राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म नेपाल में हुआ था, दुनिया को बुद्ध बिहार ने दिया है

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भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया| मोदी ने केवल 17 मिनट का एक छोटा सा भाषण दिया लेकिन इस दौरान उन्होंने कई मुद्दों को उठाया| इसी भाषण के दौरान उन्होंने एक बड़ी बात कही, ”हम उस देश के वासी हैं जिसने दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध दिया है. पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिया है|”

प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन की खबर दुनियाभर के अख़बारों में छपी जिसमें अधिकतर अख़बारों ने इस इस बात को प्रमुखता से जगह दिया है| मोदी के भाषण के बाद कुछ लोगों ने इस पर सोशल मीडिया पर कुतर्क करने लगे| उनलोगों का कहना था कि मोदी ने गलत बात कही है| बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ था, भारत में नहीं|

हलांकि मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में कुछ गलत नहीं बोला है बल्कि कुछ लोगों को प्रधानमंत्री की बात समझ ही नहीं आई| उनलोगों को इतिहास फिर से बताये जाने की जरुरत है| ये लोग बुद्ध की नहीं राजकुमार सिद्धार्थ की बात कर रहे हैं| इनका जन्म 483 ईस्वी पूर्व तथा महापरिनिर्वाण 563 ईस्वी पूर्व शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी (नेपाल) में हुआ था|

बाद में इसी राजकुमार सिद्धार्थ ने बिहार (भारत) के गया जिले के पास निरंजना नदी के तट पर स्थित उरुविल्व नामक ग्राम में 9 दिनों तक पीपल के वृक्ष की छांव में बैठ कर कठोर तपस्या की। यही पर उन्हें बैसाख मास की पूर्णिमा को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ का भारत के पावन धरती बिहार में गौतम बुद्ध के रूप में पुनर्जन्म हुआ था| 

इसीलिए उस वृक्ष को बोधिवृक्ष और उस तिथि को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर विभिन्न देशों से बौद्धधर्म के अनुयायी बिहार के गया शहर से 12 किमी. की दूरी पर स्थित बोधगया नामक स्थल पर गौतम बुद्ध की पूजा अर्चना के लिए एकत्र होते हैं। बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर में भगवान बुद्ध का वही पद्माकार आसन संरक्षित है, जिस पर वह बैठकर ध्यान करते थे। यह बौद्ध संप्रदाय का बहुत बड़ा धार्मिक केंद्र है।

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गया का बोधि पेड़ और प्रधानमंत्री मोदी

महाबोधि मंदिर के आसपास तिब्बती, चीनी, जापानी, बर्मी व थाइलैंड के बौद्ध अनुयायियों के मठ हैं। इस पूरे क्षेत्र को महाबोधि विहार कहा जाता है, जिसके अंदर 100 बौद्ध स्तूप हैं। बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद सम्राट अशोक ने इनका निर्माण करवाया था। मानसिक शांति की तलाश में वह अकसर यहां भ्रमण करने आते थे। 1860 ई. में कनिंगघम नामक पुरातत्वशास्त्री ने इस बौद्ध मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था क्योंकि इसका निचला हिस्सा ध्वस्त हो चुका था।

 

 

 

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