अपनी नौकरी के वर्षगाठ पर इस शिक्षिका ने क्यों कहा- यह मेरी गुज़री ज़िन्दगी की पुण्यतिथि है?

मेरी गुज़री ज़िन्दगी की पुण्यतिथि है आज! मुझे अपनी ज़िंदगी के मुझे छोड़ जाने के सात भयानक साल मुबारक़! इस कालजयी नौकरी में आये हुए आज सात साल हो गए हैं और मैं आज तक इस बात का ज़िक्र कहीं करने में कतराती हूँ। ऐसा नहीं कि मैं इससे बेहतर की उम्मीद में थी या इससे बेहतर के योग्य थी, ऐसा इसलिए कि इस नौकरी से मुझे जो कुछ मिला है, वो ज़िक्र करते ही लोग या तो मेरी योग्यता बताकर मुँह बन्द कराने की चेष्टा रखते हैं या फिर मेरी ही तरह दुःख में चले जाते हैं।

लोगों की नज़र में ये नौकरी मुझे या मुझ जैसों को ख़ैरात में मिली है इसलिए इसका महत्व मैं नहीं समझती। इस नौकरी के साथ जो चीज़ें ख़ैरात में आईं थीं, वो थीं- दुःख, अवसाद, ज़िल्लत, चिंताएं, नाउम्मीदी, नाखुशी, ग़म से ज़ोर पकड़ती बीमारियां, अपने ही टूटे सपनों के चुभते टुकड़े, कुपोषित मानसिकता के पोषक लोग, खुदगर्ज़-चालक-चापलूस-घूसखोर कर्मचारियों से सड़ी-गली-गंधाती शिक्षण व्यवस्था, लाचार-जर्जर संरचना, कमज़ोर पड़ती यादाश्त, जिंदादिली में छेद करती नकारात्मकता और लगातार कम होती इच्छाशक्ति।

बच्चों की खिलखिलाहट और कुछ साथ निभाते लोग इन सात सालों में साँस लेने भर की जगह बनाते रहे, सो उनका तो आभार रहेगा!

मेरी ही तरह न जाने कितने लोग पिस गए होंगे ऐसी ही सरकारी कही जाने वाली नौकरी के नाम पर। जब जॉइनिंग आई थी तब 6000₹ महीने का करार था। नौकरी सरकारी थी, तो घर-परिवार, दुनिया-जहान ने छोड़ने नहीं दिया। पढ़ाई का मूल उद्देश्य कमाई है, ऐसा कहकर हमें कहा गया कि जॉइन कर लेना ही चालाकी है। हमारे लगातार पढ़ाई पूरी करने की ज़िद पर पिता जी को किसी सलाहकार ने सलाह दी थी कि बेटियाँ 3 महीने नौकरी कर लेंगी तो नौकरी पक्की हो जाएगी और फिर एजुकेशन लीव लिया जा सकेगा। वो सलाहकार महोदय उन तीन महीनों के बाद नज़र नहीं आये और ना ही नज़र आया वो नियम जिसके तहत हमें एजुकेशन लीव मिल सके।

फ़ोटो:- पहले वर्किंग डे की है। 4 जून 2013 की

ओह हाँ! बताना ही भूल गयी, मैं ऐसे विभाग का हिस्सा हूँ जहाँ बीईओ से लेकर डीईओ तक को पता ही नहीं हमारे नियमों के बारे में| कुछ सालों बाद जाकर हमें भी जानकारी मिली कि अरे! हमारा तो कोई सेवा-शर्त ही नहीं है! अद्भुत विभाग!


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ये वो विभाग है जहाँ हमारे ही जैसे कुछ लोग जो ब्लॉक और जिला स्तर के कार्यालयों में बैठते हैं, खुद को तुररम्बाज़ समझते हैं। उनकी इतनी ‘चलती’ है इन कार्यालयों में तो आप ये न समझें कि आपका काम मुफ़्त में करने बैठे हैं वो। मेडिकल और मातृत्व अवकाश सहित सेवापुस्तिका संधारण जैसे गंभीर और संवेदनशील मामलों की ताक लगाए बैठे ये बुद्धिजीवी साफ अक्षरों में कहने की हिमाक़त रखते हैं-वो घूस लेने के हक़दार हैं क्योंकि उन्हें अपनी बेटी की शादी करनी है।

मतलब वाह! अपनी बेटी की इस तरह भीख मांग शादी करवाने से तो बेहतर था कि वो सरकार द्वारा चलाये जा रहे सामूहिक विवाह कार्यक्रम में ही विवाह निबटा देते या सच में ही भिक्षाटन कर लेते। इसमें उनकी भी क्या ग़लती जब “भ्रष्ट्राचारम जगत शयनं”।

मैंने महसूस किया है कि इस विभाग में कर्तव्यनिष्ठा, योग्यता, समर्पण और ईमानदारी जैसे जीवन मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है। यहाँ काम करने के दौरान “लड़की हो और ये घर की नौकरी है” कहकर कुछ लोगों ने जो उत्साहवर्धन किया है, उनपर भी कभी-कभी बेतहाशा प्यार आ जाता है। प्यार तो उनपर भी आता है जो कहते हैं कि इस नौकरी में छुट्टियां बहुत हैं, आपके तो मजे ही मजे हैं। वैसे एक कलीग ने, ये नौकरी छोड़ एसबीआई जॉइन करते समय एक जुमला फेंका था, प्यार उस जुमले पर भी आता है कि “जब बच्चे हो जाएंगे और पूछेंगे मम्मी क्या करती हो तो बताओगी कि वेतनमान के लिए लड़ाई”!

खैर! ऐसे ही उच्च कोटि की मानसिकता वाले लोगों के बीच एक थर्ड ग्रेड की अधिकृत नौकरी को फोर्थ ग्रेड की ज़िल्लत और सैलरी के साथ जीकर सात साल आनंद में ही गुज़र गए हैं। ईश्वर और कितने साल गुज़ारने का जज़्बा देता है, ये भी देखने की ही बात होगी।

ऐसा भी नहीं है कि यहाँ सब बुरा ही है। कुछ तो अच्छा भी रहा होगा यहाँ। उम्मीद यही है कि उस अच्छे की खोज में अगले सात साल भी यूँ ही निकल जाएंगे और अब तो गले में फंसे हड्डी की तरह की ये नौकरी, ज़रूरत भी बन गयी है।

अपनी योग्यताएं बढाने के बावजूद यहाँ किसी तरह के प्रमोशन पाने का स्वार्थ न पालते हुए, मैं सिर्फ अपनी बीती ज़िन्दगी की भावी पुण्यतिथियाँ मनाने को लेकर उत्सुक हूँ।

मैं जानती हूँ कुछ लोग मेरे इस पोस्ट से दुःखी होंगे। कुछ तो ये भी कहेंगे कि मुझे ये तत्काल ही डिलीट कर देना चाहिए। कुछ शायद “पुण्यतिथि” जैसे शब्दों पर आपत्ति कर लें। पर मैं यहाँ साफ तौर पर कहना चाहती हूँ कि मेरा मक़सद किसी की तकलीफ़ का कारण बनना नहीं है। मैंने पहले दिन से जो महसूस किया और सात सालों से जो अपने अंदर रखा, वो बाहर निकाल देना ही मेरा मकसद है। मैं बताना चाहती हूँ कि आप जो नौकरी करते हैं, वो सिर्फ नौकरी नहीं होती, वो आपके ही जीवन का अनमोल समय है। वही समय, जिसमें खुश होना और दुःखी होना मायने रखता है। वही समय जिसमें कुछ भी करके सकारात्मक सोच बनाये रखने की कोशिश करते हैं आप। जितना समय आप खुश रहते हैं, आपकी ज़िंदगी में उतना ही समय जुड़ता चला जाता है। इसका विपरीत भी हो सकता है।

अतः किसी को बेतुके सलाह देकर, जिसकी आपको खुद जानकारी न हो, किसी के जीवन का फैसला न करें, किसी के समय का महत्व समझें। ज़िन्दगी की खूबसूरती को समझें। किसी के जीवन से जीने की इच्छा-शक्ति छिन जाना मज़ाक नहीं होता।
अंत में-

“मुश्किल है बहुत इस जाँ को जाँ कहने में
मरे जाती है मिरी जाँ यूँ ना को हाँ कहने में” – नूपुर

– नेहा नुपुर 

 


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