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मैं बिहार बोल रहा हूँ, दुखी बहुत हूँ, आज हृदय को खोल रहा हूँ (भाग -2)

(आत्मावलोकन अध्याय)
सुनो मेरी संतानों हाय, मैं तो बोल रहा बिहार हूँ,
रोज अधोगति को पाता हूँ, फिर भी खड़ा बिहार हूँ,
जहाँ जातिवाद का हल्ला है, मैं तो वही बिहार हूँ,
जहाँ भ्रष्टाचार ही फैला है, मैं वही बिहार हूँ,
रंगदारी जहाँ फल-फूल रही, मैं तो वही बिहार हूँ,
शिक्षा व्यवस्था की बदहाली पर, जिसकी चहुँ ओर ही चर्चा है,
कुछ घोटालों के ही कारण, मेरी सर्वत्र ही चर्चा है,
कभी जहाँ के शिक्षक गुरुजन, पाते थे अपार सम्मान,
आज वे कहलाते हैं बोझ, उनका होता नित्य अपमान,
घर घर होती जहाँ राजनीति, मैं तो वही बिहार हूँ,
गायब हो रही जहाँ से प्रीति, मैं तो वही बिहार हूँ,
अतीत था मेरा गौरवशाली, वर्तमान क्यों है बिगड़ा ?
तुम्हीं बताओ मेरे पुत्रों, क्यों छोड़ दिया मुझे देकर पीड़ा ?
वर्तमान की बुनियादों पर, भविष्य के सुन्दर फूल खिलेंगे,
बनाओगे यदि वर्तमान सुनहरा, नहीं बच्चों को शूल मिलेंगे ।
मेरे पुत्रों ! मेरी संतानों ! मैं बिहार, आज स्वयं, तुम सबसे मुखातिब हूँ । मुझे यह स्पष्ट करने की कोई जरूरत नहीं है कि मुझे मेरी सभी संतानों (चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों) से समान रूप से प्रेम है फिर भी आज के हालात में करना पड़ रहा है । मेरी सभी संतानों को सौगंध है मुझ बिहार की, मेरी मिट्टी की, तुम मेरी बातों के बीच से पलायन नहीं करोगे। पूरी बात सुनोगे और आत्मचिंतन करोगे। तुम सबने भी मुझे आज बोलने के लिए बाध्य किया है। आज मैं तुम सबसे बात करूँगा वह भी खरी-खरी, बिना किसी लाग़-लपेट के। आज मेरे वचन भले ही वेधनेवाले हों, मेरी बातें चोट करनेवाली हों, मैं तो दो टूक बोलूँगा। बुरा मानो या भला—आज मेरी आवाज़ तुम्हें सुननी ही पड़ेगी। हाँ, मेरी बात सुनने के बाद तुम सब अपनी बात कहने के लिए, अपनी राय देने के लिए स्वतंत्र हो।

सबसे पहली बात कि मेरे पुत्र अतीत-प्रेमी बहुत हैं। वे मेरे गौरवशाली अतीत की चकाचौंध में खोए रहते हैं पर उससे प्रेरणा लेकर बदहाल वर्तमान को विकास पथ पर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। अपने सुनहरे अतीत पर गर्व होना ही चाहिए, पर यदि मेरे पुत्र अतीत की ही सीढ़ियों पर खड़े रह जाएंगे तो वर्तमान की सुनहरी नींव का निर्माण कैसे हो पाएगा ? अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए, वर्तमान को सही दिशा में आगे बढ़ाते हुए, भविष्य को प्रकाशमान बनाना ही तो सच्चा प्रयास होगा। इसलिए हे मेरी संतानों, उठो, तुम्हारा अतीत गौरवशाली है, अपना-अपना योगदान देकर वर्तमान को वैभवशाली बनाओ, भविष्य स्वयं ही सुदृढ़, सबल, सतेज और समृद्धिशाली हो जाएगा।
मेरी संतानें जातिवाद की दलदल में फंसी हैं और उसमें से अधिकांश बाहर आना भी नहीं चाहते। यहाँ हर व्यक्ति से उसकी योग्यता नहीं, बल्कि उसकी जाति पूछी जाती है, मानो कि जाति ही योग्यता की मानक हो। इस जातिवाद ने मुझे गहरे घाव दिए हैं और नासूर का यह सिलसिला अभी रुका नहीं है। यह जातिवाद मेरे शरीर के हर हिस्से पर नासूर बनाकर मुझे सुन्न कर देना चाहता है। मेरा सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। मेरे लाखों संतानें हर रोज इस जातिगत भेदभाव का शिकार होती हैं जबकि भारत का संविधान इस भेदभाव को समाप्त करने की घोषणा करता है। इस जातिवाद के दंश से दुखी मेरे पुत्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को लिखना पड़ा—‘अब तुम जाति की सुविधा के बिना न यहाँ कोई दोस्त पा सकते हो, न प्रेमी, न प्रशंसक और न कोई मददगार। जय हो यहाँ की राजनीति की। और सुधार कौन करे-–जो सुधार के लिए खड़ा होगा उस पर अलग किस्म के प्रश्नों की बौछार होगी। यहाँ चारों ओर रेगिस्तान है, चारों ओर कैक्टस लैंड का प्रसार है। इस कारण सबसे दूर, सबसे अलग, आजकल सिमटकर अपने घर में घुस गया हूँ।’ ‘जाति-जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड’ तथा ‘जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर’– की हुंकार भरनेवाला मेरा पुत्र दिनकर खुद आजीवन जाति-दंश से पीड़ित रहा। मेरे सरकारी कार्यालयों—चाहे वे राज्य सरकार की हों या केन्द्र सरकार की—हर जगह जातिवाद के साम्राज्य का प्रसार है। आपकी योग्यता आपके ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार आदि होने पर निर्भर करती है। इन्हीं जातिगत कारणों ने मुझे मेरे अन्य मित्र राज्यों से पीछे धकेल दिया। आज तो सवर्ण, दलित, महादलित, भीम सेना—और भी न जाने क्या-क्या मुद्दे यहाँ की राजनीति में पसरे रहते हैं और जो मुख्य मुद्दा है—विकास का—वह तो न जाने रास्ते के किस मोड़ पर छूट गया—न ही राजनेताओं को पता चला और न ही समाज के ठेकेदारों को। विकास के गले पर हमेशा जाति की तलवार लटकी रही। चुनाव में जाति के आधार पर टिकट का बँटवारा, मंत्रिपरिषद के गठन में जाति के आधार पर कोटा, जाति के आधार पर परीक्षा में उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण, जाति के आधार पर नियुक्ति—कितना गिनाऊँ ! हर जाति के लोग चाहे कितने पढ़े-लिखे क्यों न हो, अपनी ही जाति के उम्मीदवार को वोट करना चाहते हैं भले ही वह अपराधी ही क्यों न हो ! कभी मंडल-कमंडल पर हाहाकार मचता है, कभी कोई ‘भूरावाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लालाजी) साफ़ करो’ का नारा देता है, कोई दलित-विरोधी अभियान चलाता है, कोई जातिविरोधी अम्बेडकर के नाम पर ही जाति रखता है-सेना बनाता है। क्या कहूँ अब ? अम्बेडकर ने साफ-साफ कहा था कि जबतक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता तब तक समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अम्बेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अम्बेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है, लेकिन आज जातिगत आधार पर ही राजनीतिक दल सत्ता हथिया रहे हैं। आज़ादी के कुछ वर्षों बाद ही बिहार की राजनीति में जाति की दूषित अवधारणा को प्रश्रय देकर मेरी ही संतान राजनेताओं ने सिद्ध कर दिया कि वे स्वहित के लिए जनहित की भी बलि देने को तैयार हैं। मेरे यहाँ कल-कारखाने तो नहीं लगे पर मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं ही एक विशाल कारखाना बन गया हूँ जहाँ विभिन्न जातियों के संघर्षों के कल-पुर्जे कोलाहल करते हैं। अरे मेरी संतानों ! अब भी तो जागो। कितने दिनों तक इस क्षुद्र जाति को ढ़ोते रहोगे और झूठे आत्माभिमान में जीते रहोगे ? उठो, तोड़ो और फेंक डालो इस जाति के जुए को अपने कन्धों से। ‘जाति वह है जो कभी नहीं जाती’—इस मिथक को गलत प्रमाणित करो। जब तक यह जातिवाद की विषवल्लरी समाज, धर्म और राजनीति में अपनी पैठ बनाए रखेगी तब तक मुझ बिहार का कल्याण नहीं होगा। मेरी आँखों के आंसुओं को देखो मेरी संतानों और यह प्रयत्न करो कि पुनः इन आँखों में आँसू न आएं। मैं तो अपनी संतानों से सिर्फ कह ही सकता हूँ बाकी तो जो करना है तुमको ही करना है। मुझे शूल दो या फूल दो—यह तुम पर निर्भर है। जिस समाज में प्रतिभा की जगह जाति की पूजा होती है, वह समाज निरंतर कुंठा और निराशा की आग में जलता रहता है। जातिवाद के ज्वालामुखी पर बैठाकर मुझे विनाश की ओर धकेल दो या इस ज्वालामुखी को निष्क्रिय कर मुझे एक नवजीवन प्रदान करो—यह तुम्हारी इच्छा।

जातिवाद है क्यों बना, मुझ बिहार की पहचान ।
इसको खत्म करके बढाओ, तुम बिहार की शान।।
जल्द-से-जल्द तुम इसको भगाओ, वरना यह खा जाएगा।
अतीत रहेगा इतिहासों में, वर्तमान दफ़न हो जाएगा।।

बाहर के लोगों की नजर में बिहार और भ्रष्टाचार समानार्थी बन चुके हैं। यूँ तो यह देशव्यापी समस्या है पर मैं तो अपनी ही बात करूँगा। हर स्तर पर भ्रष्टाचार है–राजनैतिक भ्रष्टाचार, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, सरकारी नौकरी में भ्रष्टाचार, पुलिस भ्रष्टाचार, संस्कृति के उत्थान के नाम पर भ्रष्टाचार, बाढ़-सूखा भ्रष्टाचार—कितना गिनाऊं ! नेताओं की भ्रष्टाचारिता तो जगजाहिर है I पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका के भ्रष्टाचार से समाज का एक बड़ा तबका त्रस्त है। बाहर वाले मेरे यहाँ की पुलिस की पहचान उनके निकले हुए तोंद से करते हैं। उनकी तोंद को उनके रिश्वतखोर होने का प्रमाण माना जाता है। पर मेरी पुलिस में ईमानदारों की भी कमी नहीं है। पुलिस के जवानों की तोंद उनकी ड्यूटी की अनियमितता और काम के तनाव की वजह से भी होती है। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार यहाँ के सिस्टम में जड़ जमाए हुए है और यह भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह हिलने को तैयार नहीं है। जब तक ईमानदारी का हनुमान-पद यहाँ के कण-कण में स्थापित नहीं होगा तब तक यह भ्रष्टाचार नहीं उखड़ने वाला है। हे मेरे ईमानदार पुत्रों, ईमानदार बने रहो और दूसरों को भी प्रेरित करो। हे मेरे भ्रष्टाचारी संतानों, तुम भ्रष्टाचार को त्यागो और ईमानदार बनो—अन्यथा अगली बार मैं तुमलोगों से दो टूक कहने भी नहीं आऊँगा—सीधे मेरे सपूत क्रांति-यज्ञ करेंगे और तुम सब उसमें स्वाहा हो जाओगे।
मेरे पुत्रों को दहेज़ प्रथा से बहुत प्रेम है। यह बात सिर्फ मैं नहीं कह रहा, दूसरे राज्यों वाले मजे ले-लेकर बिहार की दहेज़ प्रथा की चर्चा किया करते हैं। यह दहेज़ मेरे जिस्म पर लगाया गया भयानक कोढ़ है, यह मेरे सुनहरे अतीत के पाक दामन पर वर्तमान के कलंक का धब्बा है। यह विवाह के नाम पर घृणित घूस है। समाज के अभ्यंतर में गहराई तक अपने पाँव जमा चुकी इस कुरीति को हटाया जाना बहुत जरूरी है—तभी मेरा पुनरुत्थान संभव है। किन्तु इसके भी दो पक्ष हैं—लड़के वाले लड़की वालों से एक नियत राशि और सामग्री की आशा करते हैं और लड़की वाले लड़के वालों से लड़की के लिए एक नियत राशि की जेवर-सामग्री। दोनों अपनी मांगें छोड़ दें। दोनों ही एक दूसरे को अति-आवश्यक चीजें छोड़कर कुछ न दें। हालाँकि दहेज़ उत्पीड़न कानून भी अस्तित्व में है, पर लड़की पक्ष द्वारा इसका दुरूपयोग ही अधिक हुआ है। हाल में बिहार सरकार ने दहेजबंदी की घोषणा की है—देखना होगा कि इसे किस तरह लागू किया जाता है ! खैर इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज का रक्त चूसने वाली और इसे विकलांग बना देने वाली मेरे माथे के कलंक इस दहेज़ प्रथा का समूल विनाश करना ही होगा। और इसके लिए मैं अपने नवयुवक कुंवारे पुत्रों का आह्वान करता हूँ—एक तुम ही ऐसे वर्ग हो जो इसके विरुद्ध दृढ़ संकल्पित होकर आदर्श विवाह का उदाहरण पेश कर सकते हो।
मेरी प्यारी संतानों ! मुझे बहुत दुःख होता है, अपार कष्ट पहुँचता है जब मेरी ही संतानें हाथ में हथियार उठाकर गैर-कानूनी कृत्य करती हैं, निर्दोष जनों की हत्या कर डालती हैं, माओवाद और नक्सलवाद के विचारात्मक विचलन से प्रभावित मेरी संतानें अपने ही भाइयों के खिलाफ शस्त्र उठाती हैं, शोषितों को न्याय दिलाने की आड़ में खुद जनता का शोषण करती हैं, दहशत के माहौल का निर्माण करती हैं, जिसका प्रभाव बहुआयामी और दूरगामी होता है। नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों का विकास रूक जाता है, शिक्षा व्यवस्था चरमरा जाती है, लोग डरे-सहमे रहते हैं और कोई रचनात्मक कार्य सोच नहीं पाते, कोई उद्योग-धंधे नहीं लगाता, रोजगार के अवसर ही पनप नहीं पाते और कई पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। भारत के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित 35 जिलों में से आधे दर्जन बिहार से ही हैं। क़ानून-व्यवस्था को मजबूत करने का काम सत्ता का है, पर मैं तो यही चाहूँगा कि मेरी संतानें देश और क़ानून की रक्षा के अतिरिक्त हथियार उठाए ही नहीं और जिन्होंने उठा लिया है उनसे—उन अपनी भटकी हुई संतानों से–मैं बिहार अपील करता हूँ कि हथियार छोड़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएँ I अपनी ही संतानों का अंधकारमय भविष्य देख-देख मेरी आँखों की शक्ति अब क्षीण होने लगी है।

मुझे मेरी उन संतानों पर गर्व है जो कठिन मेहनत कर आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस., इंजीनियर, डाक्टर, सफल बिजनेसमैन, प्रतिष्ठित कम्पनियों के प्रमुख आदि बने। पर इन संतानों से मुझे शिकायत भी है, गिला-शिकवा भी है—इनमें से अधिकांश जब ज्यादा विकसित राज्यों या देशों में चली गईं तो उन्होंने सपरिवार वहीं बसना ज्यादा पसंद किया। उन्होंने मुझसे अपने संपर्क काट लिए, मेरे विकास में रत्ती-भर योगदान नहीं किया और इस तरह मेरे विकास में अपनी भूमिका से पलायन कर गए। कोई भी नौकरशाह या अन्य अधिकारी अपनी सेवानिवृत्ति के बाद बिहार में नहीं बसना चाहता। उन्होंने सिर्फ बिहार से ही पलायन नहीं किया बल्कि अपनी जन्मभूमि के प्रति अपने कर्तव्य से भी पलायन किया है—बात कड़वी है पर सत्य है। बिहार को कोसते रहना आसान है पर उसके विकास में अपना योगदान देना कठिन। मेरी ये संतानें बाहर मेरी ही बुराइयाँ करती हैं—बिहार नहीं सुधरेगा, लोग नहीं सुधरेंगे वगैरह-वगैरह। पर जब इनसे पूछिए कि बिहार की बेहतरी के लिए आपने क्या किया तो इन्हें सांप सूँघ जाता है। ये सब देखकर मुझे कितनी पीड़ा होती है, ये मैं ही जानता हूँ।
मेरे लिए सबसे बड़े दुख का विषय है कि मेरे ही पुत्र पलायन कर दूसरे राज्यों में काम-धंधे की तलाश में जाते हैं और वहाँ की अर्थव्यवस्था बेहतर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि उन्हें यहीं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होते तो वे बेचारे अपनों से दूर पलायन नहीं करते। राजनेताओं और गुंडों के नापाक गठबंधन ने मेरे यहाँ रंगदारी टैक्स को जन्म दिया जिस कारण उद्योगपतियों ने बिहार में निवेश करने से पाँव पीछे खींच लिए, जो छोटी-मोटी फैक्ट्रियाँ भी लगाना चाहते थे, इन गुंडों और रंगदारों के कारण वे भी सफल नहीं हो पाए। पर क्या करूँ—ये अवांछित तत्व भी तो मेरी ही संतानें हैं। उनसे मेरी अपील है कि ये गोरखधंधा बंद करें, अपनी जबान सी लें और सकारात्मक कार्य में अपनी ऊर्जा लगाएँ। अन्यथा जिस तरह विष प्रभावित अंग को काट दिया जाता है ताकि बाकी अंग सुरक्षित रहें वैसे ही मेरी योग्य संतानें इन विषैलों को काट डालेगी।

मुद्दे और बातें तो सुरसा के मुख की भांति अनंत है। क्या कहूँ और क्या न कहूँ ? कितना भी कहूँ मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है। अभी तो शिक्षा का विराट क्षेत्र बाकी है। पर मेरे पास भी समय कम है और आप सबके पास भी। इसलिए बाकी बातें मैं फिर कभी करूँगा। फिलहाल तो अपनी संतानों से यही कहते हुए मौनावस्था धारण करता हूँ—-

मेरे पुत्रों, मेरी पुत्रियों, तुम सब मेरी संतान हो
मुझ बिहार के घर-आँगन की, तुम सब मेरी पहचान हो
गोद में मेरे खेले तुम तो, मेरे तुम सब दुलारे हो
कोई धर्म हो, हो कोई जाति, तुम सब मुझको प्यारे हो
मेरी आँखों के आंसू फिर, क्यों नहीं तुमको दिखते हैं ?
प्रेम, समर्पण और ईमान क्यों, चन्द रूपये में बिकते हैं ?
जाति बड़ी है? रुपए बड़े हैं? मेरे आँसू का मोल नहीं क्या ?
बोलो बेटों, मेरी बेटियों, मेरी बातों का तोल नहीं क्या ?
मैं कुछ अब तो नहीं कहूँगा, अब ये सोचो तुम ही खुद तो
इस बिहार को स्वर्ग बनाओ या फिर नरक ही रहने दो
मेरा क्या है, किसी कोने में आँसू बहाता पड़ा रहूँगा
डरता हूँ बस नई पीढ़ी से, मैं कैसे चुपचाप रहूँगा
उनके धधकते सवालों के जवाब मैं कैसे करके दे पाऊँगा
बेशर्म बना मैं मौन धरूंगा, और निरुत्तर बना रहूँगा

क्या आप सब यही चाहते हैं ?———आपका बिहार

(यह लेख ‘मैं बिहार बोल रहा हूँ’ श्रृंखला का दूसरा भाग है I जल्द ही इसका तीसरा भाग भी आपके सम्मुख होगा I अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं I आपका अपना— अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार )

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