हम भारत के मजदूर: जब देश के नागरिक अपने ही देश में प्रवासी बन जाए..

जहा अनलॉक के पहले चरण की सूचना मिलते ही देश की आर्थिक गतिवधियां धीरे-धीरे पटरी पर आ रही हैं, वहीं देश के मजदूर वर्ग की समस्याएं थमने का नाम नहीं ले रही है। काफी जद्दोजहद के बाद मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन का इंतजाम भारत सरकार के द्वारा किया गया है, लेकिन चंद स्पेशल ट्रेन करोड़ों मजदूरों को घर लाने में अक्षम है क्या? नतीजन हजारों की संख्या में मजदूर साईकिल, गाड़ी, ट्रक, ऑटो और अधिकांश लोग पैदल ही अपने घरों को चल रहे हैं। घर पहुंचने पर भी वह अपने परिजनों के साथ नहीं रह सकते हैं । संक्रमण से बचाव के कारण उन्हें क्वारंटीन सेंटर में रखा जा रहा  है ।

ताज्जुब की बात यह है कि कल तक जिस गांव में वह अपने नाम से जाने जाते थे या अपने पिता के बेटे कहलाते थे आज उसी गांव में उन्हें प्रवासी मजदूर बना दिया गया  है ।

वैसे तो कोरना वायरस की मार सभी वर्ग के लोगों पर पड़ी है लेकिन इससे सबसे ज्यादा प्रभावित मजदूर-किसान वर्ग हुआ है| वह किसी भी तरह घर तो पहुंच गए हैं लेकिन क्या उनकी समस्याएं यहीं पर समाप्त हो गईं हैं? विभिन्न क्वारंटीन सेंटरों पर रह रहे मजदूरों से बात करने पर पता चलता है कि अपने गांव आकर भी वे खुश नहीं है। वह अपना पेट पालने ही शहर गए थे क्योंकि गावं में उनके लिए पेट पालने का कोई जुगाड नहीं था जोकि अब इस महामारी में कहां से हो आएगा इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है ।

विभिन्न प्रकार के अख़बारों और टीवी चैनलों से पता चलता है कि देश के मजदूर इस देश की सरकार से खफा हैं कल तक जिस नेता को वो विकास का प्रतीक मानते थे, आज उसी नेता को अपने दुर्दशा का कारण बताते हैं। देश के मजदूर संभ्रांत वर्ग से भी नाराज़ है, वो मानते हैं कि इस बीमारी को भारत में उन्होंने ही लाया है लेकिन वो तो अपने घरों में कुकिंग और व्यायाम कर रहे हैं और वह आज दर- बदर हो गए ।

कल तक जो मजदूर अपनी मेहनत से इज्जत की रोटी खा रहे थे वह आज दाने- दाने के मोहताज हो गए हैं ।  अपने पूरे परिवार के साथ लाइन में खड़े होकर भोजन माँगना उनके सम्मान पर गहरा आघात है।

जिन्होंने शहरों में बहुमंज़िला इमारतें बनाई, आज वही बेघर हो गए हैं।  जो मजदूर कारखानों में बिस्कुट- केक बनाया करते थे आज उन्हीं के बच्चो को बिस्कुट तक नहीं मिल रहा है और इसे स्पेशल ट्रेन से लौटने वाले मजदूरों के बीच खाने के सामनों के लिए आपाधापी में देखा जा सकता है। जिन मजदूरों ने सबके पैरो को चप्पल प्रदान करवाया आज वही नंगे पैर अपने घरों को लौट रहे हैं ।


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सवाल यह उठता है कि क्या केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चल रहीं योजनाएं मजदूरों के लिए काफी है? केंद्र सरकार जब लॉकडाउन का निर्णय ले रही थी तब उसने बिल्कुल भी मजदूरों के बारे में नहीं सोचा! शायद सरकार को अंदाजा भी नहीं था कि ये समस्याएं इस तरह से उभर कर आयेंगी। जब देश के कामगार सड़क पर उतरे तब केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने एक दूसरे के ऊपर दोषारोपण शुरू कर दिया और कामगारों पर सियासत होने लगी।

देश के सम्पूर्ण मजदूरों की संख्या में से 70% बहुजन समुदाय से मजदूर है और इसी बीच बहुजन नेता मायावती ने भी मजदूरों के हालात पर चिंता जताई है तोइधर बिहार में भी तेजस्वी यादव ने  चिंता जताई है। चिंता जताने और दोषारोपण का यह क्रम बदस्तूर  जारी है।

इतने लोगो की फ़िक्र के बावजूद भी मजदूर पैदल चलने को क्यों विवश हैं यह सवाल अपने आप में एक जवाब समेटे हुए है ।

यदि हम सरकारी आंकड़ों की बात करे तो 2001 में प्रवासी मजदूरों की संख्या 30 करोड़ थी और यही संख्या 2011 में बढ़कर 45 करोड़ हो गई । आंकड़े बताते हैं कि देश में मजदूरों कि संख्या तेज़ी से बढ़ रही है और एक बहुत बड़ा तबका असंगठित क्षेत्र में जा रहा है । इसके बावजूद भी सरकार ने कोई पुख्ता योजना नहीं बनाई जो ऐसे तबको को वास्तव में लाभ पहुंचा सके ।

मजदूरों की समस्याओं को दूर करने में ट्रेड यूनियन भी अक्षम रहा । देश के मजदूर बस एक प्रवासी मजदूर ही बन कर रह गए हैं । मजदूरों में राजनीतिक इकाई का अभाव है, उनमें जागरूकता का अभाव है। वह अपने आर्थिक व राजनीतिक बल को समझ नहीं पा रहे हैं। हालांकि बांद्रा, सूरत जैसी जगहों पर मजदूरों का आक्रोश देखने को मिला है लेकिन इस आक्रोश को राजनीतिक दिशा देने वाले नेतृत्व की कमी है।

देश के इतने बड़े मतदाता बस एक प्रवासी मजदूर तक सीमित कर दिए जाए तो ये कहाँ का न्याय है। केंद्र ओर राज्य सरकारों से निवेदन है कि देश के कामगारों कि पहचान सिर्फ प्रवासी मजदूर के तौर पर न हो बल्कि इन्हें एक राजनीतिक और आर्थिक इकाई समझा जाए । अगर देश की इतनी बड़ी आबादी सरकार से नाराज़ रहेगी तो यह किसी भी सरकार के लिए अच्छे लक्षण नहीं है ।


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बिहार के संदर्भ में

यदि हम बिहार प्रदेश की बात करे तो पूरे देश में सबसे ज्यादा मजदूरों की संख्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार प्रदेश से हैं। हिन्दुस्तान टाईम्स के एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अब तक 25 लाख मजदूरों की वापसी हो चुकी है और 29 लाख मजदूर 1000 रूपए की सहायता के लिए सरकारी एप पर अपना नाम दर्ज कर लिया है। नीतीश कुमार से लेकर तेजस्वी यादव तक सभी मजदूरों की चिंता के लिए बयान दर बयान दे रहे हैं परंतु मजदूरों की दुर्दशा जस की तस बनी हुई  है।

25 मार्च से शुरू प्रथम लॉकडाउन से मजदूरों का पलायन चालू है तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चिंता जताते हुए कहा था कि हमारे प्रदेश के लोगो को कम से कम भोजन तो मुहैया कराया जाए.

नीतीश कुमार ने मजदूरों के खाते में एक हज़ार रूपए भी डालने की बात की, लेकिन बहुत से मजदूरों के पास तो अपना एकाउंट ही नहीं है और जिनके पास है भी उन्हें दी जाने वाले एक हजार राशि मानो उनके दुख पर मज़ाक जैसा है ।

नीतीश कुमार 15 वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री है लेकिन उनके इतने वर्ष सत्ता में रहने के बावजूद भी बिहार राज्य की चर्चा पिछड़े राज्यों में होती है और उचित नौकरी ना मिलने के कारण राज्य के लाखों मजदूर अन्य राज्यों में प्रवास लगातार कर रहे हैं। मजदूरों की दयनीय हालात के पीछे क्या नीतीश कुमार का हाथ नहीं है? क्या वे जिम्मेदार नहीं है? आखिर क्यों सुशासन बाबू युवाओं को रोजगार प्रदान नहीं करवा पाए? यदि ये मजदूर अपने राज्य में रहे होते तो कम से कम पैदल चल कर नहीं मरे होते| घर पहुंचने की जल्दी में कई मजदूर सड़क हादसे के शिकार हो गए, कई ने भूखे पेट दम तोड़ दिया।

बिहार सरकार ने केंद्र सरकार से मनरेगा के तहत 100 दिन मिलने वाले काम को 200 दिन में तब्दील करने की अपील की है। बिहार सरकार ने सृजित श्रमिकों की भी सूची तैयार करने का फैसला किया है ताकि उनके सृजात्मकता के अनुसार उन्हें काम मिल सके। लेकिन क्या करोड़ों के श्रमिकों के लिए इतनी योजनाएं पर्याप्त है? कुछ दिनों पहले ट्विटर पर#industryinbihar ट्रेंड कर रहा था जिससे यह पता चला की बिहार की कई फैक्टरियां बंद हो गई है और जाहिर सी बात है कि इसमें काम करने वाले श्रमिक किसी अन्य कामों में लग गए हैं।

बिहार सरकार से निवेदन है कि बंद पड़ी फैक्ट्रियों को पुनः खुलवाया जाए ताकि राज्य के श्रमिकों को रोजगार मिल सके और फैक्ट्रियों के उत्पादन कार्य से बिहार आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर बने।

– ऋतु (शोधार्थी,  इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय)


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ऋतु: