों से प्रेम रखने वाला बालक जयप्रकाश काफी सोच-समझ कर ही बोला करते थे| इन वजह से इनके पिता जी मजाक-मजाक में कहते थे, “ई त बूढ़ लरिका हउअन”|
16 मई 1920 ई० को इनका विवाह प्रभावती देवी से हो गया, जो राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेती थीं और देशभक्ति उनके रग-रग में थी| तभी तो उन्होंने आजीवन अपने जीवनसाथी का सहयोग दिया और खुद भी कैद हुईं|
जयप्रकाश नारायण ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने से इनकार कर दिया था तथा अपना जीवन देश के नाम करने का दृढ़ निश्चय लिया|

नारायण जी की निर्भीकता, क्रांतिकारी भावना, मनुष्यता, पौरुष, सौजन्य तथा आकर्षण शक्ति पर सारा देश मन्त्र-मुग्ध हो उठता था| क्रांतिकारी भावनाओं से अनुप्राणित भारतीय नवयुवक तो उन पर प्राण न्यौछावर करते थे| विचारों में काफी भेद होते हुए भी गांधी जी जयप्रकाश जी से प्रेम करते और उनकी न्यायनिष्ठा पर पूरा विश्वास रखते थे| 1940 ई० में हुए जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी का गाँधी जी ने पुरजोर विरोध भी किया था|
1942 ई० की घटना है| जे.पी. हजारीबाग जेल में कैद थे| करो या मरो का नारा जोरों पर था, भारत छोड़ो आन्दोलन अपने चरम पर, ऐसे में जे.पी. जेल में छटपटा रहे थे, देश के लिए कुछ न कर पाने का अफ़सोस था उन्हें| तभी दिवाली का त्योहार आया| जेल के कैदियों और कर्मचारियों को जेलर की ओर से दावत का आयोजन था, फिर नाच और गाने का प्रोग्राम था|
रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने उस जश्न का संचालन किया| वातावरण में मस्ती का माहौल था| इधर जे.पी. ने धोतियों की रस्सी बनाई और 6 मिनट में जेल की दीवार लाँघ गये| साथ में 6 मित्र और थे| इस फरारी की रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने 12 घंटे तक किसी को कानो-कान खबर न होने दी|जेल के अधिकारीयों को जब ये बात मालूम चली तब तक जे.पी. की टोली काफी दूर निकल गयी थी| ब्रिटिश सरकार के लिए ये बहुत बड़ी चुनौती थी| उन्होंने जे.पी. को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर 10 हजार का इनाम भी रखा|

एक दिन ये सभी मित्र नेपाल में पकड़े गये| लेकिन इतना आसन भी नहीं था कि कोई जे.पी. और उनकी टीम को कैद रखे| बकायदा स्कीम बनाई गयी| सातों कैदी सो गये, अचानक गोलियाँ चलने लगीं| सातों बहादूर दौड़ पड़े, कोई कहीं गया और कोई कहीं| सभी ब्रिटिश कैद से मुक्त हो गये|
जे.पी. कोलकाता चले गये| एक दिन वो एस.पी. मेहता के नाम से रावलपिंडी जा रहे थे| अमृतसर स्टेशन पर गाड़ी ठहरी| जे.पी. चाय पीने के लिए नीचे उतरे| चाय अभी पी ही रहे थे कि अंग्रेज अधिकारी आ गये| ब्रिटिश सरकार को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर देने वाले जे.पी. पुनः कैद कर लिए गये| लाहौर जेल में उन्हें कई तरह की यातनाएँ दी गईं| कुर्सी पर बाँध कर पिटाई की गयी, लेकिन जे.पी. की तरफ से एक भी राज की बात सामने नहीं आई| लाहौर से वो आगरा भेज दिए गये| 1946 में उन्हें कैद से आजादी मिली| आजाद होते ही वे बापू से मिलने गये| बापू ने प्रार्थना सभा की बैठक में जे.पी. की मुक्त कंठ से प्रशंसा की|

आजादी के बाद जे.पी. विनोबा भावे के भूमि समस्या पर चल रहे कार्यक्रम से बहुत प्रभावित हुए| 1954 ई० में उन्होंने सर्वोदय के लिए अपना जीवन दान दे दिया| उनसे प्रेरित होकर 582 लोगों ने खुद को सर्वोदय के लिए समर्पित किया| इसके बाद देश-विदेश के 50 से अधिक सभाओं में जे.पी. के महत्वपूर्ण भाषण हुए|
1972 ई० की बात है| चम्बल घाटी के खूंखार डकैत निःशंक और निर्भय होकर जे.पी. के समक्ष आत्मसमर्पण करते थे| जे.पी. उन्हें गीता और रामायण की पुस्तकें देते| चम्बल घाटी का सरनाम डाकू मोहर सिंह, जिसको जिन्दा या मुर्दा पकड़ने वालों को मध्य-प्रदेश सरकार की तरफ से 2 लाख के इनाम की घोषणा थी, ने जे.पी. के सामने घुटने टेक दिए| अपना सर उसने जे.पी. के कदमों में रख दिया| उन चरणों में कुल 501 डाकुओं ने जे.पी. के सामने हथियार डाला तथा अच्छाई और सच्चरित्रता का जीवन अपनाने का संकल्प लिया| यह विचारों में आई क्रांति ही थी, जिसने उन डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया|
छात्रों और बिहार की जनता की प्रार्थना पर जे.पी. ने अस्वस्थ होने के बावजूद बिहार आन्दोलन का नेतृत्व किया| 1974 का वो आन्दोलन आज भी युवाओं में जोश भर देता है| आज भी उसे आजादी के बाद का सबसे महत्वपूर्ण एवं मजबूत आन्दोलन कहा जाता है| आज भी कहा जाता है कि जिस कदर जनसमूह ने जे.पी. आन्दोलन का समर्थन किया, वो अविश्मर्णीय है| 1977 में भारत की जनता को जनता पार्टी के रूप में नेतृत्व प्रदान कर जे.पी. ने ‘युग-परिवर्तन’ किया| शायद इसका अंदेशा नेहरु जी को पहले से ही था|

नेहरु जी ने एकबार रेडियो प्रसारण में कहा था, “जयप्रकाश जी की काबिलियत और ईमानदारी पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा है| एक मित्र के नाते मैं उनकी इज्जत करता हूँ और मुझे यकीन है कि एक वक्त आएगा जब भारत के भाग्य निर्माण में वे महत्वपूर्ण पार्ट अदा करेंगे|”

8 अक्टूबर1979 ई० को देश के सच्चे भक्त, देश निर्माण और जनसमूह के नेता, क्रांतिकारियों के क्रांतिकारी नायक, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, बिहार के जे.पी. इस दुनिया को अलविदा कह गये| किसी भी बड़े आन्दोलन में अब भी जे.पी. का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है| ऐसे देशभक्त को हमारा नमन|
राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-

“है जयप्रकाश जो कि पंगु का चरण, मूक की भाषा है,
है जयप्रकाश वह टिकी हुई जिस पर स्वदेश की आशा है|

है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादर देता है,
बढ़कर जिसके पदचिन्हों को उर पर अंकित कर देता है|

कहते हैं उसको जयप्रकाश, जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख कुंड में कूद स्वयं जो पड़ता है|”

#BihariKrantikari: #12 इन सात वीरों ने मर के भी तिरंगे की शान बढ़ाई

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“गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,
वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले”

किसी शायर की ये पंक्तियाँ उन सात वीर सपूतों की दृढ़ इच्छाशक्ति, देशप्रेम और समर्पण को दर्शाने के लिए बिल्कुल सही लगती हैं, जिनकी मूर्ति बिहार राजभवन परिसर में आज भी गर्व से देखी जाई जाती है|

11 अगस्त 1942 का दिन था| महात्मा गांधी की तरफ से भारत छोड़ो आन्दोलन का बिगुल बज चुका था| उन्होंने अहिंसा के साथ-साथ ‘करो या मरो’ का नारा भी दिया था| ये वो समय था जब बिहार में पटना स्वतंत्रता की लड़ाई का मुख्य केंद्र बना हुआ था|
6000 निहत्थे छात्रों की टोली, निकली पटना सेक्रेटेरिएट पर तिरंगा लहराने की धुन सवार किये हुए| W.G. आर्चर उस समय पटना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे| हिंदुस्तानी छात्रों द्वारा यूँ भवन में झंडा फहराया जाना, ब्रिटिश हुकूमत के शान के खिलाफ था| 2 बजे तक ब्रिटिश इन्डियन मिलिट्री पुलिस ने पुरजोर विरोध किया, और छात्रों ने उतना ही संघर्ष| निहत्थे झंडे को पटना सेक्रेटेरिएट पर फहराना ब्रिटिशों को भारत छोड़ने की धमकी देने जैसा ही था|
ये संघर्ष चलता रहा| लेकिन तभी आर्चर ने पुलिस को उन सभी पर गोलीबारी करने का आदेश दे दिया जो झंडा लिए आगे बढ़ रहे थे| बिहार मिलिट्री ने गोली चलाने से इनकार कर दिया| गोरखा गैंग को बुलाया गया, गोलीबारी शुरू हुई| छात्र अहिंसक थे, उनके पास कोई हथियार नहीं था, फिर भी ये कदम उठाया गया|
गोलीबारी जब रुकी, तब तक 7 छात्र शहीद हो चुके थे और 14 घायल| इन शहीदों की सूची देखिये, सिर्फ एक छात्र ही कॉलेज का था, बाकी सभी स्कूल के थे, दसवीं और नौवीं के छात्र|
इन सात छात्रों की जीवंत मूर्ति आज भी आप पटना राजभवन कार्यालय में देख सकते हैं| धोती-कुर्ता और गाँधी टोपी में बनी ये मूर्ति प्रत्यक्षतः दर्शाती है कि कैसा जज्बा था उन छात्रों में| कैसा समर्पण था अपने देश के लिए| कैसी भक्ति थी जिसने जान की परवाह भी न करने दी| इनका लक्ष्य इस मूर्ति में भी देखा जा सकता है| ये एक संकल्प, एक प्रण ही तो था जिसने इतने बड़े त्याग से भी समझौता न करने दिया, मन को डिगने न दिया|

इन सात लड़ाकों को आज पूरा देश नमन करता है| ये वो क्रांतिकारी थे, जिन्होंने पटना में बुझ रही स्वतंत्रता की लड़ाई की चिंगारी को हवा देने का काम किया| जिन्होंने इस पवित्र मिशन को अपने खून से और पावन कर दिया| जिन्होंने मर के भी तिरंगे की शान बढ़ाई| इनके नाम थे –

• उमाकांत प्रसाद सिन्हा (रमन जी)- राम मोहन रॉय सेमिनरी, कक्षा 9
• रामानंद सिंह- राम मोहन रॉय सेमिनरी, कक्षा 9
• सतीश प्रसाद झा- पटना कॉलेजियेट स्कूल, कक्षा 10
• जगतपति कुमार- बिहार नेशनल कॉलेज, स्नातक पार्ट 2
• देविपदा चौधरी- मिलर हाई स्कूल, कक्षा 9
• राजेन्द्र सिंह- पटना हाई इंग्लिश स्कूल, कक्षा 10
• रामगोविन्द सिंह- पुनपुन हाई इंग्लिश स्कूल, कक्षा 9

#BihariKrantikari: #7 अपनी आखरी सांसों तक राष्ट्र और समाज की सेवा करते रहे बिहार विभूति अनुग्रह बाबू

आपन बिहार हिन्दुस्तान की आजादी का 70 वाँ पर्व मना रहा है।  हम रोज आपको ऐसे बिहारी क्रान्तिकारी  से मिलवाते है जिसने अपनी मातृभूमी की रक्षा करने के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया।  ऐसे ही बिहारी क्रान्तिकारी थे बिहार विभूती अनुग्रह नारायण सिंह।

 

डा अनुग्रह नारायण सिंह एक भारतीय राजनेता और बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री (1946-1957) थे। अनुग्रह बाबू (1887-1957) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक तथा राजनीतिज्ञ रहे हैं।

इन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध चम्पारण से अपना सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था। बिहार-विभूति का भारत की आजादी में सहभागिता रही थी। उन्होंने महात्मा गांधी एवं डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थे। अनुग्रह बाबू आधुनिक बिहार के निर्माता थे। वे देश के उन गिने-चुने सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में से थे जिन्होंने अपने छात्र जीवन से लेकर अंतिम दिनों तक राष्ट्र और समाज की सेवा की। उन्होंने आधुनिक बिहार के निर्माण के लिए जो कार्य किया, उसके कारण लोग उन्हें प्यार से बिहार विभूति के नाम से पूकारते हैं।

 

चंपारण में किसानों पर अत्याचार के खिलाफ गांधी जी के आंदोलन में अनुग्रह बाबू ने अपनी वकालत के पेशे को त्याग अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लडाई में शामिल हो गये।  इस आंदोलन ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी। स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का पाठ उन्हें गांधीजी के आश्रम में ही रहकर प़ढने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अनुग्रह बाबू ने चम्पारण के नील आंदोलन में गांधीजी के साथ लगन और निर्भीकता के साथ काम किया और आंदोलन को सफल बनाकर उनके आदेशानुसार १९१७ में पटना आये। बापू के साथ रहने से उन्हें जो आत्मिक बल प्राप्त हुआ, वही इनके जीवन का संबल बना। सन्‌ १९२० के दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें अनुग्रह बाबू ने भी भाग लिया। सन्‌ १९२९ के दिसंबर में सरदार पटेल ने किसान संगठन के सिलसिले में मुंगेर आदि शहरों का दौरा किया, तब अनुग्रह बाबू सभी जगह उनके साथ थे। २६ जनवरी १९३० को सारे देश में स्वतंत्रता की घोषणा प़ढी गई। अनुग्रह बाबू को भी कई स्थानों में घोषण पत्र प़ढना प़ढा।

 

मेरा परिचय अनुग्रह बाबू से बिहारी छात्र सम्मेलन में ही पहले पहल हुआ था। मैं उनकी संगठन शक्ति और हाथ में आए हुए कार्य में उत्साह देखकर मुग्ध हो गया और वह भावना समय बीतने से कम न होकर अधिक गहरी होती गई।
– देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

अनुग्रह बाबू को  बिहार विभूति’ के रूप में जाना जाता था। वह स्वाधीनता आंदोलन के योद्धा थे। स्वाधीनता के बाद राष्ट्र निर्माण व जनकल्याण के कार्यो में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया।

आधुनिक बिहार के निर्माता
डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा मानवतावादी प्रगतिशील विचारक एवं दलितों के उत्थान के प्रबल समर्थक और आधुनिक बिहार के निर्माताओं में से एक थे। उनका जीवन दर्शन देश की अखंड स्वतंत्रता और नवनिर्माण की भावनाआ से सराबोर रहा। उनका सौभ्य, स्निग्ध, शीतल, परोपकारी, अहंकारहीन और दर्पोदीप्त शख़्सियत बिहार के जनगणमन पर अधिकार किए हुए था। वे शरीर से दुर्बल, कृषकाय थे, पर इस अर्थ में महाप्राण कोई संकट उनके ओठों की मुस्कुराहट नहीं छीन सका। उनमें शक्ति और शील एकाकार हो गये थे और इसीलिए वे बुद्धिजीवियों को विशेष प्रिय थे। बिहार के विकास में उनका योगदान अतुलनीय है। राज्य के प्रशासनिक ढांचा को तैयार करने का काम अनुग्रह बाबू ने किया था। इन्होंने राज्य के प्रथम उप मुख्यमंत्री और सह वित्तमंत्री के रूप में 11 वर्षों तक बिहार की अनवरत सेवा की।

 

जो देशभक्त जेल में अनुग्रह बाबू के चौके में खाते थे, वे जब जेल से निकले तो यह कहते निकले कि अनुग्रह बाबू सचमुच प्रांत के अर्थमंत्री पद के योग्य हैं। इस काम में उनसे कोई बाज़ी नहीं मार सकता।”-
– राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर

इस तेजस्वी महापुरुष का निधन 5 जुलाई, 1957 को उनके निवास स्थान पटना में बीमारी के कारण हुआ। उनके सम्मान मे तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सात दिन का राजकीय शोक घोषित किया, उनके अन्तिम संस्कार में विशाल जनसमूह उपस्थित था। अनुग्रह बाबू 2 जनवरी, 1946 से अपनी मृत्यु तक बिहार के उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री रहे।

#BihariKrantikari: #6 धरती पर जब धर्म की हानि होने लगी, तब बिहार में भगवान ने अवतार लिया

mahaveer

बिहार तीन प्रमुख धर्मों के उद्गम का साक्षी रहा है- जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सीख धर्म| जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर जैन का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले, बिहार के वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुंडलपुर में हुआ था| ईसा के 599 वर्ष पूर्व पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ चैत्र शुक्ल तेरस को जन्में वर्द्धमान का जन्म 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हो जाने के 278 वर्ष बाद हुआ था। कहते हैं, धरा पर जब-जब धर्म की हानि होती है, भगवान अवतरित होते है| कवि के शब्द हैं-
“धरा जब-जब विकल होती मुसीबत का समय आता,
किसी भी रूप में कोई महामानव चला आता||

प्रभु महावीर का जन्म राज परिवार में हुआ था| स्वाभाविक तौर पर आरंभिक दौर विलासिता से पूर्ण थे| 30 वर्षों तक भोग-विलास से परिपूर्ण जीवन बिताने के पश्चात् भगवान् महावीर ने अगले 12 वर्ष घनघोर जंगल में साधना में बिताये| इन्होंने भोग के सभी साधन छोड़ दिए थे| यहाँ तक की वस्त्र भी| पुनः अगले 30 वर्ष मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करने एवं जान-कल्याण में बिताये|
दिगंबर परम्परा के अनुसार महावीर बाल ब्रह्मचारी थे| जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर की शादी यशोदा नामक कन्या से हुआ था तथा उन्हें पुत्रीरत्न की प्राप्ति भी हुई थी- प्रियदर्शिनी|
भगवान् महावीर का जब जन्म हुआ, उन्होंने अपने आस-पास कई तरह के अन्याय होते हुए देखे| सामाजिक स्तर गिरता चला जा रहा था| धर्म के नाम पर आडम्बर होते थे| भोह-विलास के चकाचौंध, मिथ्या तर्कों के जटिल जाल, भूत-पिशाच और जादू-टोना की विश्वसनीयता, बलि तथा यज्ञादि पूजा विधियों ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को दूषित कर दिया था|
इसके अलावा अछूतों का समाज में कोई स्थान नहीं रह गया था| उन पर जुल्म किये जाते थे| उनके गले में घंटी बाँध दी जाती थी, और घंटी की आवाज जहाँ तक जाये, उस जगह को अपवित्र समझा जाता था| सार्वजनिक कुएं से पानी पीना, मंदिरों में पूजा करना और वेद पढ़ना भी मना था| उनके लिए किसी तरह का विद्यालय या आश्रम भी नहीं था|
इस तरह के अन्याय अपने आस-पास देख सिद्धार्थ पुत्र को बहुत दुःख होता था| अतः उन्होंने “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” की स्पष्ट घोषणा की| दलितों, पतितों, शोषितों और अछूतों के लिए महावीर करुणा, प्रेम, स्वतंत्रता और समता का अमर सन्देश ले कर आये|
इस संकटपूर्ण घड़ी में सामाजिक ढांचे को ठीक करने के लिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह, अनेकान्तवाद का सन्देश दिया| उन्होंने अपने जीवन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे पांच महाव्रतों का मनसा-वाचा-कर्मणा पालन करते हुए भेद-विज्ञान द्वारा ‘कैवल्य’ ज्ञान को प्राप्त किया था| तथा सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र द्वारा अपने सम्पूर्ण उपदेशों को जन-जन तक पहुँचाया|

इस तरह भारतीय समाज में समाजवाद, साम्यवाद की परम्परा स्थापित करने में महावीर जैन का अहम् योगदान रहा है| इनके उपदेशों ग्रहण कर समाज के अछूतों का उद्धार हुआ था|
ऐसे महान आत्मा का बिहार में प्रकट होना, सिर्फ बिहार नहीं, पुरे देश का सौभाग्य है| उनके मार्ग अनुकरणीय हैं|
ईसा पूर्व 527 में 72 वर्ष की आयु में, राजगीर के पावापुरी में भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया| आज भी यह स्थल उतना ही पवित्र और शांत है|
बेशक उन्होंने अहिंसा का सन्देश दिया, लेकिन उनके विचारों ने समाज में क्रांतिकारी बदलाव आये| उन्होंने समाज के बदलाव के लिए अपना जीवन लगा दिया| ऐसे सत्य और अहिंसा के उपासक और उपदेशक को सत-सत नमन !

“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा|”

#BihariKrantikari: #5 इस वीर बिहारी योद्धा के नाम से ही अंग्रेजी सिपाही थर-थर कांपने लगते थे..

चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था। भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे। वह वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ था। कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं। सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश मारने का आदेश देता है। तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत माता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देता है।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था। शहीद निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे। अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये।

एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे रोहतास जिले के डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन्हें कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया।
आनन-फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया। ना

चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था। भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे। वह वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ थ| कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं। सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश मारने का आदेश देता है। तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत माता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देता है।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था। शहीद निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे। अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये। एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे। अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे रोहतास जिले के डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन्हें कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया।
आनन-फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया। ना कोई मुकद्दमा, ना कोई बहस -जिरह, ना कोई अपील, ना कोई दलील। 5 जून 1858 को निशान सिंह को उनके ही निवास स्थान पर तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया। लेकिन कहते हैं मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं अमर हो जाते हैं। ऐसे ही निशान सिंह पूरे बिहार और भारत के लिए अमर है।

 

#BihariKrantikari: इस देशभक्त ने एक हाथ में गीता और दूसरे हाथ में कृपाण रख देश की आजादी की कसम खाई थी

बिहार के मुंगेर जिला में माउर नामक ग्राम का एक संभ्रांत कृषक परिवार| 21 अक्टूबर 1887 ई० को पिता हरिहर सिंह के चौथे पुत्र के रूप में आये श्री कृष्ण सिंह| पिताजी शिवभक्त थे, जिसका प्रभाव पुत्रों पर भी आजीवन बना रहा| श्री कृष्ण सिंह न सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री रहे बल्कि ये आधुनिक बिहार के निर्माता भी माने गये हैं| भारत माता के महान सपूत, स्वतंत्रता संग्राम के नायक, स्वच्छ राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी और किसानों और गरीबों के मसीहा, श्री कृष्ण सिंह को लोग यूँ ही प्यार से ‘श्री बाबू’ नहीं कहते| आजीवन देश को समर्पित रहे श्री सिंह कई बार कहा करते थे, “प्रत्येक नागरिक को सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि पहले देश है, फिर शेष|”
छात्र जीवन में ही मुंगेर के कष्टहरणी घाट पर, एक हाथ में गीता और दूसरे हाथ में कृपाण लेकर श्री बाबू ने संकल्प लिया था कि “जब तक देश आजाद नहीं हो जायेगा, तब तक चैन से नहीं बैठूँगा”|
श्री कृष्ण सिंह ने महात्मा गांधी की अगुआई में सन् 1920, 1930, 1940 एवं 1942 ई० में संचालित राष्ट्रिय आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई| इन्होंने 10 वर्षों तक जेल की यातनाएं सहीं| 1916 ई० में उन्होंने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, बनारस में गांधी जी का भाषण पहली बार सुना और इतने प्रभावित हुए कि होमरूल आन्दोलन के सक्रिय हो गये| इन्होंने मुंगेर के गाँव-गाँव में घूमकर स्वराज का सन्देश किसानों को सुनकर उन्हें संगठित किया|
1920 ई० में गांधी जी से पहली बार साक्षात्कार के बाद ये वकालत छोड़ कर असहयोग आन्दोलन में सक्रिय हुए| उनके क्रांतिकारी भाषणों से जनता आंदोलित हो उठी| 1920 ई० के कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में श्री बाबू को 260 प्रतिनिधियों में सर्वप्रमुख प्रतिनिधि चुना गया| फलतः उनका कार्यक्षेत्र समस्त बिहार बन गया| 1921 ई० में ये एक साल के लिए गिरफ्तार कर लिए गये|
असहयोग आन्दोलन के स्थगित होने पर ये स्वराज दल से जुड़े| 1923 ई० में खड़गपुर में उन्होंने बिहार के जमींदारों द्वारा किसानों पर किये जाने वाले जुल्म के खिलाफ किसानों को संगठित किया| उस वक्त श्री बाबू किसान सभा के सचिव थे| किसानों की और से सिंहेश्वर चौधरी ने उन्हें ‘बिहार केसरी’ की उपाधि से विभूषित किया|
श्री बाबू के सहृदय, धर्म-निरपेक्ष होने की कई घटनाएँ सामने आती हैं| 1924 ई० में मुंगेर जिला परिषद के चुनाव में उन्हें सर्व सम्मति से अध्यक्ष मान लिया गया| किन्तु उन्होंने अपने अग्रज शाह मुहम्मद जुबैर, जो एक प्रतिष्ठित वकील थे, को अध्यक्ष बना कर खुद उपाध्यक्ष बने| 1930 ई० में जुबैर साहब की मृत्यु के पश्चात् ही इन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार किया|
नमक सत्याग्रह की घटना श्री बाबू के क्रांतिकारी विचार को खुल कर सामने रखती है| उस समय वो अस्वस्थ चल रहे थे, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद भी नहीं चाहते थे कि ऐसी परिस्थिति में श्री बाबू नमक सत्याग्रह में भाग लें| लेकिन श्री बाबू उस हालत में भी मुंगेर से 30-35 मील पैदल चलकर बेगुसराय मंडल के ‘गढ़पुरा’ ग्राम में नमक सत्याग्रह में भाग लेने पहुँचे| वहाँ श्री बाबू ने पुलिस पदाधिकारी द्वारा विरोध जताने पर, खुलते कड़ाहे की मूठ को दोनों हाथों से पकड़ लिया| हाथ में फफोले पड़ गये लेकिन श्री बाबू ने मूठ नहीं छोड़ी|
श्री बाबू वो शख्स रहे हैं जिन्होंने कभी चुनाव में हार नहीं देखी| 20 जुलाई 1937 ई० में ये बिहार के प्रधानमंत्री बने, किन्तु 1939 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को विश्वयुद्ध में झोंकने के खिलाफ आकर इन्होंने पद त्याग दिया| 1940 में पटना में छात्र-सभा में इन्होंने कहा, “न देंगे एक पाई, न देंगे एक भाई”| इसके बाद इन्हें पुनः 9 महीने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया|
आजादी के बाद जब-जब आम चुनाव हुए, श्री बाबू विजयी रहे| विशेष बात यह थी कि ये कभी वोट मांगने अपने कार्यक्षेत्र में नहीं गये| कई विरोधियों के बावजुद एवं स्वयं वोट मांगने न जाने के बावजुद भी ये हर बार विजयी हुए| ये एक निस्वार्थ देश सेवक का अपने कार्य पर विश्वास नहीं तो और क्या है!
श्री बाबू ने बिहार के विकास में कई कार्य किये| निर्विवाद रूप से ये कहा जाता है कि आज विकासोन्मुख बिहार में जो भी प्रगति का प्रबल स्तंभ दिख रहा है, उन सब की परिकल्पना श्री बाबू ने ही दी थी| बिहार में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर उन्होंने नया कीर्तिमान स्थापित किया| जमींदारों के शोषण से मुक्त होकर किसान प्रगति की ओर उन्मुख हुए| शोषण और दमन में पिसती अनुसूचित जनजातियों का उद्धार किया|
श्री बाबू पुस्तक प्रेमी और स्वाध्यायी थे| मुख्यमंत्री आवास में उनका एक निजी पुस्तकालय भी था, जिसको अंतिम समय में उन्होंने ‘मुंगेर सेवा सदन’ को दान कर दिया| श्री बाबू कहते थे, “ दुनिया में दो बड़ी चीजें हैं- एक बोलना, दूसरा लिखना| बोली और लेखन से हम अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाते हैं| तुलसी की बात हम नहीं जानते, यदि उनमें बोलने-लिखने की ताकत नहीं होती| भाव तो पैदा होकर खत्म हो जायेगा| छः हजार वर्ष पहले वेद की ऋचाएँ कही गईं| फिर गीता बोली गई| अब तो उनपर अनेक भाष्य और पुस्तकें बनकर तैयार हो गयी हैं| बोलने और लिखने की ताकत, इन्हीं दोनों से मनुष्य आगे बढ़ता है| आज पुस्तकों से ही संभव है कि कुछ ही वर्षों में लड़के सब जान लेते हैं, जिसे जानने में संसार को हजार वर्ष लगे थे|”
विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में विक्रम और स्वभाव में शीतलता श्री बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं| मैथली शरण गुप्त ने इन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था-
“तुम स्वराज संयुग के योद्धा,
सिंह निहिंसन-वृति-वितृष्ण,
लो, स्वीकार करो हे विजयी,
इन जन का भी- ‘जय श्री कृष्ण’|”
लम्बे समय तक राजनीति में रहते हुए भी श्री बाबू ने कभी अपने परिवारजन को राजनीति में शामिल नहीं होने दिया| वो वंशवाद के विरोधी थे| जब तक वो मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने अपने परिवार से किसी को टिकट नहीं दिया| यहाँ तक की उन्हें ये भी पसंद नहीं था कि उनके बेटे उनके मुख्यमंत्री आवास में रहें|
1961 ई० में श्री बाबू ने अंतिम साँसें लीं| उनके निधन के पश्चात् उनकी तिजोरी खोली गयी| उसमें एक बड़ा लिफाफा था, जिसके अन्दर 3 छोटे लिफाफे थे| एक लिफाफे में 22 हजार रूपये थे, जिसके ऊपर लिखा था कि इसे बिहार प्रांतीय काँग्रेस कमिटी को दे दिया जाये, जिसका मैं आजीवन सदस्य रहा| दूसरे लिफाफे में 2 हजार रूपये थे जो उनके महरूम मित्र, जो उनके मंत्रिमंडल के सदस्य थे, के दूसरे बेटे को समर्पित था, जो उस वक्त आर्थिक कठिनाई में थे| तीसरा लिफाफा, जिसमें 1000 रूपये थे, उनके अत्यंत निकट राजनीतिक शख्सियत के नाम पर उसकी पुत्री की शादी के अवसर पर देने के लिए थे| 40 वर्षों तक राजनैतिक शिखर पर रहने वाले, 17 वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहने वाले इंसान के पास जो भी पूंजी थी, वह किसी को दान में देने के लिए ही थे|
श्री बाबू के जीवन से जुड़ी कई ऐसी कहानियाँ मिलती हैं जो उनके निस्वार्थ देशभक्त होने का पुख्ता सबूत देती हैं| सिर्फ बिहार नहीं, वो देश की बात किया करते थे| ऐसे सच्चे देशभक्त को हमारा नमन| ऐसे सहृदय व्यक्तित्व, स्वतंत्रता के नायक को हम कभी भूल न पाएंगे| इनके जैसे मिसाल बहुत कम लोग स्थापित करते हैं| राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-
“कौन बड़ाई चढ़े श्रृंग पर, अपना एक बोझ लेकर?
कौन बड़ाई पार गये यदि, अपनी एक तरी खेकर?
सुधा गरल वाली यह धरती, उसको शीश झुकाती है
खुद भी चढ़े साथ ले झुककर, गिरतों को बांहें देकर||”