Bihari: दूसरे राज्य में जाना बुरी बात नहीं, किन्तु यह हमारा चयन होना चाहिए, न कि हमारी मजबूरी

हे बिहार, कहो तो आज क्या तुम वही गौरवशाली बिहार हो ! हे देवभूमि, कहाँ खो गई तुम्हारी वह उज्जवल धवल कीर्ति कहो ? क्या अब भी आशावान हो कि वे दिन तुम्हारे लौटकर फिर आएंगे ? चन्द्रगुप्त-सम अब संतान तेरी है भी क्या, स्वर्णिम समय तेरा तुझे दिखलाएंगे !

हमारे बिहार को आये दिन ऐसे ही प्रश्नों का सामना करना पड़ता है । आज का दुर्दिन देख रहा बिहार अतीत का वही गौरवशाली बिहार है जो प्राचीनकाल से ही भारत की राजनीति का केंद्र रहा–जो धर्म, ज्ञान, साहित्य, कला आदि विविध क्षेत्रों में सबका सिरमौर रहा । प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों एवं दस गणराज्यों में से चार–अंग (मुंगेर+भागलपुर), मगध, लिच्छवी (वैशाली) और विदेह (मिथिला) बिहार में ही स्थित थे । अंगराज दानवीर कर्ण और मिथिला नरेश जनक को कौन नहीं जानता ! अथर्ववेद के समय से ही ज्ञात मगध का इतिहास एक प्रकार से पूरे भारत का इतिहास बन गया । वैदिक धर्म के विस्तार के साथ-साथ बिहार जैन धर्म की जन्मस्थली बना तो बौद्ध धर्म की कर्मस्थली । सिख धर्म के पुरोधा गुरु गोविन्द सिंह की तो यह जन्मस्थली और कर्मस्थली दोनों ही है । फिरदौसी सिलसिले के सूफी संत मखदूम सरफुद्दीन मनेरी के प्रयासों से यहाँ इस्लाम धर्म का प्रसार हुआ । यहाँ की सैन्य-शक्ति के भय से विश्वविजेता सिकन्दर को व्यास नदी के तट से ही वापस लौट जाना पड़ा । चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’, स्कंदगुप्त प्रभृति महान शासकों ने बिहार के गौरव को शिखर तक पहुंचाया । नालंदा, ओदंतपुरी, वज्रासन, विक्रमशिला आदि महाविहारों/विश्वविद्यालयों ने पूरे विश्व में बिहार के ज्ञान-गुरु होने को प्रमाणित किया । मध्यकाल में शेरशाह ने अपने जीवन-पर्यंत मुगलों को सर उठाने का अवसर नहीं दिया । भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष में बाबू वीर कुंवर सिंह, पीर अली, मौलाना मजहरुल हक़, राजेंद्र प्रसाद, योगेन्द्र शुक्ल, श्रीकृष्ण सिंह, रामदयालु सिंह प्रभृति अनगिनत देशप्रेमियों की अविस्मरणीय भूमिका रही । अतीत की कथा तो अनंत है—हरि अनंत, हरि कथा अनंता की तरह । इसलिए अतीत से मोह-मुक्त हो अब वर्तमान परिदृश्य में लौटते हैं ।

1952-57 के दौरान बिहार पूरे देश में सर्वोत्तम प्रशासित राज्यों में गिना गया । 1957-62 के दौरान बिहार में भारी उद्योगों की स्थापना हुई । 1970 तक बिहार में औद्योगीकरण का दौर चला । 1990-2005 का काल बिहार के इतिहास में अन्धकार-युग कहा जा सकत़ा है—कुछ लोग इसे जंगलराज से भी संबोधित करते हैं ।

इस काल में बिहार में प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई, बिहार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई, रोजगार ख़त्म हो गए, अपराधों में बेतहासा वृद्धि हुई, अपहरण उद्योग विकसित हुआ, जातिवाद मजबूत हुआ और इन सब कारणों से बिहारी समाज के एक बड़े वर्ग का दूसरे राज्यों में पलायन शुरू हुआ ।

यही वह काल है जब महाराष्ट्र एवं असम में बिहारी प्रवासियों पर हमले हुए (2003), हजारों लोग मारे गए और हजारों सब कुछ छोड़कर वापस घर लौटने को मजबूर हुए—मजबूर इसलिए क्योंकि घर पर भी तो रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं थे—वरना घर लौटना तो ख़ुशी की बात होती है । पुनः 2008 में महाराष्ट्र, असम, मणिपुर, नागालैंड आदि राज्यों में बिहारियों पर हमले हुए । हालांकि इसी समय बिहार की अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार भी दृष्टिगत हुआ ।

2004 में ‘The Economist’ पत्रिका ने बिहार की स्थिति पर टिप्पणी की थी—‘बिहार भारत का सबसे बुरी-स्थिति वाला राज्य बन चुका है जहाँ गरीबी अपने पाँव इतने भीतर तक पसार चुकी है कि उसे हटाना लगभग असंभव है, जहाँ नेता इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि उनमें और उन माफिया डॉन में कोई अंतर नहीं है जिन्हें वे संरक्षण प्रदान करते हैं, जहाँ जाति-संचालित सामाजिक संरचना है जिसमें अब तक सामंती क्रूरता के चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं ।’

मुझसे किसी ने कहा—‘सर ! आपके बिहारी तो अमीर हैं, देश में ज्यादातर नौकरशाह तो बिहार से ही हैं, फिर बिहार कैसे गरीब है ?’ तब लगा कि बिहार की स्थिति के लिए भ्रष्ट नेता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ही जिम्मेदार है क्या ? शायद नहीं ! इसकी इस स्थिति के लिए बिहार की वे संतानें भी जिम्मेवार हैं जो यहाँ पली-बढ़ी, यहाँ शिक्षा प्राप्त कीं पर जब वे ज्यादा विकसित राज्यों या देशों में चली गईं (आई.ए.एस./आई.पी.एस./आई.एफ.एस./इंजीनियर/डाक्टर/बिजनेसमैन आदि बनकर या मल्टीनेशनल कम्पनियों में उच्च पद प्राप्त कर) तो उन्होंने सपरिवार वहीं बसना ज्यादा पसंद किया । उन्होंने बिहार से अपने संपर्क काट लिए और इस तरह बिहार के विकास में अपनी भूमिका से पलायन कर गए । कोई भी नौकरशाह अपनी सेवानिवृत्ति के बाद बिहार में नहीं बसना चाहता । उन्होंने सिर्फ बिहार से ही पलायन नहीं किया बल्कि इस जन्मभूमि के प्रति अपने कर्तव्य से भी पलायन किया है—बात कड़वी है पर सत्य है ।

पलायन की त्रासदी तो उन मजदूरों के लिए है जो 10000-15000 रूपए महीने कमाने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करने को मजबूर हैं, उन युवाओं के लिए है जो डिग्री हासिल कर भी बिहार में नौकरी नहीं पाते और दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में 15000-20000 तक कमाने के लिए घर से दूर रहने को मजबूर हैं । इन लोगों की कमाई का अधिकांश भाग घर-किराया और खाने-पहनने में खर्च हो जाता है—बचत कम ही रहती है—फिर भी ये मजबूर हैं । दिल्ली के कई प्राइवेट कम्पनियों में इन युवाओं को शुरुआत में मनरेगा के अंतर्गत काम करनेवालों से भी कम पैसा मिलता है ।

अपने राज्य से बाहर जाना-बसना कोई बुरी बात नहीं, किन्तु यह हमारा चयन होना चाहिए, न कि हमारी मजबूरी ।

बिहार का उत्तरी हिस्सा बाढ़ से पीड़ित रहता है तो दक्षिणी भाग सूखे से । दोनों ही स्थितियों में कृषि और पशुधन की भारी क्षति होती है और भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इसके सुधार के उपायों पर बहुत चर्चा हो चुकी है । किन्तु हाय रे हमारी व्यवस्था ! भ्रष्टाचार ने इस बाढ़ और सूखा राहत को नेताओं, ठेकेदारों और बिचौलियों ने एक लाभकारी उद्योग में परिणत कर दिया । सरकारों की अनदेखी और भष्ट-तंत्र ने हालत को गंभीर बनाए रखा है । इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक ऐसी जन-गोलबंदी की आवश्यकता है जिससे लोक-राजनीति शुरू हो और जिसके आगे सरकारी तंत्र को झुकना ही पड़े ।

पिछले ढाई दशकों में बिहार में उग्रवाद ने अपने पांव मजबूत कर लिए हैं । कई नामों से स्थानीय सशस्त्र सेनाएं बन गयी हैं जिनके कारनामे दहशत का माहौल पैदा करते रहते हैं । इनके द्वारा की गई हिंसक घटनाएं न केवल राज्य की छवि ख़राब कर रही हैं बल्कि साथ ही सामाजिक-आर्थिक संरचना को भी धीरे-धीरे खोखला कर रही हैं । वर्ग-संघर्ष एवं सामाजिक द्वेष ने आर्थिक उत्पादकता में भी गिरावट को जन्म दिया है । इसके समाधान के लिए चुस्त-दुरुस्त पुलिस व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय के भी उपाय करने होंगे ।

पलायन महत्वाकांक्षा के लिए जरूरी है—इस मिथक को तोड़ने की जरूरत है । पलायन से होने वाले खतरों को पहचानने की जरूरत है । जहाँ लोग बिहार के लिए दुष्यंत के शब्दों में कहने लगे हैं-

‘ यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्रभर के लिए ।’ और जो बाहर चले गए वो ये कहकर लौट नहीं रहे—‘ यहाँ तो सिर्फ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा ।’

पर यह पलायन कैसे रुकेगा ? समाधान क्या है ! आवश्यक अवसंरचना का विकास ! एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण ! राज्य में औद्योगीकरण पर जोर ! पर समस्या यह भी है कि अपराध और भ्रष्टाचार के दो पाटों में पिसकर निवेशक बिहार में निवेश करने से कतराते हैं । बिहार में निजी क्षेत्र का अस्तित्व न्यून है । इस स्थिति को बदलने की जरूरत है । राजनीतिक गलियारों से लेकर हम सबको इस पर मंथन करना होगा और इस मंथन से प्राप्त विष का प्रयोग बिहार को बदनाम कर रहे अपराधियों के हौसले पस्त करने के लिए करना होगा जबकि प्राप्त अमृत का प्रयोग बिहार के चतुर्दिक विकास के लिए करना ही होग । तभी पलायन रुकेगा और बिहार की प्रतिभा बिहार के विकास में प्रयुक्त होगी–अन्यथा कल्याण नहीं है ।

हमें अतीत से सर्जनात्मक प्रेरणा लेकर वर्तमान की हीनता से जूझते हुए बिहार के उन्नत भविष्य के निर्माण की कोशिश में लगना ही होगा । अपने राज्य की वर्तमान स्थिति और दूसरे राज्य वालों के साथ-साथ बिहार के कुछ निवासियों की भी अपने राज्य के प्रति नकारात्मक सोच (हालांकि उनकी सोच भी वर्तमान स्थितियों का ही कुफल है ) से पीड़ित होने से ही काम नहीं चलेगा बल्कि व्यवहारिकता के धरातल पर कुछ ठोस कदम भी उठाने होंगे । और अंत में इस कवि की कुछ पंक्तियाँ—

भले अन्धकार निराशा का फैला, मेरा है विश्वास अटल,
भूल नहीं सकते करुणानिधि, बिहार का यह देव-स्थल |
हमें कर्तव्य करना चाहिए, होगी अवश्य प्रभु की दया,
एक जैसा ही सबका दिन, तुम बताओ किसका गया ||
जाति-धर्म को भूल सभी, तन-मन से लग जाएँ हम,
बिहार अवश्य विकसित होगा, हम तो नहीं किसी से कम |
आओ बंधुओं, हम सब मिलकर ऐसा प्रान्त बना डालें,
भारत ही नहीं, सकल विश्व में, बिहार का जयघोष करा डालें |

लेखक – अविनाश कुमार सिंह (राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार)

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