Caste Based Census: जातीय जनगणना का क्यों हो रहा है बेतुका विरोध?

मंडल कमिशन के रिपोर्ट को लागू करने की जब बहस चल रही थी तब भी समाज के अग्रिम पंक्ति में खड़े समाज के लोग, जिन्हें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का जरूरत से ज्यादा लाभ मिल रहा था, वे मंडल कमिशन के मुखर विरोधी थे – उनका तर्क था कि सामाजिक व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। मंडल कमिशन की बात अगर मान ली गई तो समाज का ‘अनुशासन’ बिगड़ जायेगा।

बीपी मंडल के अध्यक्षता वाली कमिशन ने 1980 में ही राष्ट्रपति को अपना रिपोर्ट दे दिया था मगर तत्कालीन सरकारें उस रिपोर्ट के उपर बैठ गई, जैसे वर्तमान सरकार 2011 के जातीय जनगणना के आंकड़ों पर बैठी है।

जिनको यथा – स्थिति बनाए रखने से फायदा मिल रहा है वे बदलाव का तो विरोध करेंगे ही, इसके साथ बदलाव के जरूरत को भी नकारेंगे। दलितों पर हजारों सालों तक होने वाले अत्याचारों को भी लोग सही बताते थे। दलितों के मंदिरों में प्रवेश पर रोक को भी लोगों ने उचित ठहराया है। दलितों ने अपने लड़ाई खुद लड़ी और उनके समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों ने जैसे बाबा साहब अम्बेडकर और काशीराम जैसे नेताओं ने दलितों को उसका हक दिलाने के लिए आवाज बुलंद किया। ये लोग भले अभी सभी पार्टियों और वर्गों में (मजबूरी बस ही सही) पूजनीय है, मगर उनके जीवनकाल में संपन्न वर्गों ने हमेशा उन्हें विलेन के रूप में देखा है।

ठीक उसी तरह जेपी आंदोलन के बाद भारतीय राजनीति में पिछड़े वर्गों का बढ़ा प्रतिनिधित्व और राष्ट्रिय राजनीति में लालू – मुलायम और शरद यादव जैसे ओबीसी नेताओं का प्रभाव ही था जिसने नेशनल फ्रंट के सरकार को बीपी कमिशन की रिपोर्ट को स्वीकार करने को मजबूर किया और ओबीसी को पहली बार सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण देने का रास्ता साफ हो गया।

पुरानी बातों का चर्चा मैं आपको यह बताने के लिए किया कि शोषण करने वाला कभी भी शोषित के हक की बात नहीं करता है। हमेशा ही शोषितों को अपने हक के लिए अपनी आवाज उठानी पड़ी है।

इस बात को आप समझ गए तो आप जातीय जनगणना के पीछे मिडिया और कुछ खास वर्गों के विरोध के पीछे उनके मंशा को भी आप समझ सकते हैं। जो लोग जातीय जनगणना से मुंह मोड़ना चाहते हैं, वास्तव में वे सचाई से भागना चाहते हैं। मंडल कमिशन और दलितों के अधिकार देने के समय इसी मानसिकता के लोग सामाजिक अनुशासन बनाए रखने की बात करते थे, अब जातीय जनगणना को देश की एकता – अखंडता के खिलाफ बताने की प्रोपेगेंडा रची जा रही है। जात के आधार पर पहले से ही विभाजित समाज के बटने का डर पैदा किया जा रहा है।

जैसे सड़क के गड्ढों को छुपाने से सड़क अच्छी नहीं होगी, उसी तरह जाति आधारित असमानता को छुपा के समानता नहीं लाया जा सकता।

गड्ढों को मिट्टी, गिट्टी, बालू, सीमेंट या अलकतरा से भड़ना होगा – गड्ढा कितना बड़ा है और उसको भरने के लिए कितना समय और संसाधन लगेगा, उसके लिए जरूरी है कि सड़क पर हुए गड्ढों को मार्क किया जाय और उसकी संख्या का पता लगाया जाए।

ठीक उसी तरह – जातिवाद जाति आधारित भेदभाव या समस्या से मुंह मोड़ के खत्म नहीं होगा, उसके मूल कारण को खत्म करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि पता लगाया जाए कि आजादी के 75 साल बाद हमने कितनी समानता प्राप्त किया, कितना अभी बाकी है, किसको अभी और सहायता की जरूरत है और कौन अब मुख्यधारा में आ चुका है। मगर इसके लिए जरूरी है कि जातियों का सही आंकड़ा हो।

वैसे भी जातीय जनगणना के आंकड़ों का प्रयोग नीति निर्माण में सरकार कर रही है। मगर वह जानगणना का आंकड़ा 1931 का है। कोई नया मांग नहीं किया जा रहा है, मांग बस इतना है कि अंग्रेजों के जमाने का आंकड़ा प्रयोग करने के जगह वर्तमान समय का आंकड़ा का प्रयोग किया जाए।

अविनाश कुमार, संपादक (अपना बिहार)

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