बिहार के नियोजित शिक्षकों के मौत से आहात एक शिक्षिका का नीतीश कुमार के नाम एक ख़त

आदरणीय नीतीश चच्चा

प्रणाम!

कोरोना से प्रभावित लोगों में आपका नाम न आने से मैं सुनिश्चित हूँ कि आप सकुशल अपने तमाम सुरक्षा प्रसाधनों के बीच सुरक्षित और खुश महसूस कर रहे होंगे| मुझे उम्मीद है कि दुनिया के सभी अच्छे शासकों की तरह आप भी अपनी जनता के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित होंगे| मुझे यह भी उम्मीद है कि आप अपने लोगों को इस खतरनाक परिस्थिति से उबार लेंगे| यूँ भी लोग कहते हैं कि बिहारियों की जिजीविषा की तुलना किसी अन्य से नहीं की जा सकती|

आप सोच रहे होंगे कि हम कौन हैं, जो प्रणाम-पाति करके आपको इतना लम्बा सा खत लिख रहे हैं| दरअसल हमारी पहचान आपके समक्ष बहुत ही छोटी है| आप जहाँ देश के २९ मुख्यमंत्रियों में जगह रखते हैं, वहीं हम देश की १२१ करोड़ जनसंख्या का वो हिस्सा हैं जिसकी भागेदारी से लोकतंत्र जीवित होता है| यह प्यासे के लिए एक बूंद जैसा भी है, पर एक बूंद की कीमत जानने के लिए प्यास होनी भी तो ज़रूरी है| है कि नहीं!

यही प्यास लिए आप हर पांचवें साल हमारे पास आते हैं और हम एक बूंद बनकर सजदे में खड़े मिलते हैं| पिछली बार भी आप आये थे जीतने के लिए| आप जीत भी गये थे, बाकी…| बाकी में बाकी लग गया था| हालाँकि हम राजनीतिशास्त्र के अल्पज्ञ हैं और अपने आप को राजनैतिक लोगों के बीच खड़ा कर सकने में भी असक्षम हैं| वो तो यह साल फिर से वही पांचवां साल है, तो गाहे-बगाहे याद आ जाती हैं ये बातें|

बिहार, जिसके शासक हैं आप, विगत पंद्रह वर्षों से, उसकी प्रसिद्धि प्राचीन काल से ही ‘शिक्षा’ को लेकर रही है| किसी प्रदेश के विकास का पहला पायदान आज भी शिक्षा ही है| विगत वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की प्रगति को विशेषज्ञों द्वारा जांचा-परखा जाएगा, पर आज हम इससे जुड़ी धुरियों की स्थिति तो देख ही सकते हैं|

प्रदेश की शिक्षा चार स्तंभों पर टिकी है| पहला अभिभावक, दूसरा छात्र, तीसरा शिक्षण तंत्र और चौथा शिक्षक| पहला स्तम्भ यानी अभिभावक पर बात करना बेईमानी होगी, क्योंकि बिहार अशिक्षित जनसंख्या वाला राज्य रहा है| यहाँ के शिक्षित ६१ प्रतिशत लोगों में असल में शिक्षित अभिभावक की तलाश मुश्किल है| कुल मिलाकर पहला स्तम्भ मरम्मत या पूरी तरह से बदलाव की मांग करता है| दूसरा स्तम्भ यानी छात्र, जिसके ऊपर भावी सुसंस्कृत नागरिक बनने के साथ शिक्षित अभिभावक बनने का भी दायित्व है, हमेशा की तरह आज भी एक मजबूत स्तम्भ है पर यह स्तम्भ बाकी स्तंभों के उचित कार्य करने से ही स्वस्थ्य दिखाई देता है|

तीसरा स्तम्भ शिक्षण तंत्र है| शैक्षणिक विधि-व्यवस्था, जिसके निर्देशों के पर ही बाकी सतम्भों का कार्य निर्भर है| इस तंत्र द्वारा आपने विगत वर्षों में समुचित प्रयास किये हैं जिससे यह स्तम्भ मजबूत बन सके| परन्तु आपके प्रयासों ने विद्यालयों को भोजनालय में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी| हालात तो ऐसे हैं कि विद्यालय भोजन ग्रहण कराने के मुख्य उद्देश्य से खोले जाते हैं और बीच में कभी समय बचे तो अधिगम कार्य भी करा लिए जाते हैं|

चौथा स्तम्भ, शिक्षक, सबसे दयनीय स्थिति में अपने-आप को सम्भालते हुए आपके प्रदेश की शिक्षा का दायित्व निर्वहन करता है| बाक़ी तीनों स्तंभों की कमियों को छुपाता, सबकी मार झेल यह खुद को मजबूत दिखाने का प्रयास करता है| पर इसका महत्त्व बाक़ी तीनों स्तंभों द्वारा उपेक्षित है| ऐसे में यह शिक्षा रूपी भवन टिके तो कब तक?

एक तरफ शिक्षकों को शिक्षकेत्तर कार्यों में संलिप्त रखा जाता है वहीं दूसरी तरफ उन्हें समय पर वेतन न देकर उनके कार्यों की उपेक्षा भी की जाती है| पदाधिकारियों द्वारा विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन के उद्देश्य से विद्यालय भ्रमण करना और विद्यालय की शैक्षणिक गतिविधियों पर ध्यान न देना भी विद्यालय समाज को शैक्षणिक गतिविधिओं से दूर करता है|

प्रत्येक वर्ष नियोजित शिक्षक एक ही मांग के साथ हड़ताल पर जाते हैं, जिससे उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगती है| उचित मांगों के साथ शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद दंडात्मक कार्यवाई निश्चित ही उन्हें उपेक्षा का शिकार बनाती है|

इसका व्यापक मनोवैज्ञानिक असर समाज में शिक्षकों की प्रतिष्ठा तथा पुनः शिक्षकों के मनोबल पर पड़ता है, जिससे कक्षा में वो अपना सौ प्रतिशत दे सकने में समर्थ नहीं हो पाते|

यदि सरकार को लगता है कि ये शिक्षक योग्य नहीं हैं तो फिर सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि उनके छात्रों का भविष्य कैसे बनेगा| इस परिस्थिति में क्या सरकार योग्यता सम्बन्धी जाँच परीक्षा नहीं ले सकती? और यदि ये शिक्षक योग्य हैं तो फिर इन्हें अपने कार्य का उचित वेतन क्यों नहीं दिया जाता? क्या शिक्षकों की उपेक्षा सम्पूर्ण शिक्षण तंत्र की उपेक्षा नहीं है? क्या यह बिहार को सौ प्रतिशत शिक्षित प्रदेश बनाने में एक बड़ा अवरोध नहीं है? क्या हर साल के हड़ताल और तालाबंदी में छात्रों की शिक्षा बाधित नहीं हो रही, शिक्षकों की ऊर्जा भंग नहीं हो रही या फिर इन बातों का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ता?

अपने वृहत परिवार के मुखिया का पदभार संभालते हुए आपने भी शिक्षकों का मनोबल तोड़ने में महती भूमिका निभाई| शिक्षक अपनी प्रतिष्ठा बचाएं तो आपकी धुरी हिल जाएगी और आपकी धुरी बचाएं तो अपने स्वाभिमान को भी दाव पर लगाना पड़ेगा|

आपके प्रदेश में शिक्षकों की सामाजिक प्रतिष्ठा अत्यंत निंदनीय है| स्थिति यह है कि यदि बेरोजगारी इस हद तक हावी न हो तो कोई बच्चा, अपने सपने में भी शिक्षक बनने का ख्वाब नहीं देखता| यहाँ शिक्षण कार्य कर रहे लोगों का सर्वे कराएँ कि वो आपके शिक्षण तंत्र से कितने संतुष्ट हैं, आपको जवाब मिल जाएगा|

बहरहाल! मैं अब वो कहना चाहती हूँ जो कहने के लिए मैंने इतनी भूमिका गढ़ी है| कोरोना काल के इस विकट विषम परिस्थिति में जितने चिंतित आप अपने राज्य के लिए हैं, एक मुखिया के तौर पर, ठीक उतना ही चिंतित वह शिक्षक भी है, जो अपने परिवार का मुखिया है| आप तो पद से विमुक्त होकर अपने आप को इस वृहत परिवार की नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त कर सकते हैं परन्तु जब एक परिवार का मुखिया अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं निभा पाता न तो वो जीवन से ही विमुक्त कर लेता है खुद को| पिछले दिनों अंतिम साँसें भी गंवा चुके साठ से अधिक नियोजित शिक्षकों ने शायद यही कहना चाहा आपसे|

बिहार में नियोजित शिक्षक, जिनको पूर्ण वेतनमान तक हासिल नहीं है, जिनको राज्यकर्मी का दर्जा तक नहीं मिला, जिनकी कोई निश्चित सेवा-शर्त नहीं है, जिनकी वेतन वृद्धि तक रुकी हुई है, उनसे इस समय केन्द्रीय कर्मचारियों की भांति महंगाई भत्ता भी छीन लिया जाना कितना न्याय संगत फैसला है? इतने कम वेतन के साथ परिवार की सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन उन्हें भी तो करना होता है, कम-से-कम उनसे जीने का हक तो न लिया जाए|

आप अपने शिक्षकों का मनोबल तोड़ने की बजाए उन्हें उचित व्यवस्था दे सकते हैं, उन्हें उच्च-स्तरीय प्रशिक्षण दिलवा सकते हैं, उनसे जुड़कर उत्साहवर्धन करके उनके ज्ञान का पूरा सदुपयोग कर सकते हैं| फिर अपने ही शिक्षकों पर ये दोषारोपण कितना जायज है? अपनी ही जनता पर शासक का यह अविश्वास किस हद तक सही है?

बिहार की अशिक्षा का एक प्रमुख कारण अव्यवस्थित योजनायें हैं, जिनका नियंत्रण न सिर्फ सुदृढ़ शिक्षण तंत्र वरन सुशासन का भी मजबूत आधार बन सकता है|

बाकी सब कुशल-मंगल हो! हमारा प्रदेश कोरोना की लड़ाई जल्द-से-जल्द जीते| आप स्वस्थ रहें, स्वस्थ फैसले लें और अपनी कृति बनाये रखें! इन्हीं शुभकामनाओं के साथ पुनः प्रणाम!

– नेहा नूपुर 

नेहा नूपुर: पलकों के आसमान में नए रंग भरने की चाहत के साथ शब्दों के ताने-बाने गुनती हूँ, बुनती हूँ। In short, कवि हूँ मैं @जीवन के नूपुर और ब्लॉगर भी।