बिहारियों को सुननी होगी अपनी मातृभूमि की पुकार, तभी बन सकेगा विकसित बिहार


एक गांव था, कोई गरीब तो कोई बहुत गरीब, कुछ के पास जमीन थी। छोटे किसान और कुछ जमींदार भी थे जिले में | गांव में सड़क नहीं थी और बिजली भी २ घंटे से ज्यादा नहीं | आठवीं तक स्कूल था और हाई स्कूल ३५ किलोमीटर दूर | अस्पताल भी नहीं था बस एक डॉक्टर का क्लिनिक | उसी गांव में हरखू किसान उसकी बीवी बिमला और दो बच्चे रहते थे |

 
हरखू अपने बेटे हरीश को जैसे तैसे हाई स्कूल तक पढ़ा देता है। हरीश बहुत मेहनती था, पढ़ता गया और एक दिन इंजिनियर बन गया | गांव के लोगों को बहुत गर्व हुआ | किशन दुकानदार था उसका बेटा भी डॉक्टर बना | गांव में चारों तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल था | बगल के गांव के सिन्हा जी, जो को-ऑपरेटिव बैंक में थे, उनका बेटा UPSC में गया | पुरे जिला में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी | हरखू का बेटा बंगलोर में ७० हज़ार हर महीने पर नौकरी करने लगा, किशन जी का बेटा तो सरकारी बाबू बना | धीरे धीरे गांव में बच्चे इंजिनियर बनते गए और बहुत गर्व का माहौल हो गया | कुछ इस जिले के बच्चे तो हिंदी फिल्म लाइन में डायरेक्टर भी बने |

 

आज १५ साल बाद हरखू का बेटा हरीश, किशन का बेटा और सिन्हा जी के बच्चे बहुत आगे बढ़ गए हैं | सिन्हा जी के IAS लड़के ने तो गुड़गांव में दो घर भी ले लिए, सिन्हा जी अब गुड़गांव में रहते हैं | हरीश की अपनी कंपनी है | पिछले २० सालों में ४००० बचे इंजिनियर बने, ३८० IAS/IPS, ७० PO इत्यादि आज पुरे जिले से बने | कुछ तो IIM जैसे जगह से पास होकर अमरीका में भी हैं |

 

लेकिन गांव में आज भी सड़क नहीं है, बिजली चार घंटे ही आती है | स्कूल और अस्पताल कभी नहीं बने | लेकिन गाँव वाले गर्व में जीते हैं अपने बच्चों पर |

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पलायन का यही दर्द बिहार पिछले कई वर्षों से झेल रहा है। यहाँ की प्रतिभा नाम कमा आती है, बिहार उनपर गर्व भी करने लगता है, मगर वो प्रतिभा कभी पीछे मुड़कर अपनी जन्मभूमि की तरफ नहीं देखी। वो प्रतिभा भूल जाती है अपनी मातृभूमि के प्रति अपना कर्ज़, वो भूल जाती है अपनों के प्रति अपना फर्ज। ये दुःखद परिस्थिति है।

बिहार के लाल और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित युवा उपन्यासकार नीलोत्पल मृणाल कहते हैं कि बिहार को बदनाम करने वालों में उन बिहारियों का भी योगदान है जो यहाँ पले-बढ़े फिर अपनी मातृभूमि का कर्ज चुकाने से मुकर गए। बिहार की पहचान एक गरीब राज्य की इसलिए भी बनी कि यहाँ से बाहर गया यही गरीब तबका है जो अपनी मातृभाषा या संस्कृति को अपने साथ लेकर गया। एलीट क्लास के बिहारियों ने खुद को बिहारी कहलाना पसंद नहीं किया। जब यहाँ से निकले आईएएस-आईपीएस, डॉक्टर्स-इंजीनियर्स और तमाम बड़े अधिकारी अपने बिहार के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने लगेंगे, अपनी संस्कृति सबके सामने रखने से मुकरेंगे नहीं, तभी ये हालात सुधरने की उम्मीद की जा सकती है।

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सौजन्य: कहानी Nitin Chandra के फ़ेसबुक वाल से ।

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नेहा नूपुर: पलकों के आसमान में नए रंग भरने की चाहत के साथ शब्दों के ताने-बाने गुनती हूँ, बुनती हूँ। In short, कवि हूँ मैं @जीवन के नूपुर और ब्लॉगर भी।