ग्रामीण बिहार और LGBTQ: क्या सहमति का अधिकार ट्रांसजेंडर व्यक्ति को नही है?

जून के महीने को पूरे विश्व में प्राइड मन्थ के तौर पर मनाया जा रहा है, देश-विदेश के तमाम एलजीबीटी (LGBTQ) समाज के लोग अपने अनुभवों को साझा कर रहे है, जिसमें समलैंगिकता और एलजीबीटी समाज से जुड़े मुद्दे पर बात हो रही है। यह सबकुछ देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है, खासकर धारा 377 हटने के बाद लोग और खुलकर इस विषय पर बात कर रहे है। चूंकि मैं एक बिहार के ग्रामीण परिवेश से आती हूं तो यह कौतुहल मेरे मन में हमेशा से रहा है कि क्या ग्रामीण इलाकों के लोग खासकर एलजीबीटी समाज के लोग प्राइड मन्थ का मतलब जानते है। पिछले महीने मेरा बिहार जाना हुआ जब मैंने अपने क़स्बे के एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति से पूछा कि क्या आपको प्राइड मन्थ पता है, तो उनका जबाव ना था, फिर जब हमने उनसे फिर पूछा कि सरकार धारा 377 हटा दी है, अब आपको कैसा लगता है, उनके मुख की भंगिमा और विचलित चेहरे ने यह बता दिया कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नही है।

अगले ही दिन मैंने देखा कि एक बारात जा रही थी और एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति बैंड पार्टी की तरफ से नृत्य कर रहे थे। जिसे बिहार में ‘नचनिया’ कहते है। उस बारात में शायद सहमति का अधिकार किसी को समझ में नही आ रहा था|

एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के इर्द-गिर्द लड़कों की भीड़ जमा थी, कभी कोई उस व्यक्ति के ओढ़नी को खींच रहा था, कभी कोई उस व्यक्ति का घाघरा उठा रहा था, कभी कोई उसके स्तनों को छू रहा था तो दो-तीन लोग मिल के उसके कमर को सहला रहे थे| एक लड़का जबरदस्ती उसे कुछ पिला रहा था और उनके नही पीने पर लोग जबरदस्ती भी पिला रहे थे| ऐसी जबरदस्ती देख कर लगा कि उसने कुछ रुपए में बैंड पार्टी को बुक कर, उनके सहमति को नही खरीदा है|

लेकिन समाज के लोगों को ये बात समझ नही आती, और यह अश्लीलता बारात में बच्चे-बुजुर्ग सभी एंजॉय कर रहे थे, किसी के साथ जबरदस्ती को समाज में मनोरंजन का साधन बना दिया गया है। और वह ट्रांसजेंडर व्यक्ति भी इसे मानदंड समझ चुप थे| शायद उन्हें यही सिखाया गया है कि तुम्हारे पेशे में यह आम बात है। इस असमाजिक नज़ारा को देख कर लगा कि क्या एलजीबीटी अधिकार इनके लिए कुछ मायने रखता है?

बिहार और भारत के अन्य इलाकों में ट्रांसजेंडर समूह नाच-गाना जैसे पेशे में शामिल रहते हैं| समाज और घर से बहिष्कृत लोगों के लिए रोजी-रोटी कमाने का यही सहारा होता है| इनके द्वारा नृत्य-प्रदर्शन को ‘लौंडा नाच’ भी कहा जाता है जो कि विवाह या अन्य खुशी के मौके पर आयोजित किया जाता है| लेकिन बहुत से लोग इनके पेशे को पेशा ना समझकर अश्लीलता और जबरदस्ती पर उतर आते हैं| अगर मन लायक नाच ना हो तो लोग जूते-चप्पल की बारिश कर देते हैं| कुछ लोग ये सोचते है कि कुछ पैसे दे कर नाच के लिए बुलाए है तो जोर-जबरदस्ती भी कर ले| कोई इन पर पान थूकता है तो कोई इनका यौन शोषण करता है। मेरे अनुभव यही बताते हैं कि गाँवों में आज भी लोग इन्हें सामान्य इंसान के रूप में नही देखते है| रास्ते-सड़क पर तरह-तरह के उपनामों से इन्हें पुकारा जाता है| ग्रामीण क्षेत्रों में यह बिल्कुल भी चेतना नही है कि यह भी हमारे तरह आम नागरिक है।

आखिर आज भी ग्रामीण इलाकों में ट्रांसजेंडर लोगों की स्थिति में सुधार क्यों नही आया है?

सबसे पहले यह है कि इस समूह के बारे में जो धारणाएं ग्रामीण परिवेश में बनी है, वह यथावत है| लोगों को यह तो पता है कि यदि किसी स्त्री के साथ जोर-जबरदस्ती करते हैं तो उसके लिए कानून है लेकिन उनको इस बात का भान ही नहीं है कि किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ भी किसी भी प्रकार का अमानवीय व्यवहार करते हैं तो उसके लिए भी कठोर सजा है।

दूसरा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में चेतना का अभाव है, वह अपने साथ हो रहे अन्याय को प्रकृति का नियम मान कर स्वीकार कर लेते हैं|

नृत्य आयोजनों में यदि कोई उन्हें गलत तरीके से छूता है तो वह इसके खिलाफ पुलिस चौकी में रिपोर्ट नही लिखवाते| उन्हें यह बताया गया है कि इस पेशे में ये सब चलता है।

तीसरा, देश में उनके लिए विभिन्न कानून लाए जा रहे हैं लेकिन उनके अधिकारों की बात शहरी और ऊपर के स्तर के लोग ही करते हैं| विभिन्न सरकारी सुविधाओं की न तो उन्हें जानकारी है ना ही वह इसका लाभ उठा पाते हैं।

चौथा, सरकार  द्वारा चलाए गए स्कीम जैसे स्माइल, गरीमा गृह इत्यादि देश के हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति तक नहीं पहुँच पाते हैं।

आवश्यक कदम

सरकार को जागरूकता पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है| वह नए-नए जागरूकता अभियान चलाए, लोगों को पता चले कि वह भी हमारी तरह आम नागरिक है| उन्हें भी आदर से जीने का अधिकार दिया जाए।

ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रांसजेंडर समूह के अभी भी अधिकांश लोग सेक्स वर्कर, शादी-विवाह में नाच-गाना, बस-ट्रेन में पैसे मांगना जैसे रोजगारों से जुड़े हैं| मेरा केंद्र सरकार, राज्य सरकार और तमाम गाँवों के प्रधान-मुखिया से अपील है कि गाँव के विकास में इनकी भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए| इन्हें भी अपना पेशा चुनने का अधिकार हो| यदि ये दूसरे क्षेत्रों में काम करना चाहते हैं तो इनका स्वागत किया जाए और मुख्यतः इनके शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए।

हम यह देखते हैं कि पुलिस भी इनके साथ हुए अपराधों को गंभीरता से नही लेती | पुलिस को सख्त निर्देश दिए जाए कि इनके साथ हो रहे जुर्म को गम्भीरता से ले और तुरंत ही कार्यवाही करें ताकि समाज में ये संदेश जाए कि ट्रांसजेंडर समूह ऐरे-गैरे नही है।

– रितु (रिसर्च स्कॉलर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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