बिहार के भागलपुर से शुरू हुआ ‘देवदास’ रचयिता कथाशिल्पी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का सफ़र

‘विराज बहु’, ‘बिंदु का लल्ला’, ‘राम की सुमति’, ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’, आदि के रचयिता कथाशिल्पी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म भले ही बंगाल में हुआ हो परन्तु कहानियां गड़ने का उनका सफर बिहार के भागलपुर की गलियों से होता हुआ गुज़रा.
शरत के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वपनदर्शी व्यक्ति थे इसलिए जीविका का कोई भी धंधा उन्हें कभी बांधकर नहीं रख सका. नौकरी मिलती भी तो अचानक बड़े साहब से झगड़कर उसे छोड़ बैठते. ऐसा होना स्वाभाविक भी था. मोतीलाल को चित्रकला, कहानियां, उपन्यास, नाटकल सभी कुछ लिखने का शौक था. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. ऐसे में उनके पास जो कुछ भी शरत को देने के लिए था वो यही था. शरत भी ऐसा ही था. एक साथ वीरता और बांसुरी की विद्या में निपुण, मधुर कंठ स्वर और हारमोनियम, क्लेयरनेट सभी कुछ बजाना जनता था. याद होगा ‘चरित्रहीन’ का सतीश भी तो इन विद्याओं में दक्ष है.
मगर भूके पेट को कब तक सुलाए रख सकते हैं. हालातों से हारकर शरत की माँ भुवनमोहिनी एक दिन सबको लेकर भागलपुर अपने पिता केदारनाथ के यहाँ रहने चली गयी. मोतीलाल वहां घर- जंवाई होकर रहने लगे.
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भागलपुर आने पर शरत को एम. ई. स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती करा दिया गया. यहाँ उसे ‘सीता- बनवास’, ‘चारु पाठ’, ‘सदभाव- सतगुरु’, और ‘प्रकांड व्याकरण’ पढ़ना पड़ता था. ये सब उसके लिए नया भी था और मुश्किल भी. उसे केवल ये पढ़ना ही नहीं था बल्कि रोज़ सुबह पंडितजी के समक्ष खड़े होकर परीक्षा देना भी था. स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय  हुआ करता था. वहीं बैठे बैठे शरत ने सभी प्रसिद्द लेखकों की पुस्तकें पढ़ डाली. शरत केवल पढता ही नहीं था. वो हमेशा कहता था, “इस दुनिया में जो विभिन्न प्रकार की चीज़ें देखते- सुनते हैं उन्हें क्या कोई रूप नहीं दिया जा सकता?” पर वो प्रतिभाशालियों के वंश में पैदा हुआ था.
देखते ही देखते वो अपने सहपाठियों को पीछे छोड़ अच्छे बच्चों की श्रेणी में गिना जाने लगा. मोटा मोटा कह सकते हैं की शरत का साहित्य से प्रथम परिचय भागलपुर मे हुआ.
स्कूल में शरत ना केवल पढाई लिखाई में आगे रहता था बल्कि शरारतों में सबका लीडर था. स्कूल की घडी का समय ठीक करके चलाने का भार अक्षय पंडित पर था. परन्तु ड्यूटी से थककर वो स्कूल के सेवक जगुआ की पानशाला पर तम्बाकू खाने चला जाता था. इसी समय शरत की प्रेरणा से दूसरे छात्र उस घडी को दस मिनट आगे कर देते. कई दिन पकडे ना जाने के कारण उनका साहस प्रबल होने लगा. अब घडी का काँटा आधे घंटे आगे चलने लगा. अभिभावकों के मन मे संदेह उठा पर पंडितजी का कहना था, “मैं स्वयं घडी की देख- रेख करता हूँ.”
एक दिन पंडित पानशाला से असमय लौट आया. क्या देखता है की बच्चे एक- दुसरे के कंधे पर चढ़कर घडी को आगे कर रहे हैं. पंडित को देख सभी बच्चे वहां से भागने लगे लेकिन इस सारे नाटक का निदेशक शरत पर तोह अच्छे बच्चे की छवि को बनाए रखने का भार था. वो भले लड़के का अभिनय करता वही बैठा रहा. किसीको शक भी नहीं हुआ और काम भी हो गया.
शरत बाग़ से फल चुराना भी खूब जनता था. मालिक लोग शक भी करते और पेड़ पर लगे अमरूदों की गिनती भी रखते. पर अगर मालिक दाल- दाल  तो शरत पात- पात. शरत के सभी प्रसिद्द पात्र देवदास, श्रीकांत और सव्यसाची भी तोह इस कला में सिद्ध हैं.
नाना के घर अब और अधिक दिन रुकना बालक शरत के लिए संभव नहीं था. मोतीलाल ना केवल स्वपनदर्शी थे, बल्कि हुक्का पीना, बच्चों के साथ  बराबरी का व्यवहार करना जैसे अन्य दोष भी वो समाय हुए थे. तीन वर्ष नाना के घर भागलपुर रहने के बाद शरत वापस बंगाल के देवानंदपुर आ गया और यही उनका जन्मस्थान भी था. भागलपुर में नाना की संगती में रहते उसने हमेश भला लड़का बने रहने का प्रयत्न किया. शरारतों में उसकी मास्टरी थी परन्तु दया-दीन के कामों में भी वो आगे रहता.  पतंगबाज़ी में जितनी गोलियां और लट्टू जीतता, संध्या को वह उन सबको छोटे बच्चों में बाँट देता.
शरत जब भागलपुर वापस लौटा तो उसके पुराने दोस्त प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे और देवानंदपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट जुगाड़ने के उनके पास पैसे नहीं थे.
सौभाग्य से स्कूल के एक शिक्षक श्री पंचकौड़ी बंदोपाध्याय के पिता श्री बेनीमाधव बंदोपाध्याय शरत के नाना के मित्र थे. इस बदौलत शरत को दाखिला मिल गया. उन दिनों भागलपुर का खंजरपुर क़र्ज़ लेने का अड्डा हुआ करता था. विप्रदास सरकारी नौकर गुलजारीलाल से चार पैसे रूपए माह की दर पर क़र्ज़ लिया गया. इसी रूपए के सहारे शरत परीक्षा में बैठ सका.
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भागलपुर लौटने के साथ ही शरत के पुराने मित्र राजू और नीला भी उसके पास लौट आए. इनकी मित्रता में कोई लेन देन या व्यक्तिगत लाभ नहीं छिपा था. शरत पढाई मे चतुर था पर सही समय पर आँख ना खुल पाना उसकी कमज़ोरी थी. इसलिए नीला एक दिन चुपचाप  शरत के लिए टाइमपीस ले आया. भागलपुर आने के बाद शरत का ज़्यादातर समय राजू की छात्रोचाया में बीता करता था. घर में पैसे की कमी के चलते शरत पढ़ना- लिखना छोड़ लड़की के कारखाने में काम करने जाता था. एक बार शरत को सांप ने काट लिया था. तब वो राजू ही था जो तूफानी गंगा में नाव लेकर ओझा को बुलाने गया था. अगर राजू समय रहते ना आता तो कुछ भी हो सकता था.
उन दिनों भागलपुर का नाम चोरी- डकैती की घटनाओं में आगे रहता था. सभी रात को हथियार पास रखकर सोते थे. एक रात राजू के बड़े भाई मणीन्द्रनाथ परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. उनका कमरा गंगा- तट पर वट वृक्ष के पास था. वहां तक पहुँचने के लिए आस- पास कांस के जंगलों से होकर गुज़ारना पड़ता था. सांप और रीछ दिख जाना तोह आम बात थी. मणीन्द्र की नज़र खिड़की के बहार पड़ी. उन्होंने देखा कि किसी मनुष्य का सिर उभर रहा है. उन्होंने डर में बन्दूक संभाली लेकिन वे दागने ही वाले थे की तभी आवाज़ आई, “मणि, मणि क्या करते हो? बन्दूक मत चलाओ. ये मैं हूँ शरत.” रात के दो बज रहे थे. न सांप काटने का डर न चोरों द्वारा मारे जाने का भय.
आगे चलकर राजू और नीला के साथ भागलपुर में बिताए ये दिन बच्चों के लिए लिखी शरत कि कई कहानियों का आधार बने. ‘देवदास’ में तोह जैसे उसने अपने बचपन को सजाया है.
भागलपुर में खोला थिएटर
शरत भागलपुर कि गलियों में भटकता उस समय को जी रहा था जब लोगों को थिएटर पसंद हुआ करता  था. तभी भागलपुर के बंगाली समाज में थिएटर का उदय हुआ. शरत ने अपने दल के साथ मिलकर एक थिएटर खोला जिसमे पहला नाटक बंकिमचंद्र का ‘मृणालिनी’ प्रस्तुत किया गया. इसमें मृणालिनी का अभिनय स्वयं शरत ने किया जिसे देखकर दर्शकों के हाथ तालियां बजा बजाकर थक गए. राजा शिवचंद्र का बेटा कुमार सतीशचंद्र इस दल का प्राण था. कुमार सतीश के अन्नप्राशनोत्सव के अवसर पर कलकत्ता के प्रसिद्द मिनर्वा थिएटर के अभिनेता भागलपुर पधारे थे और राजबाड़ी में बढ़ी धूमधाम से उन्होंने ‘अलीबाबा’ नाटक खेला था. शरत ने इस नाटक में मुस्तफा की अदाकारी की थी.
भागलपुर में रहते रहते उनका पहला उपन्यास ‘बासा या काकबासा’ तैयार हो चुका था. पर पढ़ने के बाद उन्हें वो पसंद नहीं आया.
‘कोरेल ग्राम’ कहानी का पहला अक्षर देवानंदपुर में लिखा जा चुका था लेकिन वह कभी प्रकाशित नहीं हो सका. उसे दोबारा लिखने कि प्रेरणा उन्हें भागलपुर से मिली. कहना गलत नहीं होगा यदि बंगाल के चौराहे शरतचंद्र कि जन्मभूमि थे तो भागलपुर के जंगल और खुले मैदानों में उसके प्राण बसते थे.

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