ट्रेन के सफर में इस दिव्यांग खिलौने वाले की खुद्दारी दिखी

कई सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में हूँ। यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ विभिन्न तरह के लोगों से मिलना होता रहता है। अलग-अलग लोग अलग-अलग अनुभव भी दे जाते हैं। इस क्षेत्र में आने के बाद लालच, क्रोध, मोह जैसी तमाम वृतियों को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है।

आये दिन अखबार व न्यूज़ चैनल्स ऐसी खबरों से पटे रहते हैं जब कोई ज़रा से मुनाफे के लिए किसी के जीवन से भी खेल जाना उचित समझता है। ऐसे माहौल में इन जैसे लोगों से मिलना सुखद अनुभूति है। यह एहसास दिलाता है कि ‘ज़मीर’ जैसी चीज़ आज भी कायम है।

जी हाँ! आइये इनसे मुलाकात की पूरी कहानी सुनाता हूँ। कहानी की शुरुआत होती है एक यात्रा से। देश की राजधानी दिल्ली से बिहार की रेलवे यात्रा, ट्रेन का नाम श्रमजीवी एक्सप्रेस।
ट्रेन ज्यूँ ही गाज़ियाबाद पार करती है, एक खिलौने वाले पर नज़र पड़ती है। यह शख्स तकरीबन 50-55 का होगा। एक हाथ में कुछ खिलौने हैं, दूसरे में एक बैग व सहारे के लिए एक डंडा। डंडे से टटोल-टटोल कर किसी तरह भीड़ को चीरती एक आवाज़ आती है- “बच्चों के खिलौने ले लो”

जिस तरह से डंडे का प्रयोग किया जा रहा था, स्पष्ट था कि वह इंसान देख सकने में अक्षम है।

पर साहब! इस युग में इंसान की फितरत का अंदाज़ा बिना सोचे-समझे ना ही लगाएं तो बेहतर। औरों की तरह मुझे भी लगा कि यह भी माँगने का ही कोई तरीका होगा।

पिछले कुछ सालों की पत्रकारिता व अपने व्यक्तिगत अनुभव में मैंने न जाने कितनी ऐसी घटनाओं के बारे में जाना है, जिसमें हृष्ट-पुष्ट शरीर होते हुए भी लोग मजबूरी का हवाला देते हुए, लोगों से मदद मांगते हैं और कई बार सामने वाले के सहृदयी होने पर धोखा भी दे जाते हैं। रेलवे यात्राओं के अनुभव तो धोखेबाजी व लूट जैसी कहानियों से भरे पड़े हैं। पर कुछ ही पलों में मैंने इस खिलौने वाले की खुद्दारी देखी, जो लोगों द्वारा यूँ ही दिए जा रहे पैसे कबूल नहीं कर रहा था। इसे तो पता भी नहीं चल रहा था कि इसे जो पैसा दिया गया, वह कितना है। दूसरे यात्रियों से पूछ-पूछकर इसका काम चल रहा था।

अनायास ही मैं पूछ बैठा- “आपको पता कैसे चलता है कि पैसा सही मिला है या नहीं, लोग धोखा नहीं देते?”
इसके जवाब में ये कहते हैं, “सब एक जैसे कहाँ होते हैं, दस में से एक तो धोखा देने वाले मिल ही जाते हैं, पर ज्यादातर लोग मदद करते हैं।”

इनका नाम गुड्डू राम महतो है और ये बोकारो के रहने वाले हैं। ये जन्मांध हैं।
चाहते तो ये भी भीख मांग कर गुजर बसर कर सकते थे। लेकिन इन्होंने अपनी अवस्था को कमजोरी नहीं बनाया,बल्कि ये अपने अंधेपन को ही अनदेखा करते हुए बोकारो से दिल्ली आए और यहाँ ट्रेन में बच्चों के खिलौने बेचने शुरू किये।
मैंने कुछ पैसे देने चाहे लेकिन इन्होंने लेने से साफ तौर पर इनकार कर दिया। कहने लगे, “बाबूजी हर किसी से ऐसे ही लेते रहा तो फिर मेरे मनोबल का क्या होगा।

मैंने ये जिंदगी की लड़ाई अंधेपन के बावजूद जीत ली है,ऐसे पैसे लेकर तो हार जाऊँगा।”

तब मैंने भी कुछ खिलौने इनसे खरीदे।
यूँ मेरी तो उम्र नहीं कि अब खिलौने से खेलूं, पर जहाँ इस व्यक्ति की मदद हो गई वही बच्चों के बीच खिलौने बाँट कर मुझे भी खुशी जरूर मिलेगी।
मुझे लगता है ऐसे ही भीख देकर किसी की लाचारी बढाने से अच्छा है ऐसे खुद्दार लोगों से सामान खरीदकर समाज को नए संदेश दिए जाएं।

विवेक दीप पाठक

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