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#PadsForAll: महामारी और बाढ़ के बीच माहवारी के समस्याओं से जूझती महिलाएं

सरकार जब विभिन्न कोरॉना सेंटरों के लिए निर्देश जारी कर रही थी तब उसके किसी भी निर्देश में माह्वारी का कोई जिक्र नहीं था

आज पूरा देश कोरोना वायरस से जूझ रहा है और भारत के बिहार एवम् असम जैसे राज्य महामारी के साथ- साथ बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं से भी जूझ रहे हैं। ऐसे में हर कोई कोरोना मरीजों एवम् बाढ़ पीड़ितों के खाने -पीने एवम् रहने की चिंता कर रहा है। विभिन्न प्रकार के न्यूज़ चैनल भी सरकार की खामियां निकाल रहे हैं और सरकार से अपील कर रहे हैं की पीड़ितो को उचित इलाज़ एवम् उचित राहत सामग्री पहुंचाया जाए।

लेकिन यह शायद ही किसी न्यूज़ चैनल और अखबार का हिस्सा हो कि माहवारी के दिनों में महिलाएं अपना कैसे गुजर बसर  कैसे कर रही हैं। असम के बाढ़ को तो फिर भी मीडिया अटेंसन मिला है इसीलिए वहां के कुछ न्यूज़ क्लिप से पता चलता है कि माहवारी के दिनों में औरतों के पास नाही पैड्स है नाही कोई दवाई। लेकिन बिहार के किसी भी रिलीफ कैंप से ऐसी कोई खबर नहीं आई है। लेकिन इस तरह की खबर मीडिया का हिस्सा बनने से ऐसी समस्याएं समाप्त तो नहीं हो जाती। रिलीफ कैंप में बहुत कम ही महिला पत्रकार जाती हैं और यदि जाती भी है तो इस प्रकार के सवाल पूछने का कष्ट नहीं उठाती है लेकिन क्या इससे महिलाओं की समस्याएं समाप्त हो जाती हैं?

सवाल यह उठता है कि अन्य समस्याओं की तरह माहवारी के दिनों में गंदगी, पैड्स और दवाइयों का ना होना भी जरूरी समस्या है लेकिन हमारा समाज महिलाओं के इन समास्याओं को महत्वपूर्ण नहीं मानता।

सरकार जब विभिन्न कोरॉना सेंटरों के लिए निर्देश जारी कर रही थी तब उसके किसी भी निर्देश में माह्वारी का कोई जिक्र नहीं था। जब सरकार जरूरी सामग्री की सूची तैयार कर रही थी तब भी उसमें सैनिटरी पैड्स शामिल नहीं था। क्या सरकार के इस नजरंदाज रवैए से महिलाओं की समस्याएं समाप्त हो जाएंगी?  जब किसी भी आपदा या महामारी पर न्यूज कवर होता है तो उसमें धर्म एवम् जाति का तड़का जरूर लगता है लेकिन हर महामारी एवम् आपदा महिलाओं को किस तरह से प्रभावित करता है यह बहुत कम ही न्यूज का हिस्सा बन पाता है।

माहवारी: एक गुप्त विषय

माहवारी यानि कि पीरियड्स जो आज भी भारत के कई क्षेत्रों में गुप्त विषय है, जिसे औरतें मर्दों के समक्ष बात करना उचित नहीं समझती है और नाहि पुरुष समाज भी इस विषय में बात करने में रूचि रखता है। हालांकि पैडमैन जैसी फिल्में यह दर्शाती है कि इस गुप्त विषय को काफी हद तक सार्वजनिक बनाने का प्रयास एक पुरुष ने ही किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे कितने पुरुष हमारे समाज में है जो महिलाओं के शारीरिक परेशानियों का ख्याल रखते हैं? मेरी समझ में ऐसे पुरुषों की संख्या न के बराबर ही है। वह पैडमैन जैसी फिल्मों को सीख का माध्यम नहीं बल्कि उसे एक मनोरंजन का जरिया मानते हैं।

हमारे समाज में खास कर ग्रामीण इलाकों में आज भी पीरियड्स एक गुप्त विषय है। महिलाओ को जब भी माहवारी आती हैं उन्हें उन दिनों के लिए अशुद्ध माना जाता है। बहुत से जगह उनका बिस्तर- बर्तन सब अलग कर दिया जाता है और इस तरह से हम महिलाएं भी कुछ दिनों के लिए अश्पृश्यता अनुभव कर लेती हैं।

यदि हम माहवारी कि समस्या देखे तो कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने निकल कर आती हैं। जिनमे से बहुत सी स्कूल की छात्राएं माहवारी के दिनों में स्कूल नहीं जाती हैं। कई लड़कियां माहवारी आते ही स्कूल सदा के लिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके पास नाही सैनिटरी पैड्स होते हैं नाही माहवारी के दिनों में होने वाले पेन (दर्द) की कोई दवा।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के अनुसार भारत के 56% महिलाएं ही सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल करती हैं। बची हुई 44% महिलाएं सैनिटरी पैड्स इस्तेमाल नहीं करती हैं, जाहिर सी बात है कि ये महिलाएं अन्य चीजों का इस्तेमाल करती हैं यानि कि पुराने कपड़े, राख, बालू, रूई, सूखे पत्ते और न जाने क्या क्या।

जब हम आस पड़ोस की महिलाओं से बात करते हैं तो पहले वह इस बारे में बात नहीं करना चाहती है। बहुत ही मुश्किल से वह अपनी बात बताती हैं तो यह पता चलता है कि वह अभी भी पुराने कपड़े का इस्तेमाल करती है। जब हम उन्हें सैनिटरी पैड्स की जानकरी देते हैं तो वह इसे उपयोग करने में झिझकती है। कई महिलाओं के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि वह महीने के सौ रुपए सैनिटरी पैड्स पर खर्च करे। भारत के कई स्कूलों में अब पैड बैंक खोल दिए गए हैं लेकिन बहुत सी लड़कियां जो स्कूल नहीं जाती हैं वह अभी भी सैनिटरी पैड्स से बहुत दूर है।

माहवारी से जुड़ी समस्याएं

भारत के अधिकांश लड़कियां माहवारी के बारे में नहीं जानती है जब तक उन्हें पहला अनुभव प्राप्त नहीं होता। हमारे समाज में अभी भी यह एक गुप्त विषय है जिस वजह से इससे जुडी हुई समस्याएं हमारे समक्ष बाहर नहीं आ पाती हैं। माहवारी को अभी भी अशुद्ध माना जाता है जिनमे महिलाओं का पूजा करना, खाना बनाना और भी शुभ कार्य वर्जित होते हैं। माहवारी के दिनों में बहुत सारे मानसिक तनाव एवम् शारीरिक परेशानियों आती हैं जिनका उचित उपचार महिलाओं को मिल नहीं पाता है।

कोरोंना काल एवम् बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं में महिलाओं के इस समस्या को नजरंदाज कर दिया जाता है। केंद्र सरकार एवम् किसी भी राज्य सरकार के जरूरी सामानों कि सूची में कभी भी सैनिटरी पैड्स को शामिल नहीं किया जाता है।  बहुत सारे आइसोलेशन वार्ड या क्वारंटीन सेंटरों में महिलाओं को नाही सैनिटरी नैपकिन दिए जाते है नाही पानि कि और साफ- सफाई की उचित व्यवस्था की गई है। भारत के दो राज्य असम एवम् बिहार इन दिनों कोविड एवम् बाढ़ दोनों परेशानियों से जुझ रहा है ऐसे में महिलाओं के इस समस्या पर शायद ही किसी भी सरकार का ध्यान जाता है। असम के रिलीफ कैंप में महिलाओं के पास सैनिटरी पैड्स नहीं है नाही उनके लिए सेपरेट टॉयलेट। ऐसे में महिलाओं में किसी भी प्रकार का संक्रमण आसानी से फैल सकता है।

कोवीड-19 के कारण स्कूल बंद होने से बहुत सी  को सैनिटरी पैड्स नहीं मिल पा रहे हैं ऐसी स्थिति में वह फिर असुरक्षित माध्यमों जैसे पुराने कपड़े, रूई इत्यादि का इस्तेमाल करने को मजबुर है।

समस्याओं के उपाय

सर्वप्रथम इस गुप्त विषय को सार्वजनिक किया जाए। स्कूल के अलावा हर गली मोहल्ले में पैड बैंक का प्रयोजन किया जाए जिससे महिलाओ को आसानी से और उचित दाम पर सैनिटरी पैड्स मिल सके। माहवारी के दिनों में होने वाले पेन रिलीफ का भी इंतजाम किया जाए। और कृपया इसे अशुद्धता से ना जोड़ा जाए। इन सब कामों के लिए हम सरकारी मदद की कामना करते हैं और सरकार से निवेदन है कि इस समस्याएं से जुड़ी सामाजिक संस्थाओं की मदद ली जाए, और  उनके सुझाव को भी ध्यान में रखते हुए कोई भी नीति का निर्माण किया जाए।

मेरा सरकार से यह भी अनुरोध है कि किसी भी नीति के निर्माण से पहले एक बार इस विषय पर UNICEF के  निर्देश जरूर पढ़ ले। यदि देश एवम् राज्य किसी महामारी एवम् आपदा से जुझ रहे हो तो राहत सामग्री में सैनिटरी पैड्स एवम् पेन रिलीफ भी इंतजाम किया जा और इसे जरूरी सामानों की सूची में भी शामिल किया जाए। यदि कोई व्यक्ति एवम् कोई संस्था बाढ़ पीड़ितो के लिए सामग्री दे रहे हो तो मेरा उनसे आग्रह कि कृपया उनमें सैनिटरी पैड्स जरूर दे।

#padsforall

– ऋतु (शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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