‘पद्मावती’ से जुड़े इतिहास को बचाने के लिए राजस्थानी जनता तत्पर है, हम बिहारियों ने क्या किया?

रानी पद्मावती! जितनी उनकी खूबसूरती की चर्चा हुई उतनी ही चर्चा स्वामिभक्ति की, देशभक्ति की। आज उनके नाम की चर्चा पुनः जोर पकड़ चुकी है। वजह है रानी पद्मावती पर बनी फ़िल्म ‘पद्मावती’ और उसके निर्देशक संजय लीला भंसाली पर इतिहास से छेड़छाड़ का दावा करने वाला संगठन करणी सेना।

खैर! उनके मामले पर क्या सुनवाई होती है, क्या फैसला आता है, मामला कैसे सुलझता है, कौन जीतता है और कौन सही है, इसपर मेरा ध्यान नहीं। मेरा ध्यान जा रहा है इस फ़िल्म के रिलीज से पहले, अपने इतिहास को बचाने को तत्पर दिख रही तमाम राजस्थानी जनता पर।
वो जनता अपना इतिहास दिखाए जाने से पहले हर छोटी-बड़ी बात पर पैनी नज़र बनाये हुए है, जैसे रानी पद्मावती को किस तरह के कपड़े पहनाये गए हैं, घूमर नृत्य वो कहाँ और किसके सामने कर रहीं हैं, उन्होंने अपना चेहरा खिलजी को दिखाया था या नहीं आदि। वो चाहते हैं कि फ़िल्म के जरिये लोग सच जानें, उनके सम्मान को भविष्य का सम्मान भी बनाये रखें।

इसके बाद चाहे यह फ़िल्म रिलीज हो या न हो, चाहे जिसकी भी जीत हो, इस विरोध ने यह सुनिश्चित तो कर ही दिया है कि लोग ‘सही-गलत’ पर जानकारी इकट्ठी करने की कोशिश कर रहे हैं, एक शोध कार्य हर दर्शक और मीडियाकर्मी की तरफ से किया गया।

इस बारे में सोचते-सोचते मेरा ध्यान बरबस इस बात पर भी आ जाता है कि हम बिहारियों ने क्या किया?

हमपर एक-पर-एक नकारात्मक कहानियाँ कहीं जातीं रहीं और हम उसपर तालियाँ बजाकर खुद पर प्रश्न उठाने का अवसर देते रहे। हमने नहीं रोका उन फिल्मकारों को! हमारे ही अभिनेता-निर्देशक इस तरह की फिल्में बनाते रहे; उन्हें कभी इसके व्यापक असर का एहसास तक न हुआ। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उनके बिहार को महज गालियों की जगह मान लिया गया, उनके पहनावे को गँवार समाज का पहनावा माना गया व उनके चरित्र को सबसे नीचा समझा गया। उनकी संस्कृति को सबसे हल्के में लिया जाना कब प्रचलन में आ गया, उन्हें एहसास न हुआ।

उन्हें समझ ही नहीं आया कि कब उनकी सबसे लोकप्रिय भाषाएं-बोलियां सिर्फ गुंडों की भाषा-बोली बन गयी। ऐसी भाषा बन गयी कि खुद बिहार का सभ्य समाज उन भाषाओं-बोलियों से भागता रहा।

एक खास दौर में लोगों को अपनी मातृभूमि से दूर रहना गंवारा रहा, अपनी संस्कृति को भूलना गंवारा रहा ताकि बाहर के लोगों की नज़र में कहीं वो ‘बिहारी’ पहचान के साथ न आ जायें। हम भले ही फ़िल्म से जुड़ी बिहारी हस्तियों पर घमंड करते रहें, सच तो यही है कि बिहार की बिगड़ी छवि में उनका भी श्रेय कम नहीं।

ज्यादा पीछे नहीं जाऊँगी, अभी इसी साल फ़िल्म आयी थी ‘अनारकली ऑफ आरा’। जब आयी थी, इसपर हर बड़े वेबपोर्टल ने लिखा। पत्रकार के निर्देशन में बनी फिल्म थी, तो पत्रकारों ने गज़ब का भाव दिया। मगर किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि किस तरह एक प्राचीन शहर ‘आरा‘ के नाम, संस्कृति और इतिहास पर उपहास कर गयी ये फ़िल्म। जबकि ‘आरा’ बड़ी विचारधाराओं का छोटा शहर है। इसका अपना एक समृद्ध इतिहास है, अपनी भाषा है, अपने संस्कार हैं। जहाँ तक बात इस फ़िल्म में दिखाए विश्वविद्यालय, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, की है तो बता दें यह शाहाबाद क्षेत्र का एक मात्र विश्वविद्यालय है।

कोई शख्स कहीं से आता है, एक शहर का नाम लेकर, वहाँ के विश्वविद्यालय को केंद्र में रखकर, शहर और विश्वविद्यालय, दोनों को बदनाम करती हुई पूरी फिल्म बना देता है और यहाँ की जनता एक ऊँगली तक नहीं उठाती। ना राजधानी पटना से एक भी विरोधी आवाज़ उठी, ना खुद शहर आरा से। आरा के वरिष्ठ रंगमंचकर्मी श्रीधर शर्मा ने विरोध में आवाज़ तो उठाई, पर उसे अपेक्षित स्थान न मिल पाया और तमाम जन एक फ़िल्मी झूठ को जमीनी हक़ीक़त मान बैठे।

वो कहते हैं, “सच तो यह है कि आज भी आरा के विश्वविद्यालय में, महाविद्यालय में, नैतिक चरित्र अपनी पराकाष्ठा पर है। आज से 20 साल पहले क्या, आने वाले 20 साल तक किसी वीसी या प्रोफेसर की हिम्मत नहीं जो कैंपस के अंदर उस तरह के द्विअर्थी संवाद वाले कार्यक्रम करवाये या ऐसे कार्यक्रम का हिस्सा बने।”

मगर हम ठहरे बिहारी! हम बिहारी तो इतनी सी बात पर खुश हो लेते हैं कि कोई निर्देशक हमारी पृष्टभूमि पर, हमारी भाषा में या हमारे अभिनेता-अभिनेत्री के साथ फ़िल्म बनाने आया है। हम गर्व कर रहे हैं कि प्रियंका चोपड़ा ने भोजपुरी फिल्म बनाई, भले ही वह द्विअर्थी संवादों से भरी पड़ी हो, भले ही उसने भोजपुरी को अश्लील दर्शाने में कोई कसर न छोड़ी हो। हमें तो खुद खबर नहीं कि हमारे इतिहास को कितनी बारीकी से छलनी किया जा रहा है। हमारे गौरव को घात लगाया जा रहा है।

पिछले कुछ दशकों में बिहार की हुई बदनामी में जितना योगदान बिहार की राजनैतिक शक्ति का रहा, उससे कहीं ज्यादा दो अन्य चीजों का भी रहा- पहली चीज़ थी फिल्मकारों का बिहार पर आधारित फिल्म बनाने के लिए चुने गए मुद्दे और दर्शायी गयी पृष्टभूमि तथा दूसरी चीज थी सक्षम बिहारियों का इसके प्रति रवैया।
पीछे जो हो चुका उसे रोक पाना तो मुमकिन नहीं, पर कहीं न कहीं उस लकीर के सामने एक बड़ी लकीर खींचने की आवश्यकता है। आवश्यकता है कि अब हम भी अपनी आवाज़ खुद बनें और सच्चाई को सामने लाने की कोशिशें शुरू करें।

यूँ ‘बिहारी होना गर्व की बात है’ कहने से अब काम नहीं चलेगा, गर्व को कायम रखने के लिए प्रयास भी हमें ही करना होगा क्योंकि अभी जो हो रहा है वो भी अगली पीढ़ी का इतिहास है।

हम सब एक इतिहास रच रहे हैं। हमें ये तय करना है कि अगली पीढ़ी अपने मातृभूमि के इतिहास में क्या ग्रहण करेगी। वो भी अपने इतिहास पर गर्व कर सकें, अपनी संस्कृति आत्मसात कर सकें, इसकी जिम्मेदारी हम कितना निर्वहन कर पाते हैं, यही हमारे भविष्य की आधारशिला होगी।

नेहा नूपुर: पलकों के आसमान में नए रंग भरने की चाहत के साथ शब्दों के ताने-बाने गुनती हूँ, बुनती हूँ। In short, कवि हूँ मैं @जीवन के नूपुर और ब्लॉगर भी।