बिहार में गाँधी का बुनियादी स्कूल

1917 में चंपारण आंदोलन के समय जब गाँधी बिहार आये थे तो उन्होंने 3 विद्यालयों की स्थापना की। 13 नवम्बर, 1917 को बड़हरवा लखनसेन में प्रथम निशुल्क विद्यालय की स्थापना की। उसके बाद अपनी ही अपनी देख-रेख में 20 नवम्बर, 1917 को एक स्कूल भितिहरवा और फिर 17 जनवरी, 1918 को मधुबन में तीसरे स्कूल की स्थापना की।

इन विद्यालयों के अलावा बिहार में बड़े स्तर पर बुनियादी स्कूल स्थापित करने की शुरुआत 1938 में हुई। उस समय बुनियादी शिक्षा से संबंधित ज़ाकिर हुसैन समिति की रिपोर्ट 1938 में प्रकाशित हुई थी।

इसपर उसी वर्ष आयोजित हरिपुरा कांग्रेस में चर्चा हुई। वहां पर बुनियादी शिक्षा के इस मॉडल को अपनाने पर बातचीत हुई। 7 कांग्रेस शासित प्रदेशों ने बेसिक शिक्षा के इस विचार को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया शुरू की, जिसमें बिहार सबसे अग्रणी था।

दिसंबर, 1938 में बिहार बेसिक एजुकेशन बोर्ड को तत्कालीन शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में बनाया गया। 7 अप्रैल, 1939 को महात्मा गांधी के शिक्षा मंत्र के आधार पर चम्पारण के प्रजापति मिश्र और रामशरण उपाध्याय के नेतृत्व में वृन्दावन क्षेत्र में 35 बुनियादी स्कूल खोले गए। इन बुनियादी स्कूलों में कक्षाएं पहली से लेकर सांतवी तक चलती थी। बेसिक एजुकेशन बोर्ड के नियम भी एक वर्ष के भीतर अर्थात दिसंबर 1949 तक निर्धारित कर दिए गए।

1949 से लेकर 1957 तक बिहार में बेसिक शिक्षा तीन श्रेणियों में संस्थागत तरीके से विकसित हुई थी- जूनियर बेसिक एजुकेशन स्कूल (कक्षा 1 से 5), सीनियर बेसिक एजुकेशन स्कूल (कक्षा 6 से 8) और पोस्ट-बेसिक एजुकेशन स्कूल (कक्षा 9 से 11)। इसके साथ ही शिक्षकों के प्रशिक्षण संस्थान भी स्थापित किये गए।

बाद में पहले पंचवर्षीय योजना में गाँधी के शिक्षा कार्यक्रम को लागू करने के लिए संस्थागत तरीके से कार्य करने की बातें तो हुई लेकिन उसपर कोई प्रगति नही हुई।

स्वतंत्रता के लगभग 10 वर्षों बाद ही इसकी उपेक्षा शुरू हो गई। हालत तो ये हो गई कि जो भितिहरवा गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का सबसे प्रमुख केंद्र बना, वही स्थापित विद्यालय की स्थिति बेहद ख़राब हो गई। 1964 में यह स्कूल आश्रम के पास नए परिसर में चला गया। इसकी वजह यह है कि 1959 में देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ज़ाकिर हुसैन आश्रम आए और जब उन्होंने स्कूल की दशा देखी तो उन्हें काफी दुख हुआ। उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेजा कि इसका बेहतर तरीके से संचालन हो।

70 के दशक आते आते सरकार नीजी स्वामित्व वाले प्राथमिक और मिडिल स्कूलों के अधिग्रहण में लग गई तो ऐसे स्कूल और उपेक्षित हो गए। केवल कागजों में बिहार बेसिक एजुकेशन बोर्ड कायम रहा। इनमें होने वाली नियुक्ति और सेवा शर्तें भी अलग ही रही। 1968 में बिहार सरकार ने सयेद्दीन समिति की सिफारिशों को मानते हुए बेसिक एजुकेशन स्कूल को सामान्य स्कूल एजुकेशन व्यवस्था के साथ सम्मिलित कर दिया और यहाँ भी बाकी स्कूलों के पाठ्यक्रम लागू कर दिए गए।

16 मार्च 1972 से सरकार के अधीन आये सभी बुनियादी स्कूलों में एकीकृत पाठ्यक्रम कक्षा 1 से लेकर 8 तक में लागू कर दिए गए। बुनियादी विद्यालयों की सरकारी उपेक्षा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 7 मार्च 1979 से लेकर 1 नवंबर 1991 तक बेसिक एजुकेशन बोर्ड की कोई भी बैठक शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में आयोजित नही हुई। इस अवधि के बाद भी कोई और बैठक हुई, इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

वर्ष 2000 में जब बिहार बंटवारा हुआ तो बिहार के हिस्से में 391 बुनियादी विद्यालय आये। इसमें अकेले पश्चिमी चंपारण में ही 43 स्कूल है। बंटवारे से पहले 518 बुनियादी स्कूल थे, जिनके पास 2500 एकड़ ज़मीने थे। यानी प्रति स्कूल कम से कम 4।82 एकड़। इसके अलावा इन विद्यालयों में बड़ी संख्या में कक्षा-कक्ष, शिक्षकों के आवासीय परिसर, तालाब, पेड़, कृषि कार्य करने के औजार सहित अन्य संपत्तियां थी।

आज बेसिक एजुकेशन बोर्ड को खत्म करने का कोई आदेश नही है, लेकिन बोर्ड का कोई अस्तित्व नही दीखता। बोर्ड के अधिकारीयों और कर्मचारियों को दुसरे विभाग में भेज दिया गया। सरकार द्वारा बुनियादी विद्यालयों की स्थिति सुधारने की कोशिश भी हुई। 1999 से 2004 के बीच दो समिति भी बनी कि बेसिक एजुकेशन बोर्ड को रहने दिया जाए या खत्म कर दिया जाए मगर किसी ने कोई रिपोर्ट नही सौंपी।

जब 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी तो मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में 10 सितंबर 2006 को एकसमान विद्यालय प्रणाली पर एक कमिटी बनाई गई, जिसने 8 जून 2007 को रिपोर्ट सौंपी थी।

मुचकुंद दुबे समिति ने अपनी तमाम सिफारिशों के साथ साथ बुनियादी विद्यालयों से जुड़े कई सुझाव सरकार को सौंपे।

समिति का मानना था कि जिन सिद्धांतों को लेकर इन बुनियादों विद्यालयों की स्थापना हुई थी, उसे हुबहू लागू करना मुश्किल है लेकिन उत्पादक कार्य को शिक्षण-शास्त्रीय माध्यम (Pedagogic Medium) के रूप में ज्ञान अर्जित करने, मूल्यों को विकसित करने, कौशल हासिल करने जैसे लक्ष्यों को गांधीवादी सिधान्तों को अपनाया जा सकता है। इसके लिए अगले 5 वर्षों में पाठ्यचर्या में बदलाव लाना पड़ेगा।

समिति ने 391 बुनियादी स्कूलों में से 150 को राज्य बुनियादी शिक्षा पाठ्यचर्या विकास केंद्र के रूप में चयनित कर इन्हें ‘स्कूल लैब’ के रूप में विकसित करने की बात कही।

इन विद्यालयों को 3 काम सौंपे गए-

(1) संदर्भ-आधारित कार्य-केन्द्रित पाठ्यचर्या का प्राथमिक स्तर पर विकास करना और इसे उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों के स्तर तक ले जाना,

(2) शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण आयोजित करना, जिसका विस्तार कालांतर में पूरी स्कूली व्यवस्था के लिए होगा।

(3) शिक्षकों द्वारा एक्शन-रिसर्च किये जाने को बढ़ावा देना ताकि शिक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित सुझाव सतत और गतिशील सुधार के लिए मिल सकें।

समिति ने यह सिफारिश की थी कि राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्(SCERT) में एक बुनियादी शिक्षा संसाधन कोषांग स्थापित किया जाए जो कार्य-केन्द्रित पाठ्यचर्या (Work-centred curriculum) बना सकें। इसे पहले प्राइमरी और मिडिल, बाद में सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी स्कूलों तक ले जाने की बात कही गई थी।

बुनियादी शिक्षा संसाधन कोषांग (BSSK) को शिक्षक शिक्षा, पाठ्यचर्या विकास, मूल्यांकन के लिए नए फ्रेमवर्क बनाने और कार्य आधारित पाठ्यचर्या को स्कूली व्यवस्था में संस्थागत बनाने के लिए दिशाबोध और समन्वय का काम सौंपा गया। राज्य स्तर के चिंतकों और शिक्षक शिक्षा में जुटे 40-50 लोगों के समूह के साथ बुनियादी शिक्षा चिंतन समूह (BSCS) बनाने की बात कही गई जो स्कूली व्यवस्था और शिक्षक शिक्षा के लिए नई दिशाबोध करने, चल रहे कार्यों की समीक्षा और ज़मीनी स्तर पर 150 बुनियादी शिक्षा पाठ्यचर्या विकास केंद्र(BSPVK) के कार्यों में भाग लेने की जिम्मेवारी सौंपने की बात कही गई। इसके एक तिहाई सदस्य BSPVK के होंगे|

अफ़सोस इस समिति के सिफारिशों पर अमल नही हुआ।

2012 में फिर से इन बुनियादी विद्यालयों की एकाएक चर्चा शुरू हुई। बिहार सरकार ने इन विद्यालयों को विकसित करने, शिक्षकों के खाली पद भरने और बुनियादी विद्यालय से इनका नाम कस्तूरबा विद्यालय करने की बात कही। ये सभी वादें आधे-अधूरे ही रहे। स्थिति ये है कि अधिकांश विद्यालय आज अस्थाई शिक्षकों के सहारे चल रहे है। शैक्षिक गुणवत्ता की बात करना यहाँ बेमानी ही है।

आज इन विद्यालयों के पास गाँधी की विरासत है, ज़मीने है। इसके अलावा यहाँ गाँधी नही दीखते, न दीखते है उनके स्वप्नों का बुनियादी विद्यालय। ये आज बाकी विद्यालयों की तरह ही हो गए। शायद महात्मा गांधी को भी इसका एहसास हो गया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “मैं कुछ समय तक चम्पारण नहीं जा सका और जो पाठशालाएं वहां चल रही थीं, वे एक-एक कर बंद हो गईं। साथियों ने और मैंने कितने हवाई किले रचे थे पर कुछ समय के लिए तो वे सब ढह गए।”

गांधी अपनी आत्मकथा में ही एक और जगह लिखते है, “मैं तो चाहता था कि चम्पारण में शुरू किए गए रचनात्मक काम को जारी रखकर लोगों में कुछ वर्षों तक काम करूं, अधिक पाठशालाएं खोलूं और अधिक गांवों में प्रवेश करूं। क्षेत्र तैयार था। पर ईश्वर ने मेरे मनोरथ प्रायः पूरे होने ही नहीं दिए। मैंने सोचा कुछ था और दैव मुझे घसीट कर ले गया एक दूसरे ही काम में।” क्या देश, विशेषकर बिहार गाँधी के इस अधूरे स्वप्न को पूरा करेगा?

अभिषेक रंजन (लेखक गाँधी फेलो रह चुके हैं) 

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