बुड़बक बिहारी बेवकूफ बनता है, खुद का मजाक उड़ता देखकर बत्तीसी दिखाता है 

क्या बॉलीवुड बिहार से नफ़रत करता है? सवाल बेहद अटपटा लग सकता है लेकिन सच्चाई तो यही लगती है। दरअसल अभी हाल में दो फ़िल्में बिहार पर बनी है। एक रिलीज हो गयी, दूसरी होने वाली है। चेतन भगत की लिखी किताब हाफ गर्लफ्रेंड पर बनी फिल्म में ये दिखाया गया है कि बिहारी को अंग्रेजी नही आती। वही अनारकली ऑफ़ आरा में बिहारी को ‘रंडी नाच’ से मशहूर समूह के नचनियां के रूप में पेश किया गया  है। फेमिनिस्ट का लिबास ओढ़कर फिल्म बिहारियों को जिस रूप में दिखाती है, कमोबेश यह वही रूप है, जिसे गैर बिहारी बिहारियों के चित्रण करते नजर आते है। यहाँ मजेदार बात यह है कि फ़िल्में देखकर लहालोट वो हो रहे है, जो गाहे बगाहे बिहारी स्वाभिमान की दुहाई देते फिरते है और बात बात पर बिहार को जबरदस्ती बदनाम करने का रोना रोते रहते है।

 

अंग्रेजी में एक शब्द होता है, जिसे Narrative बोलते है। एक सिलसिलेवार तरीके से किसी चीज को पेश करना, जिससे चीजे अपने तरीके से नजर आये। किसी की छवि बिगाड़ना है तो उसके किसी कमजोर पक्ष को इतना उजागर कर दो कि वह सरेआम उपेक्षित और उपहास का शिकार बन जाए। यही वह प्रवृति है जो किसी एक परीक्षा सेंटर पर हुई चोरी की तस्वीर एक झटके में लाखों लोगों की मेहनत को फ़र्ज़ी ठहरा देती है। एक हसोड़ नेता से पुरे बिहार को हँसी ठिठोली का पर्याय मान बैठती है।

देशभर में बिहार की छवि ख़राब करने में जितना हाथ बिहार के नेताओं का रहा है, मीडिया का रहा है, उससे कम फ़िल्मी दुनिया का नही है। जैसे हॉलीवुड में भारत दीखता है, कुछ उसी तर्ज पर बॉलीवुड बिहार को हमेशा पिछड़ा, गरीब,भिखमंगा तो समझता ही है, वह “बिहारी” पहचान को भी हमेशा एक उपहास और बदनीयती से ही पेश करता रहा है। सिवाए इक्का दुक्का उदाहरण को छोड़कर हमेशा एक नकारात्मक और बिहारियों को जलील करने के उद्देश्य से ही फ़िल्में बनायी गयी। दुःखद तथ्य यह है कि ऐसी फिल्में बनाने में बिहारी आगे रहते है,उनके चेहरे होते है।

 

अब भला फिल्म बने पंजाब पर, उसमें एक बिहारी लड़की को मजदुर की वेश में दिखाना क्या मज़बूरी हो सकती है निर्देशक के लिए, वह भी घटिया तरीके से भोजपुरी बोलते हुए। गंगाजल से लेकर अपहरण तक, हाल के वर्षों में बिहार केन्द्रित बॉलीवुड की चर्चित फिल्मों में अधिकतर बिहार के नकारात्मक चित्रण पर ही केन्द्रित रही। गैंग्स ऑफ़ वासेपुर झारखंड की कहानी थी लेकिन वह इसी बिहारी खेप में खप गया। शूल, दामुल, अंतर्द्वंद जैसी फ़िल्में बिहार के नकारात्मक पक्ष को ही दिखाने का काम किया। मांझी कुछ हद तक धारा से अलग दिखी मगर छुआछुत का तड़का लगाना निर्देशक नही भूले। ये तो कुछ प्रचलित नाम है, न जाने कितनी ऐसी फ़िल्में बनी, जिसने बिहार की बोली को सदैव उपहास के रूप में चित्रित किया। भला पीके को कौन भूल सकता है। यहाँ गौर करने वाली बात है कि बिहार पर केन्द्रित कई फिल्म बनाने वाले प्रकाश झा कोई फिल्म बिहार में शूट नही करते। मतलब कोई आर्थिक लाभ भी नही। मिली तो केवल बदनामी ही बदनामी। बिहार का हाल गाँव के उस कहावत में फिट बैठती है कि “जातों गवइली, भातो न खईली”।

कला की रचनात्मकता सदैव संदेह से परे होनी चाहिए। लेकिन एकपक्षीय चित्रण और वह भी नकारात्मक, एक संदेश देता है कि मामला गड़बड़ है। अपहरण, भ्रष्टाचार, ग़रीबी बिहार की सच्चाई है। नेता, पुलिस, अपराधी का गठजोड़ बिहार के हर कोने में है। कर्पूरी ठाकुर के अंग्रेजी मुक्त शिक्षा से प्रभावित पीढ़ी अंग्रेजी अंग्रेजों की तरह नही बोलती। मगर तस्वीर का दूसरा पहलु भी है। देश के बाकी हिस्सों में भी यही समस्याएं है। लेकिन जान-बुझकर बिहार को ही अपने निशाने पर लेना, ये तो अतिरेक है न! सभी बिहारी को अंग्रेजी नही आती, ये संदेश देने का अर्थ मानसिक दिवालियेपन और बिहार के प्रति पूर्वाग्रह के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। देश दुनिया को दिखाए जाने योग्य कई अन्य पहलू भी है बिहार में लेकिन वह न तो बॉलीवुड के खांचे में फिट बैठती है, न ही यह  उनके “बिहारी” सेन्स को दिखाने में मजेदार लगता है। बुड़बक बिहारी बेवकूफ बनता है, अपने ही भाषा व बोली का मजाक उड़ता देखकर बत्तीसी दिखाता है और  पैसा उड़ाकर चला आता है, अपनी ही लोगों को मजाक का पात्र बनाने के लिए।

 

मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतजार है कि जब बॉलीवुड रोमांस करते सीन बिना बिहार की किसी बोली की कॉपी करते बिहार में शूट करेगी और बिहार उस फिल्म के केंद्र में होगा। मुझे बॉलीवुड सच में एंटी बिहारी नही लगेगा, जब वह भोजपुरी जैसी खुबसूरत भाषा और करोड़ों की अज़ीज़ बोली को नकारात्मक व व्यंग्यात्मक तरीके से पेश नही करेगी। मुझे वह दिन ज्यादा अच्छा लगेगा जब मुंबई के किसी सिनेमाघर में अनारकली के आरा की जगह महज 22 वर्ष में आईआईटी में प्रोफेसर बनने वाले तथागत अवतार तुलसी पर बनी फिल्म की चर्चा सुनने को मिलेगी। वह उस क्षण का इंतजार रहेगा, जब बॉलीवुड चाणक्य पर केन्द्रित फिल्म बनाकर उसे परदे पर दिखाकर बिहार की प्रतिभा का भान कराएगी। वह पल मेरे लिए बेहद रोमांचकारी होगा, जब नालंदा विश्वविद्यालय के गौरव, आर्यभट्ट की प्रतिभा और वैशाली की आम्रपाली के ऊपर बगैर किसी ऐतिहासिक छेड़छाड़ के फिल्म बनेगी। बिहार के नौजवानों की कहानी किसी परीकथा जैसी मिल जायेगी। खोजिये उन बिहारियों को जो अंडा, भुजा बेचने वाले परिवारों से थे लेकिन अपनी मेहनत लगन से आज आईएएस बनकर, उद्योगपति के रूप में, प्रवासी भारतीय के रूप में देश का नाम रौशन कर रहे है।

पता नही ये स्वप्न कभी पूरा होगा भी या नही, लेकिन तबतक स्व. गिरीश रंजन जैसे फिल्मकार याद आते रहेंगे जो बिहार के लिए बड़ी फ़िल्में नामचीन कलाकारों को लेकर नही बना पाए लेकिन “कल हमारा है” जैसी फिल्म और पाटलिपुत्रा से पटना तक, विरासत, बिहार इतिहास के पन्नों में जैसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाकर बिहार के  सकारात्मक व गौरवशाली पक्ष को दिखाते रहेंगे, जो न केवल देश को बिहार के अतीत व उसके योगदानों की याद दिलाएगा, बल्कि बिहारियों को प्रेरित भी करेगा।

 

– अभिषेक रंजन  (समाजिक कार्यकर्ता)

 

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