जानिए बिहार का एक ब्राम्हण परिवार के लड़के ने कैसे शौचालय को बनाया इंटरनेशनल ब्रांड

दोस्तों किसी की जीवन में कुछ ऐसी घटनाये घटती है जिसके कारण उनके जीवन का मकसद बिलकुल स्पष्ट हो जाता है की हमें क्या करना है . आज मै एक ऐसे ही सामाजिक कार्यकर्ता एवं उद्यमी के बारे में बताने जा रहा हूँ, जिनके बचपन में कुछ ऐसी घटना घटी जिसने उनके जीवन में एक नया मोड़ ला दिया. उन्होंने खुले में शौचालय जाते महिलाओं और पुरुषों की झुकी नजरो को उठाने के लिए सुलभ इन्टरनेशनल की स्थापना कर डाली.

जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ बिहार के महान उद्यमी बिन्देश्वर पाठक के बारे में. उनकी कंपनी न सिर्फ स्वच्छता अभियान का हिस्सा बन रही है, बल्कि मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों और शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली एक अग्रणी संस्था भी है. पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित बिन्देश्वर पाठक द्वारा किए गए कार्यों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है और पुरस्कृत किया गया है|

कौन है बिन्देश्वर पाठक?

डॉ बिन्देश्वर पाठक  का जन्म 2 अप्रैल 1943 को बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में रूढि़वादी ब्राह्णण परिवार में हुआ. डॉ बिन्देश्वर पाठक जी कहते है कि मैं एक ऐसे बड़े घर में पला बढ़ा जिसमें 9 कमरे थे, पर एक भी शौचालय नहीं था.  मैं सोते हुए या आधी नींद में हर सुबह कुछ आवाजें सुनता था. कोई बाल्टी उठा रहा होता था, कोई पानी भर रहा होता था और महिलाएं सूर्योदय से पहले शौच के लिए बाहर जा रही होती थीं.

कोई महिला बीमार पड़ जाती तो उसे एक मिट्टी के बर्तन में ही शौच करना पड़ता था. कई महिलाओं के सिर में दर्द रहता क्योंकि उन्हें दिनभर अपने शौच को रोककर रखना पड़ता था. मैंने यह सब देखा है.

मैंने उन पुरुषों की झुकी हुई नजरें भी देखी हैं, जो दिन के समय खुले में शौच के लिए बैठे होते थे.

बचपन की कुछ घटनाओ से मिली सुलभ इंटरनेशनल शुरू करने की प्रेरणा

डॉ बिन्देश्वर पाठक से जब पूछा जाता है कि एक ब्राह्मण परिवार का लड़का शौचालय जैसे समाज सुधार के क्ष्रेत्र में कैसे आया तो वो कहते हैं-  ये मेरे बचपन की कुछ घटनाओं से जाना जा सकता है. मेरा जन्म 1943 में बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में एक रूढि़वादी ब्राह्णण परिवार में हुआ. जब मैं 6 वर्ष का था तो मैंने एक कथित अस्पृश्य महिला को छू दिया और रूढि़वादी अस्पृश्यता को मानने वाली मेरी दादी ने शुद्ध करने की बात कहकर जबरन मुझे गाय का गोबर और गौ मूत्र पिलाया. उसका कड़वा स्वाद आज भी मेरे मुंह में है. मुझे बाद में समझ आया, यही कहानी भारत के 7,00,000 गांवों और सैकड़ों शहरों की है. मेरी शिक्षा चार स्कूलों में हुई. उनमें से किसी में भी शौचालय नहीं था.

पढाई लिखाई

डॉ बिन्देश्वरी पाठक ने  सन 1964 में समाज शास्त्र में स्नातक की उपाधि ली। उन्हें  1968-69 में बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति के भंगी मुक्ति विभाग में काम करने का मौका मिला. समिति ने उन्हें  सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करने और दलितों के सम्मान के लिए काम करने को कहा ताकि उन्हें मुख्य धारा में शामिल किया जाए. एक उच्च जाति के एक पढ़े-लिखे युवक के लिए यह एक गलत कदम माना जाता था. लेकिन इसने उनके व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव किया और उनके  जीवन का रुख ही मोड़ दिया. सन 1980 में उन्होने स्नातकोत्तर तथा सन 1984 में पटना विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि अर्जित की। उनके शोध-प्रबन्ध का विषय था – बिहार में कम लागत की सफाई-प्रणाली के माध्यम से सफाईकर्मियों की मुक्ति (लिबरेशन ऑफ स्कैवेन्जर्स थ्रू लो कास्ट सेनिटेशन इन बिहार)।  उच्चकोटि के लेखक और वक्ता के रूप में श्री पाठक ने कई पुस्तके भी लिखीं। स्वच्छता और स्वास्थ्य पर आधारित विभिन्न कार्यशालाओं और सम्मेलनों में श्री पाठक  ने अभूतपूर्व योगदान दिया।

बेतिया की दलित बस्ती ने उनके  जीवन को एक नया मोड़ दिया

डॉ बिन्देश्वरी पाठक कहते है – मेरे जीवन में नया मोड़ तब आया, जब मैं बेतिया की दलित बस्ती में तीन महीने के लिए उनके बीच रहने गया. उस समय देश में जाति-प्रथा चरम पर थी. उनके साथ रहते हुए मैंने कई चीजें देखीं, जिन्होंने मेरी आंखें खोल दीं. इस वर्ग की पीड़ा दर्दनाक थी. तब मैंने अपना जीवन स्कैवेंजरों के लिए समर्पित करने की ठान ली. मैंने उस अपमान और तानों को नजरअंदाज किया जो मुझ पर आ रहे थे. अब मेरे सामने सवाल था पश्चिमी देशों में इस्तेमाल हो रही महंगी कलश और सीवर व्यवस्था के विकल्प के रूप में प्रभावी और सस्ती शौचालय व्यवस्था का विकास कैसे किया जाए, ताकि स्कैवेंजिंग प्रथा रोकी जा सके और उन्हें किसी अन्य काम में पुनर्वासित किया जा सके.

Bindeshwar Pathak

मैं कोई इंजीनियर या वैज्ञानिक नहीं था

डॉ बिन्देश्वरी पाठक कहते है – मैं कोई इंजीनियर या वैज्ञानिक नहीं था. इस वजह से शौचालय-प्रणाली का आविष्कार करने के लिए उपयुक्त नहीं था. लेकिन मैंने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया, गहन शोध किया और इस विषय पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की किताब की मदद से 1968 में एक टू-पिट पोर-कलश, डिस्पोजल कंपोस्ट शौचालय का आविष्कार किया, जो सरलतापूर्वक स्थानीय वस्तुओं से, कम लागत पर बनाया जा सकता. यह आगे चलकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव-अपशिष्ट के निपटान के लिए बेहतरीन वैश्विक तकनीकों में से एक माना गया. पहली बार इसकी सार्थकता दिखाने के लिए मुझे लंबा संघर्ष करना पड़ा. 1973 में मुझे यह अवसर मिला.

शौचालय का प्रयोग  हुआ सफल

शौचालय का प्रयोग सफल हुआ और इसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया . श्री पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की. 1974 में शहरी क्षेत्रों में ‘भुगतान और उपयोग’ के आधार पर सामुदायिक शौचालयों की अवधारणा विकसित की. इसे सबसे पहले बिहार और फिर पूरे भारत में लोकप्रियता मिली.  स्वच्छता के साथ ही इस संस्था ने दलित बच्चों की शिक्षा के लिए पटना, दिल्ली और अन्य जगहों पर स्कूल खोले जिससे स्कैवेंजिंग और निरक्षरता के उन्मूलन में सहायता मिली. महिलाओं और बच्चों को आर्थिक अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से इस संस्था ने  व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की. कई सांस्कृतिक भी पहल की, जैसे जाति-बंधन को तोडऩे के उद्देश्य से स्कैवेंजरों को मंदिरों में ले जाने, उच्च वर्गों और स्कैवेंजरों का एक दूसरे के घर में आने-जाने, अंतरजातीय सम्मेलन और गोष्ठियां आयोजित कीं. इससे जातिवादी मानसिकता में बदलाव आया, सामाजिक बंधन शिथिल हुए और जाति-प्रथा को तोडऩे की प्रक्रिया शुरू हुई.

सुलभ इंटरनेशनल

सुलभ इंटरनेशनल एक सामाजिक सेवा संगठन है जो मुख्यतः मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर पारंपरिक श्रोतों और शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन आदि क्षेत्रों में कार्य करती है. इस संस्था के 50,000 समर्पित स्वयंसेवक हैं. श्री पाठक ने सुलभ शौचालयों के द्वारा बिना दुर्गंध वाली बायोगैस के प्रयोग की खोज की. इस सुलभ तकनीकि का प्रयोग भारत सहित अनेक विकाशसील राष्ट्रों में बहुतायत से होता है. सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में प्रयोग को भी प्रोत्साहित किया.

Bindeshwar Pathak

सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन

1980 आते आते सुलभ भारत ही नहीं विदेशों तक पहुंच गया. सन, 1980 में इस संस्था का नाम सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन हो गया. सुलभ को लिए अन्तर्राष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इण्टरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया. श्री पाठकने  राजस्थान के अलवर में भी व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्र की स्थापना की है. यहां दलित महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई और ब्यूटी केयर में प्रशिक्षण दिया जाता है, जो पहले सिर पर मैला ढोने का काम करती थीं.

दिल्ली में की म्युजियम ऑफ ट्वॉयलेट्स नामक संग्रहालय की स्थापना 

2008 में प्रशिक्षण पाने वाली करीब तीन दर्जन महिलाओं को हम न्यूयॉर्क ले गए, ताकि वे संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में फैशन शो में शिरकत कर इंटरनेशनल इयर ऑफ सैनिटेशन में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें. इसके बाद सुलभ ने बायोगैस, जैव-उर्वरक, द्रव और कचरा-प्रबंधन, गरीबी-उन्मूलन के काम में पदार्पण किया. सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऐक्शन सोशियोलॉजी, सुलभ इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एन्वायर्नमेंटल सैनिटेशन और दिल्ली में एक अनोखे संग्रहालय म्युजियम ऑफ ट्वॉयलेट्स की स्थापना की. यह प्राचीनकाल की शौचालयों की विकास की कहानी बताता है. बहरहाल, सुलभ ने देश में जो भी योगदान दिए हैं, वह शौचालयों की संख्या में खो जाते हैं, लेकिन सुलभ का  लक्ष्य सिर्फ शौचालय ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव तथा मानवीय विकास है.

पुरस्कार एवं सम्मान

श्री पाठक को भारत सरकार द्वारा 1991 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया. सन् 2003 में श्री पाठक का नाम विश्व के 500 उत्कृष्ट सामाजिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की सूची में प्रकाशित किया गया. श्री पाठक को एनर्जी ग्लोब पुरस्कार भी मिला. श्री पाठक को इंदिरा गांधी पुरस्कार, स्टाकहोम वाटर पुरस्कार इत्यादि सहित अनेक पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया है. उन्होने पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने के लिये प्रियदर्शिनी पुरस्कार एवं सर्वोत्तम कार्यप्रणाली (बेस्ट प्रक्टिसेस) के लिये दुबई अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त किया है. इसके अलावा सन 2009 में अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा संगठन (आईआरईओ) का अक्षय उर्जा पुरस्कार भी प्राप्त किया.

चुनौतियाँ 

2019 तक खुले में शौच की परंपरा खत्म करना संभव है, लेकिन चुनौतियां अधिक हैं. सिर्फ राज्य और कॉर्पोरेट घरानों के तालमेल से यह मुमकिन नहीं होगा, जैसा कि प्रधानमंत्री ने संकेत दिया है. इसमें जीवंत लोगों की भागीदारी और सुनियोजित योजनाओं की भी जरूरत है. यदि स्वच्छता को राष्ट्रीय प्रयोजन के तौर पर अपनाने की राजनैतिक इच्छाशक्ति हो और जरूरी पूंजी का इंतजाम हो तथा 50,000 प्रशिक्षित प्रेरकों के साथ मिलकर एक प्रभावी आंदोलन किया जाए तो देश के हर घर में शौचालय उपलब्ध होगा. और तब हम 2019 तक खुले में शौच को अलविदा कह सकेंगे.

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