माह-ए-मुहब्बत 2: कोचिंग सेंटर में उपजी यह प्रेम कहानी जब अपने अंत तक पहुँची

प्रेम तो सबका एक समान ही होता है, बस पात्र, समय, स्थान और दृश्य अलग-अलग होते हैं। ‘माह-ए-मुहब्बत’ में आज ऐसी ही एक कहानी जो बिहार के किसी छोटे शहर के कोचिंग सेंटर पर घटित हुई।

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​वर्षों बाद देखा था उसे आज, या शायद ये दो तीन वर्ष ही ‘वर्षों’ जैसे बीते थे। नजरें ऐसे जमीं उस पर जैसे आलास्का में बर्फ जमती है। वही गहराई आँखों में आज भी थी।

जब पास पहुंचे तो हम दोनों ही खामोश रह गए ऐसा लगा कि उस पल को खामोशी के साथ जीना ही एहतियाज हो।

जून में गर्मी अपनी पूरी जवानी जीने की कोशिश कर रही थी और हम अपनी पूरी जवानी R.S Agarwal के math के सवालों के साथ गुजार रहे थे।

पहला क्लास था उसका। जब क्लास में आई तो नजरें इसलिए टकरा गईं कि उसकी वजह से मुझे अपनी सीट छोड़, पीछे जाना पड़ा था। बला की खुबसूरत थी, ऐसा हरगिज नहीं था पर आँखो की पाकीज़गी जरूर बेचैन कर रही थी मुझे। 

हर दिन क्लास आती। हम दोनों ही बैंक की परीक्षाओं की तैयारी में लगे हुए थे। कुछ महीने बाद ही मेरा रिजल्ट पीओ के एक एक्जाम में आया। मैंने पुरे क्लास को पार्टी दी, वो भी आई थी। रेड सुट में उसकी सांवली रंगत ऐसे निखर रही थी जैसे एक फूल में दो रंग जंचते हैं। पहली बार हमारी बातचीत हो पाई। बातें भी ऐसी जो अब तक ज़ब्त हैं ज़हन में। उस वक्त भी हम जुबां से ज्यादा आँखों से ही बात कर रहे थे। फिर phone number exchange हुए, feeling exchange हुई और शायद दिल भी। ‘शायद’ इसलिए कि उसके दिल में क्या था, पता नहीं था।

बातों का सिलसिला शुरू हुआ। जब हम बातें करते तो ऐसा लगता कि इस जहां में सिर्फ हम हैं, बाकी सारी दुनिया गौण है। हम इधर उधर की लाखों बातें करते पर ना ही कभी इजहार- ए- मोहब्बत हुई, ना ही कोई commitment. मेरे Joining की date आई तो लगा जाने से पहले एक बार उसे देखना जरूरी है।

हमारा मिलना आसान नहीं था क्योंकि ना ही शहर बड़ा था ना ही लोगों की सोच। तय हुआ कि हम रेस्टोरेंट जाएँगे पर साथ नहीं बैठेंगे। …और हम पहुँच गए अपनी आँखों में उसे भरने के लिए।

चाहे लाखों लड़कियाँ उससे बेहतर और बेपनाह खुबसूरत हों पर उस दिन के बाद मुझे कोई भी लड़की उससे अच्छी नहीं लगी। हमने कोल्ड काॅफी आर्डर किया था, पता नहीं उसका स्वाद कैसा था, क्योंकि काॅफी पर ध्यान एक बार के लिए भी नहीं गया।

उसके बाद मैं अपने शहर, और उसे जो आज कल सबसे जरूरी थी, को छोड़ दिल वालों के शहर दिल्ली आ गया। बातों का सिलसिला जारी था। कुछ महीनों बाद उसका सेलेक्शन भी एक बैंक में हो गया और वो कोलकाता चली गई।

अगस्त का महीना था उसका फोन आया थोड़ी उदासी थी उसकी आवाज में, बोली शादी तय हो गई है मेरी।

क्या…., कब …. I mean congratulations फोन कट गया।

उसके बाद क्या हुआ मुझे वो याद करने की हिम्मत आज भी नहीं होती ….बस ऐसा लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया कुछ बाकी नहीं रहा। क्या बोलूँ उसको की तुमने घोखा दिया, नहीं ये नहीं कह सकता। जब हम दोनों ने ही एक दूसरे से आज तक कोई वादा ही नहीं किया तो घोखे की बात कहां से आई।….फिर भी मुझे लगता था कि जुबां से ना सही जहन में तो ये बात थी कि हम हमेशा साथ रहेंगे।

4-5दिन बाद उसका फोन आया, मिलने आ सकते हो? क्या बोलूँ उसको, शायद जाते जाते उसने एक ख्वाहिश जाहिर की थी मना कैसे करता!

वो हमारी आखिरी मुलाकात थी । हम CCD में बैठे थे, आज भी हाथों में कोल्ड काॅफी ही थी। बस हालात अलग थे। उस वक्त स्वाद पर ध्यान नहीं था पर आज की काॅफी बहुत ही कड़वी लग रही थी।

उसने कहा, “मुझे पता है, हम दोनों ही एक दूसरे को पसंद करते हैं (ये हमारी पहली इजहार -ए – मोहब्बत थी वो भी तब जब हम अलग हो रहे थे ), पर मैं अपने घर की सबसे बड़ी बेटी हूँ। और भी दो बहनें हैं मेरी। बहुत अरमान है मेरे पैरेंट्स के, मैं उन्हें दुखी नहीं कर सकती। I think हमें यहां से अपने अपने रास्ते लौट जाना चाहिए।तुम एक बेहतरीन इंसान हो, तुम्हें एक अच्छी लाइफ पार्टनर मिलेगी पुरी उम्मीद है मुझे। और दोस्त की हैसियत से हम हमेशा टच में रहेंगे ही।” वो बोलते जा रही थी 

और मैं……मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। क्या सच में कोई रिश्ता किसी हैसियत में बंध कर रह सकता है।

जब वहां से स्टेशन जाने के लिए ऑटो में बैठा तो एक गाना बज रहा था-

“हम तुम मिले कोई मुश्किल न थी

पर इस सफर की मंजिल न थी

ये सोच कर दूर तुमसे हुए”
वो गाना हमारे दिल का हाल बता रहा था।

उस वक्त लगा कि जिदंगी ऐसे क्यों बदलती है कि यकीन ही नहीं आता। लौट आया मैं वापस दिल्ली, पर खाली था भीतर से। दिल वालों का शहर अचानक बेजार लगने लगा।

दिसंबर में उसकी शादी थी, उसने बुलाया था पर मैं नहीं गया। हिम्मत नहीं हुई। टच में रहने का भी किया था पर जो वादा खामोशी ने साथ रहने का किया था जब वो नहीं निभ पाया तो ये कैसे निभता।

आज हम फिर सामने हैं, दरसल हम एक काॅमन फ्रेंड की पार्टी में पहुंचे थे।

पास आकर बोली, “कैसे हो?” क्या जवाब देता कि अच्छा होना तो उसी दिन बंद हो गया था जब तुम गई थी ।पर ये कह नहीं पाया, बोला, “अच्छा हूँ”। “ये चोट कैसे लगी?”, मेरे हाथों का प्लास्टर देख उसने पूछा। “कुछ नहीं बस एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया था।”

उसके हसबैंड नहीं थे। हम पूरी पार्टी एक दूसरे को कंफर्टेबल करने की कोशिश में ही गुजार दिए। वापस जाने के वक्त मेरे जूते का फीता खुल गया था, जैसे ही मैं झुका बांधने उसने बोला, “रूको मैं बांध देती हूँ।” सच उस एक लम्हें में मैंने अपनी पूरी जिन्दगी जी ली उसके साथ।

वो अपनी दुनिया में खुश थी और मैं …खुश होने की पूरी कोशिश में।

हम मिल न सके इसका अफसोस जीवन भर रहेगा। पर जितने दिन भी उसका साथ मिल पाया वो एक अनमोल खजाना है मेरी यादों का। इसे मैं कभी खोने नहीं दूंगा।

और वो चली गई। उस रात के अंधेरे में भी मैं उसकी गाड़ी को दूर तक जाते देखता रहा।

फिर कहीं दूर से उसी गाने की धुन सुनाई दे रही थी, 

“हम तुम मिले कोई मुश्किल न थी

पर इस सफर की मंजिल न थी

ये सोच कर दूर तुमसे हुए हुए…”
नोट- प्रस्तुत कहानी सच्ची है और ये आपन बिहार की एक सदस्या सुश्री अर्पणा द्वारा हमारे साथ साझा किया गया है। आप भी अपनी या अपने आसपास की कोई प्रेम कहानी हमारे साथ साझा कर सकते हैं। हमारे पता है- contact@aapnabihar.com।

नेहा नूपुर: पलकों के आसमान में नए रंग भरने की चाहत के साथ शब्दों के ताने-बाने गुनती हूँ, बुनती हूँ। In short, कवि हूँ मैं @जीवन के नूपुर और ब्लॉगर भी।