क्या चित्रकला और चित्रकार भी जातिवाद से पीड़ित हैं? जानिए मधुबनी पेंटिंग के संदर्भ में..

भारत के बिहार राज्य के प्रसिद्ध  मधुबनी चित्रकला जो कि बस बिहार तक सीमित ना रह कर विश्व ख्याति पा चुका है,  जिसे जी.आई (GI) टैग भी प्राप्त हो चुका है। कुछ वर्ष पहले मधुबनी चित्रकारों ने मधुबनी रेलवे स्टेशन को रंगकर विश्व की सबसे बड़ी पेंटिंग बनाने का कीर्तिमान भी स्थापित कर लिया है।

यह विश्व चर्चित पेंटिंग के बारे में बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि इस चित्रकला के प्रकार जाति के आधार पर भी विभाजित है। आपको जान कर आश्चर्य हो रहा होगा कि क्या हमने कलाओं को भी जाति के आधार पर बांट दिया है। जी हां इस पेंटिंग के विभन्न प्रकार विभिन्न जाति समुदायों द्वारा बनाया जाता है।

वर्ष 2016-2017 की बात है जब मैंने अपने सेमिनार पेपर के लिए बिहार के दो समुदाय ( डोम और दुसाध) पर शोध करने का निर्णय लिया तभी उसी दौरान मुझे यह पता चला की बिहार के मिथिला क्षेत्र के दुसाध समुदाय मधुबनी पेंटिंग में रुचि रखते हैं और कई लोग इसे पेशे के तौर पर भी धारण किए हुए हैं, और इस बात की पुष्टि दुसाध समुदाय के व्यक्ति छविनाथ पासवान ने भी की।

कलाकार: तनिषा

वैसे तो हम सभी मधुबनी पेंटिंग के प्रसिद्ध कलाकार कर्पूरी देवी, सीता देवी, बउआ देवी, जगदम्बा देवी, शांति देवी, दुलारी देवी को जानते हैं, जिन्होंने अपने कलाओं से विश्व में सुप्रसिधी पाई है और भारत के साथ- साथ बिहार राज्य का भी नाम रौशन किया है। अन्य की तरह मैं भी इन महिलाओं के जाति जानने के लिए उत्सुक नही थी। मुझे इस बात से ही प्रसन्नता है कि हमारे राज्य की महिलाएं पेंटिंग के माध्यम से विकास कर रही हैं, जो कि वास्तव में एक गर्व का विषय है।

मुझे अपने शोध के दौरान पता चला कि हमने कलाओं को भी जात- पात में बांट लिया है। बिहार के मधुबनी जिले में मुख्यत ब्राह्मण, कायस्थ एवं दुसाध समुदाय के लोग इस चित्रकला को बनाते हैं। जगदीश. जे. चावड़ा अपने आर्टिकल ( The Narrative paintings of India’s Jitwarpuri women)  में बताते हैं कि जितवारपुर गांव ( मधुबनी) में पेंटिंग के दो प्रकार हैं, पहला प्रकार ब्राह्मणी आर्ट जो कि ब्राहमण और कायस्थ समुदाय की महिलाओं द्वारा बनाया जाता है। यह प्रकार काफी आकरिक, बेहद शैलीकृत तरीके से बनाया जाता है। ब्राहमण और कायस्थ समुदाय के चित्रण में राम- सीता, शिव- पार्वती, कृष्ण- राधा एवं अन्य देवी देवताओं का विवरण मिलता है। इस शैली के प्रमुख कलाकार जगदम्बा देवी, सीता देवी इत्यादि है।

इस चित्रकला का दूसरा प्रकार हरिजनी बताया गया है जिसको हरिजन समुदाय कि महिलाएं विशेषतः दुसाध समुदाय की महिलाएं बनाती है।

इस शैली में सांसारिक जीवन का विवरण मिलता है जिसमें आम जीवन में रसोई में खाना पकाती महिलाएं, हाथी-  घोड़ा, चिड़िया, पेड- पौधे का चित्रण किया जाता है। इस शैली की प्रमुख कलाकार शांति देवी, दुलारी देवी, उर्मिला देवी इत्यादि है।


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शांति देवी ( दुसाध समुदाय) fokaartopedia को दिए हुए इंटरव्यू में बताती है कि जब वह छोटी थी तो उनके समुदाय की लड़कियों को कोई पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजता था। उनकी कुछ ब्राहमण समुदाय की मित्र थी जिनको देखकर उन्हें पढ़ने की इच्छा हुई और जिद करके उन्होंने किसी भी तरह दसवीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी की। बचपन से शांति देवी ने जातिवाद के बुरे बर्ताव को सहा है जिनमे छुआ- छूत भी शामिल था। वह यह कभी नहीं जानती थी कि आगे चलकर कभी वह मधुबनी चित्रकार बनेंगी क्योंकि उनके समुदाय को सपने देखने की इजाज़त नहीं थी। वह बताती हैं कि बचपन से वह अपनी मां को दीवारों पर मधुबनी पेंटिंग बनाते हुए देखती थी लेकिन उनको इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि इस कला के जरिए पैसे भी कमाया जा सकता है। शांति देवी अमेरिकी शोधार्थियों का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहती हैं कि उन्होंने ही हमारे कला को पहचाना और इसको व्यपार का माध्यम बताया।

शांति देवी बताती है कि गांव के उच्च जाति के लोग हमें हिन्दू देवी -देवताओं के चित्र बनाने के लिए धमकाते थे। गांव के ब्राहमण बोलते थे कि इन देवी- देवताओं पर हमारा अधिकार है, नतीजन दलित समुदाय के लोग आम जीवन प्रकृति से जुड़े चित्रों पर ज्यादा ध्यान दिए, बाद में दुसाध समुदाय के लोग अपने जाति के देवता राजा सहलेस के चित्रों को भी बनाना शुरू किए।

वहीं दुलारी देवी जो की मछुआरे समुदाय से हैं वह बताती हैं कि मजदूर से कलाकार बनने तक का सफर काफी कठिन था, नीची जाति के होने के वजह से ना उनके पास शिक्षा था नाहीं अवसर। वह एक मधुबनी चित्रकार के यहां बर्तन साफ करती थी जब वह बाकि औरतों को  चित्र बनाते हुए देखती थी तो उनके अंदर भी अभिलाषा जागती थी बहुत ही मुश्किल से उन्होंने हिम्मत जुटा कर अपनी मालकिन से निवेदन किया कि उनका भी मिथिला पेंटिंग केंद्र ने नाम लिखवाया जाए। दलित समुदाय की महिलाओं के पास कला होते हुए भी वह किसी के रहमो- करम के मोहताज़ थी।

शांति देवी और दुलारी देवी की कहानियों को सुनकर लगता है कि मधुबनी पेंटिंग पर  अधिकार केवल उच्च जाति के लोगों का था। ब्राहमण और कायस्थ समुदाय के लोग इस पर भी आधिपत्य जमाना चाहते थे लेकिन कुछ विदेशी शोधकर्ता और भास्कर कुलकर्णी ( बॉम्बे आर्टिस्ट) के सहयोग  द्वारा इस कला में दलित समुदाय की महिलाएं भी भाग लेने लगी और उन्हें उनकी कलाओं के द्वारा एक नया रोजगार मिला जो कि उनके उत्थान की ओर एक नया कदम था।

कलाकार: सोनल

इतिहासकार निकोलस ड्रकस का मानना है कि जब भी आप भारत के बारे में सोचते है तो यह बहुत ही मुश्किल है कि आप जाति के बारे में ना सोचे।

उनका यह कथन सही प्रतीत होता है कि हम कला में जाति का रंग भर दिए हैं और किसी भी कला पर एक विशेष जाति समूह का आधिपत्य स्थापित मिलता है।


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शांति देवी बताती हैं कि उनके कला को देर से पहचान मिली इसमें बहुत बड़ा योगदान गांव के ब्राहमण और कायस्थ समुदाय के लोगों का है। गांव में कोई भी मधुबनी पेंटिंग के सिलसिले में आता था तो हमारा पता ना बताकर किसी उच्च जाति के महिला का पता बताया जाता था। जब उन्हें नेशनल अवार्ड मिला तब उन्होंने उस अवार्ड को लौटा दिया था क्योंकि उनका मानना था कि जब उनके पास घर ही नहीं है अवार्ड रखने के लिए तो वह अवार्ड लेकर क्या करेंगी। तब उन्हें सरकार की तरफ से 62000 कि सहायता मिली लेकिन उनके उस पैसे को देख कर गांव के उच्च जाति के लोगों में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई जिसके कारण उन्हें अपना घर बनाने में काफी दिक्कतें आई।

ऐसे कई दलित समुदाय के कलाकार हैं जिनके पास कला होते हुए भी वह आगे बढ़ नहीं पाते हैं क्योंकि हमारे समाज में आज भी जातिवाद विद्यमान हैं जो सबको समान अवसर  नहीं देता। हमारा राज्य एवम् केंद्र सरकार से निवेदन है कि ऐसे प्रतिभाओं को पहचाना जाए उन्हें उचित प्रशिक्षण के साथ- साथ आर्थिक सहायता भी दिया जाए, और समाज के लोगों से एक अपील है कि किसी भी कला को जात- पात में ना बांटे। विश्व के हरेक कला पर हम सभी का समान अधिकार है कृपया कलाजगत में जातिवाद जैसे सामाजिक विकृति को ना आने दे।

– ऋतु (शोधार्थी, इतिहास विभाग – दिल्ली विश्वविद्यालय)

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