जानमारू दुपहरिया में खून जरा के साईकल खींच के गांवे-गांव घूमने वाला “बरफ वाला”

जेठ का जरल दुपहरिया है. कड़ा धूप है, सन-सन लू चल रहा है. एतना गर्मी है कि बकरी-बुतरू सब भी छांव खोज रहा है, पिआसल कुकुर जीभ निकालले पानी के लिए हांफ रहा है. सड़क पर, गली में, मोहल्ला में कहीं कोई आदमी नहीं. सब अपना-अपना घर के भीतर पंखा डोला रहा है. किसको मरना है जी एतना धूप में जो बाहर निकलेगा. बारह बजे से चार बजे तक बूझिए जे एकदम तपल रहता है. एकदम अलसाइल दुपहरिया. सब अपना ज़रूरी काम सब को भी शाम के लिए टाल रहा है. चौक-चौबटिया सब बन्द. अगर कोनो किराना का आ पान का दोकान खुलल भी है ता दोकानदार अंदर पसीना से भीजल औंघा रहा है. सब शांत है. एकदम शांत.

इस जरल दुपहरिया में एक आदमी साइकिल से आता देखाई देता है. एक हाथ से डमडम-डमडम डमरू बजाता, एक हाथ से हैंडिल संभारे. साइकिल के पीछे काठ का बड़का सा बक्सा. याद आया कुच्छो?

आपको जरूरे याद होगा. आजकल के सॉफ्टी आ चोकोबार खाने वाला बौआ सब को कहां पता होगा.!

एतना जानमारू दुपहरिया में खून जरा के साईकल खींच के गांवे-गांव घूमने वाला ई आदमी होता था “बरफ वाला”. जरल धूप से चेहरा करिया गया है, मैलहा शर्ट पसीना से पूरा भीजल है, पैर के चप्पल का फीता कांटी लेकर ठोका हुआ है आ साईकल में एगो पैडिल भी नहीं है. लेकिन जब ई डमडम-डिगडिग डमरू बजाता ता महल्ला का बुतरू सब दौड़ जाता था. कोई अठन्नी लेकर, कोई धान लेकर त कोई टट्टी-फाटक में खोंसल दाई के पाकल पुरान केश लेकर. बरफ वाला केकरो निराश नहीं करता. केकरो लाल बरफ, केकरो उजरा बरफ ता केकरो प्लास्टिक में भरल ललका जूस दे देता. मम्मी लाख मारती “रे नाला के पानी से बनता है ऊ सब, रे अभागल ई बरफ में आरारोट मिलाया हुआ है, ई सबसे बीमारी ना हो जाएगा” लेकिन बच्चा गैंग कहाँ माने वाला है.! बरफ वाला को चारों बगल से सब घेर लेता आ उचक-उचककर ऊ बक्सा में देखने का कोशिश करता कि इसमें बरफ जमल कैसे रहता है, कौन मशीन लगल है भीतर. हम सब खरीदते हैं ता पांचे मिनट में गल जाता है.!

बरफ वाला का शर्ट का जेब सिक्का सब से भर के लटक गया है. लेकिन खाली अठन्नी आ एकटकिया. कोई बीस रुपया का नोट दे देता त बचल पैसा वापस करे के लिए बरफ वाला को तीन-चार जगह से पैसा निकाले पड़ता था.

बीस का नोट देखकर उसका चिंता बढ़ जाता. अरे एगो बरफ के लिए बीसटकही. माथा में बान्हल गमछा खोलता, मुंह पर का पसीना पोंछता आ बचल उन्नीस रूपया के लिए पाई-पाई गिनना शुरू करता. बुझाता जैसे उसका आधा पैसा हमही ले लिए हैं. इन बीस रुपया के नोट को बरफ वाला अमानत के तरह सम्भाल कर रखता था.

उपरका जेब में नहीं, बटुआ में नहीं, कमर में कोनो गुप्त स्थान में खोंसकर. जइसे ई बीस का नोट कहीं गिर गया ना त बरफ वाला के बेटा के बुखार का दवाई नहीं आ पाएगा, छोटकी बेटी पेंसिल के लिए बोली थी, ऊ नहीं खरीद पाएगा आ पत्नी केतना दिन से एगो आलता के लिए कह रही है, उसका ऊ भी इच्छा पूरा नहीं हो पाएगा. ऊ बीस रुपया बरफ वाला को ओतना ही चैन देता था, जेतना हम सबको उसका बरफ.!

बरफ वाला महेन चा के दलान पर आकर साईकल लगा देता. महेन चा उसको रोज गरियाते. तुम मोहल्ला में सबका आदत बिगाड़ रहा है. सबको डायरिया-पेचिस करवा देगा. सर्दी-बोखार हुआ ता तुम्हीं से दवाई करवाएंगे.

बरफवाला रोज ई सब सुनता आ मुस्करा कर जवाब देता – अरे कुच्छो न होगा मालिक! हनुमानजी का नाम लेकर खा जाइए. एकदम प्योर बरफ रहता है हमारा. महेन चा रोज ई बात सुनते आ उसको रोजे गरियाते. लॉकडाउन का छठवाँ महीना होबे वाला है. महेन चा का लड़का बम्बई से तीन महीना से पैसा नहीं भेजा है. कह रहा है कि इधर कोई कामे नहीं मिल रहा है, कहाँ से पैसा भेजें! दू महीना त महेन चा घर का अनाज बेच के काम चलाए हैं. लेकिन अब मुश्किल बुझा रहा है.

आज दुपहरिया में सुतल थे ता फेर वही डमरू का डमडम सुनाई दिया. बाहर निकल कर देखे तो आंख डबडबा गया. महेन चा सायकल के पीछे काठ का बक्सा बांध रहे थे. ऊहे बरफ वाला बक्सा. आ ऊहे महेन चा जो कभी बत्तीस बीघा में ता खाली पुदीना उपजाते थे.!

– अमन आकाश ©

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