बिहार और दहेज़ प्रथा: दहेज़ हमारे समाज के तन पर भयानक कोढ़ है, दहेज़ विवाह के नाम पर घृणित घूस है

 

“दहेज़ हमारे समाज के तन पर भयानक कोढ़ है, यह उसके पाक दामन पर कलंक का धब्बा है, यह समाज को अतिशय कुरूप बनाने वाली कुप्रथा है, यह एक अत्यंत घिनौनी पद्धति है—इसका मूलोच्छेद जितना शीघ्र हो, समाज के सेहत के लिए उतना ही अच्छा है ।”

हास्यकवि विनायक राव को कभी दहेज़ प्रथा का शिकार नहीं होना पड़ा, इसलिए उन्होंने ऐसा लिख दिया जो समाज के द्वारा बार-बार दुहराया जाता है —

 

अहो सोच कन्या विवाह का वृथा हृदय नर धरते हैं ।

सर्वशक्तियुक्त ईश कृपानिधि जोड़ी निर्मित करते हैं ।।

भावी वर को जन्म प्रथम दे कन्या पीछे रचते हैं ।

‘नायक’ सोच करो मत कोई विधि के अंक न बचते हैं ।।

महात्मा गाँधी और लालबहादुर शास्त्री की जयंती 2 अक्टूबर, 2017 पर बिहार में दो बड़े सामाजिक क्रान्ति अभियान शुरू हुए—दहेज और बालविवाह मुक्त बिहार बनाने का अभियान । राज्यभर में पाँच करोड़ लोगों ने बाकायदा शपथ ली कि वे बाल विवाह या दहेज़ वाली शादियों का बहिष्कार करेंगे । स्वयं-सहायता समूहों को जन चेतना जागृति का दायित्व दिया गया है ।

जागरूकता अभियान रथ और प्रचार रथ हर जिलों में भेजे गये हैं । मोबाइल एप्प लॉन्च किया गया और सीडी का लोकार्पण किया गया । 124 जत्थों में शामिल 1564 कलाकारों को जिलों में भेजा गया । राज्यभर के सरकारी तंत्र से जुड़े हर व्यक्ति को इन कुप्रथाओं को मिटाने हेतु जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी दी गयी । अगले वर्ष 21 जनवरी 2018 को नशामुक्ति, बाल विवाह और दहेज़ प्रथा के खात्मे के लिए मानव-श्रृंखला बनाये जाने की योजना है । विवाह का पंजीकरण एवं विवाह के अवसर पर दिए जानेवाले उपहारों की सूची तथा चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा रखना अनिवार्य किये जाने की बात चल रही है । बिहार सरकार को उम्मीद है कि एक वर्ष के भीतर बिहार में इस अभियान के कारण बाल विवाह और दहेज़ के मामलों में गिरावट आएगी । गौरतलब है कि देशभर में महिला उत्पीडन में बिहार का स्थान २६ वां है जबकि दहेज़ उत्पीड़न में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा है ।

 

आज की वास्तविकता यह है कि दहेज़ देनेवालों और दहेज़ लेनेवालों दोनों के लिए दहेज़ प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है । समाज में दहेज़ में मिली वस्तुओं की चर्चा होती है और दोनों पक्षों की मजबूत स्थिति की कद्र होती है । अर्थात् दहेज़ ‘उपहार’ नहीं है और न ही यह पारस्परिक सद्भाव संकेत ही है । लड़की के माता-पिता लड़के में वाँछित योग्यताएँ पाते हैं तो विवाह योग्य आयु के लड़के के माता-पिता अपने पुत्र के ‘मूल्य’ के अनुसार दहेज़ माँगते हैं । एक व्यक्ति जो अपनी पुत्री को दहेज़ देता है, वह अपने पुत्र के लिए उससे अधिक दहेज़ लेने की सोचता है । यदि ऐसी अवस्था बनी रहती है तो इस सामजिक बुराई का हमें अंत नहीं दिखाई देता ।

 

हिन्दू उत्तराधिकार नियम 1956 में संशोधन 2005 के अनुसार लड़की को पैतृक सम्पत्ति में लड़कों के बराबर हिस्सेदारी का कानूनी अधिकार प्राप्त है । लेकिन न तो लडकियाँ अपना हिस्सा माँगती है और न ही उनको हिस्सा दिया जाता है । इस तरह यह क़ानून लगभग अर्थहीन है । दहेज़ निरोधक अधिनियम 1961 भी दहेज़ के बढ़ते हुए प्रकोप को रोकने में पूर्णतः असफल रहा है । आँकड़े यह भी बताते हैं कि लड़की पक्ष द्वारा इस क़ानून का दुरूपयोग ही अधिक हुआ है ।

 

दहेज़ विवाह के नाम पर घृणित घूस है। समाज के अभ्यंतर में गहराई तक अपने पाँव जमा चुकी इस कुरीति को हटाया जाना बहुत जरूरी है—तभी इस राज्य और समाज का पुनरुत्थान संभव है । किन्तु इसके भी दो पक्ष हैं—लड़के वाले लड़की वालों से एक नियत राशि और सामग्री की आशा करते हैं और लड़की वाले लड़के वालों से लड़की के लिए एक नियत राशि की जेवर-सामग्री । लड़के वालों के लिए तिलक में मिली सामग्री उनकी प्रतिष्ठा का द्योतक बन जाती है तो लड़की वालों के लिए वर-पक्ष द्वारा लायी गयी जेवर-सामग्री और अन्य वस्तुएँ उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रतीक । ये दोनों ही स्थितियाँ जटिल हैं । दोनों को ही अपनी इन मांगों को छोड़कर झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा के मायाजाल से बाहर निकलना होगा । दोनों ही एक दूसरे को अति-आवश्यक चीजें छोड़कर कुछ न दें । खैर इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज का रक्त चूसने वाली और इसे विकलांग बना देने वाली बिहार के भाल के कलंक इस दहेज़ प्रथा का समूल विनाश करना ही होगा । और इसके लिए हमारे नवयुवक वर्ग को इसके विरुद्ध दृढ़ संकल्पित होकर आदर्श विवाह का उदाहरण पेश करना होगा ।

 

दहेज़ प्रथा को रोकने हेतु सुधारात्मक और निवारक दोनों तरह के उपायों की जरूरत है :-

१) विवाह योग्य नवयुवक अपने माता-पिता द्वारा दहेज़ के रूप में वधू के माता-पिता को बेचे जाने वाली बाजारू वस्तुएँ नहीं बने ।

२) अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देना होगा ।

३) दहेज से पीड़ित व्यक्तियों को कानूनी और सामजिक संरक्षण प्रदान करना चाहिए ।

४) इस समस्या के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए टीवी, रेडियो और समाचारपत्रों में ऐसी घटनाओं पर पूरी गंभीरता के साथ प्रकाश डालना चाहिए और गाँव के हर द्वार-द्वार जाकर जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए ।

५) नुक्कड़ नाटकों में ऐसी घटनाओं को जीवन के गंभीर मामलों के रूप में प्रदर्शित करना चाहिए, न कि मनोरंजन के एक साधन के रूप में ।

६) महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना चाहिए ।

७) दहेज़ हत्या से सम्बंधित मामलों के जांच के लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की जानी चाहिए ।

८) पैतृक संपत्ति में लड़कियों/महिलाओं की हिस्सेदारी को सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।

९) सामाजिक कार्यों एवं संस्कारों में लड़कियों को भी लड़कों के समान अधिकार प्रदान किये जाने चाहिएँ ।

१०) विवाह समारोहों पर खर्च की सीमा निर्धारित की जानी चाहिए ।

११) बेटियों को बचपन से ही पराया धन का तमगा देकर उनके साथ दोहरा व्यवहार और उन्हें बोझ समझने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए ।

 

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी पुत्री सरोज की स्मृति में एक कविता लिखी थी, जो सरोज की मृत्यु के बाद लिखी गई थी । इस कविता में उन्होंने अपने मनोभाव को अत्यंत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है । जब अपनी लड़की के विवाह के लिए उन्हें अपेक्षित वर मिल गया तब उन्होंने उसे सीधे सपाट शब्दों में पत्र लिखा जिसका आशय इस प्रकार था—-

 

“ख़त लिखा, बुला भेजा तत्क्षण युवक भी मिला प्रफुल्ल

चेतना में बोला मैं हूँ रिक्त हस्त इस समय विवेचन में समस्त

जो कुछ है मेरा अपना धन पूर्वज से मिला करूँ अर्पण

यदि महाजनों को, तो विवाह कर सकता हूँ पर नहीं चाहें”

 

निराला ने तो अपनी एक मात्र पुत्री के विवाह में न निमंत्रण-पत्र छपवाए, न रिश्तेदारों को बुलाया और न ही किसी तरह का खर्चे से सम्बंधित दिखावा किया । यदि निराला जैसे कवि एवं बुद्धिजीवी हमारे देश में ऐसे दृष्टान्त उपस्थित कर सकते हैं तो हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को इस ओर पहल करनी चाहिए । आइए, हम सब मिलकर दहेजमुक्त बिहार बनाएँ ।


अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ।

लेखक – अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, पटना

 

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