हे प्रखर-प्रचंड विद्वानों/विदुषियों! सुनो, मैं बिहार की महिला बोल रहीं हूँ..

 

हम बिहार की महिलाएँ हैं, चुपचाप कर्म हम करतें हैं।
हैं पढ़ीं-लिखीं और अनपढ़ भी, जीवन का मर्म समझती हैं।।
कुछ विदुषियां, हम पर ऊँगली उठाना, अपना सत्कर्म समझती हैं।
बेहयाई को सशक्तिकरण का तमगा, वे बेशर्म तो देती हैं।।
बिन सिन्दूर के स्वतंत्र दिखने को, मुक्ति-संग्राम समझती हैं।
बेशर्मी और स्वच्छन्दता को, वे नारीवाद समझती हैं।।
भाषा की मर्यादा तोड़ना, वे लेखन-धर्म समझती हैं।
सच्चाई हेतु उन्हें प्रत्युत्तर देना, हम अपना धर्म समझतें हैं ।।

हाँ! हम बिहार की महिलाएँ बोल रहें हैं। यूँ तो हम चुपचाप अपने-अपने कार्यों में लगे रहतें हैं, अपने-अपने क्षेत्रों में व्यस्त रहतें हैं और अपनी उपलब्धि/अवदान पर शोर-शराबा नहीं मचातें। किन्तु आज परिस्थितियाँ अलग हैं, हमारे आत्मसम्मान पर प्रहार हुआ है, हमें और हमारी संस्कृति को पिछड़ा बताते हुए हमारा अपमान किया गया है, सम्पूर्ण बिहार को अपमानित किया गया है। सही तस्वीर के लिए हमारा प्रत्युत्तर आवश्यक हो गया है।

आज हम बोलेंगे—खरी-खरी, कोई लाग़-लपेट नहीं। किसी को बुरा लगे या भला—यह परवाह हम नहीं करेंगे।

आज हमने कबीर की तरह लापरवाही का कवच पहन लिया है। आज हमारे वचन भले ही वेधनेवाले हों, हमारी बातें चोट करनेवाली हों, हम तो बोलेंगे। कुछ वामपंथी और अत्याधुनिक विदुषियों ने हमें सुनियोजित तरीके से बदनाम करने की कोशिश की है। बहुत हो गया अब! अब नहीं सहा जाता। तो सुनो हमारा शंखनाद।

तथाकथित विद्वानों एवं विदुषियों! हमने हाल ही में बड़े उल्लास से छठ व्रत संपन्न किया। इस दौरान तुमलोगों ने हमारे छठ पर्व, हमारी सिन्दूर लगाने की रीति समेत हमारी समन्वयवादी संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह लगाया और सोशल मीडिया पर हंगामा खड़ा कर दिया। सस्ती लोकप्रियता पाने हेतु, सुर्खियाँ बटोरने हेतु, मीडिया में छाने हेतु तुमलोगों ने हमारी समूची संस्कृति पर सवालिया निशान खड़े किए। तुमलोगों के अनुसार :-

(1) बिहार का छठ पर्व पिछड़ेपन का प्रतीक है। यह पर्व आडम्बर-प्रधान, पाखंडपूर्ण, अंधविश्वास की चोंचलेबाजी से संक्रमित, अशिक्षित और अवैज्ञानिक मनोवृत्ति की उपज है।

(2) बिहार की छठव्रतियाँ पति की गुलाम हैं और उन्हें गुलामी में ही रहना पसंद है। पुरुष छठव्रत नहीं करते और महिलाओं से करवाते हैं जो उनके साथ घोर अन्याय है।

(3) बिहार की छठव्रतियाँ अपने नाक तक सिन्दूर पोत लेती हैं जो उनकी जाहिलियत, गँवारूपन, फूहड़ता की निशानी है। सिन्दूर नारी की पुरुष के दास होने की प्रतीक है। सिन्दूर छिनाल औरतें लगाती हैं।

(4) बिहार की छठव्रतियाँ साड़ी पहनकर छठ करती हैं ताकि घाट पर खड़े पुरुष, उनके नग्न पेट, कमर और सीने के क्लीवेज देखकर आनंद उठा सकें।

हे प्रखर-प्रचंड विद्वानों/विदुषियों(?)!

तुम अपने टुच्चेपन में भूल गए कि बिहार की स्त्रियाँ जब जवाब देने पर आ जाएँ तो बड़े-बड़े शूरवीर धराशायी हो जाते हैं । मंडन मिश्र की धर्मपत्नी विदुषी भारती याद है तुम्हें जिन्होंने दिग्विजयी शंकराचार्य को भी निरुत्तर कर दिया था।

अब सुनो हमसे अपनी बातों/आरोपों के जवाब।

(1) छठ सिर्फ बिहार का नहीं, यह झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई प्रदेश का सूर्योपासना का अनुपम लोकपर्व-महापर्व है। इसे सिर्फ हिन्दू ही नहीं, बल्कि इस्लाम सहित अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं और इसमें मूर्तिपूजा भी नहीं है….अर्थात यह धर्मनिरपेक्ष पर्व है, धार्मिक सहिष्णुता का पर्व है, सामाजिक भाईचारे का त्योहार है, सामुदायिक समरसता का आयोजन है। इस पर्व में पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती, शास्त्रों से अलग यह आमजन द्वारा अपने लोकरीतियों में रंगा गया लोकपर्व है, इसके केंद्र में धर्मग्रंथ नहीं बल्कि ग्रामीण जीवनरीति है, इसमें कोई छूत-अछूत नहीं होता, सभी एक-दूसरे की सहायता को तत्पर रहते हैं—अर्थात यह पर्व जाति-धर्म की दीवार तोड़ता है और सामाजिक सौहार्द में वृद्धि करता है। इस पर्व में पूरे घर की साफ़-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है, जलाशयों को साफ़ किया जाता है, जलाशय के किनारे के जंगल साफ़ कर घाट बनाए जाते हैं और इसके लिए समाज सरकारी सहायता की राह नहीं देखता….अर्थात यह स्वच्छता की दृष्टि से भी महापर्व है, स्वच्छता दिवस का पूर्वज है, स्वावलंबन का अनूठा उदाहरण है, आत्मानुशासन का पर्व है, सामान्य जन द्वारा अपने दैनिक जीवन की कठिनाईयों को भुला सेवा-भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट प्रदर्शन है। भक्तिभाव से युक्त इस पर्व में बाँस से बने छिट्टे (टोकरे), सूप, मिट्टी के बर्तन/दीये, गुड़-चावल-गेंहू से निर्मित मीठे प्रसाद के संग लोकगीतों की मिठास घुलकर प्रकृति की छाँव में लोकजीवन की जीवंतता के सन्देश का प्रसार करती हैं।

कथाओं में तो तुम्हारा विश्वास ही नहीं होगा, इसलिए उसे छोड़ते हैं। फिर भी हम इतना बता देती हैं कि छठ के सायंकालीन खंड में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) एवं प्रातःकालीन खंड में सूर्य की प्रथम किरण (ऊषा) को अर्घ्य देकर दोनों को सूर्य के संग नमन किया जाता है…अर्थात यह प्रकृति की पूजा है, जीवनदायिनी शक्तियों की उपासना है, मानव सभ्यता की प्रगति का पावन-पर्व है, हमारे जमीन से जुड़े होने का परिचायक है, वास्तविकता के धरातल पर विज्ञान की पूजा है क्योंकि विज्ञान के अनुसार सूर्य के बिना इस सृष्टि का अस्तित्व असंभव ही है। इस पर्व में अपने कल्याण के साथ-साथ सकल जनों के सुखी-स्वस्थ होने की कामना की जाती है…अर्थात यह वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वे भवन्तु सुखिनः के आदर्श से प्रेरित है। इस पर्व का मूल लक्ष्य जनकल्याण है और जनकल्याण हेतु कोई भी आयोजन पिछड़ा तो नहीं हो सकता। बाकी तुम विद्वानों/विदुषियों की समझ की बलिहारी है!

(2) छठव्रत सिर्फ हम महिलाएँ ही नहीं, बल्कि पुरुष भी पूरी नियम-निष्ठा से करते हैं| इस पर्व में पुरुषों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी हम महिलाओं की। प्रसाद बनाने में मदद करने के साथ-साथ घाट-निर्माण, दौरा/डाला सजाना, दौरा सर पर उठाकर छठ घाट तक पहुँचाना—ये सब कार्य पुरुषों के जिम्मे है । हम महिलाएँ साड़ी पहनकर जबकि पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। अतः यह इस पर्व में पुरुष और स्त्री दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इस तरह गुलामी एवं अन्याय का आरोप निरर्थक है।

(3) बिहार के प्रसिद्ध साहित्यकार बाबा नागार्जुन को सिन्दूर-तिलकित भाल शोभायुक्त लगती थी और आप वामपंथी साहित्यकारों को उसमें फूहड़ता नजर आती है। जाकी रही भावना जैसी! आपलोगों के अनुसार किसी भी ग्रन्थ में विवाह के समय सिन्दूर के संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है। तो सुनिए जी! अथर्ववेद में विवाह में सिन्दूर का सन्दर्भ बहुत ही भावपूर्ण है। वधू मिट्टी की गौर बनाती है, पहले गौर को सिन्दूर समर्पित करती है और उसके बाद बड़े मांगलिक भाव से अपनी माँग भरती है। वर, वधू से कहता है—‘तू ऋग्वेद है और मैं सामवेद, तू पृथ्वी है और मैं आकाश, तू लक्ष्मी और मैं नारायण-रूप। हम दोनों आत्मविस्तार करें। हम दोनों सौभाग्यविस्तार करें।’ हमारा नाक तक सिन्दूर लगाकर अपने मुखमंडल को सुशोभित करना जीवनदायी सूर्य की शोणित आभा का प्रतीक है, अन्तर्मन के विचारों की शुद्धता-दृढ़ता का प्रयोजन है, मंगलमय जीवन का सुमधुर संवाद है। यह स्त्री के पौरुषत्व की पहचान है, न कि पुरुष की दास होने का। किन्तु हमारी यह बात तुम कथित नारीवादियों, जो नारीवाद का ढ़ोल पीटना ही सभ्यता समझते हैं, की समझदानी में शायद न अंटे। सिन्दूर आस्था से लगाईं जाती है, न की किसी प्रकार की जबरदस्ती से। सिन्दूर कोई कॉस्मेटिक क्रीम नहीं है जो सिर्फ रंगत के लिए लगाई जाय। आपके अनुसार सिन्दूर लगाने से नारी, पुरुष की गुलाम लगती तो इसे लगाकर क्या फायदा! मतलब ये हुआ कि जब कपड़े पहनने पर भी बलात्कार हो जाता है तो कपड़े पहनकर क्या फायदा! आप न पहनें जी—आपकी स्वतंत्रता है।

आपने हम सिन्दूर लगानेवाली औरतों को छिनाल की उपाधि से गौरवान्वित करने का महानतम कार्य किया है और इस महान कार्य हेतु तो ‘भारत रत्न’ जैसा पुरस्कार भी न्यून है। आप हमें बस ये बताएँ आपके आत्याधुनिक बिरादरी की औरतें जो अधनंगी होकर शैम्पेन की चुस्की के साथ पार्टनर बदलनेवाला टैब डांस करती हैं—वे सभी सती साध्वी हैं!

आपको सिन्दूर देखकर उल्टी आ जाती है पर ऐसा लिपस्टिक, फेयरनेस क्रीम और नेलपॉलिश के साथ तो नहीं होता। क्यों! क्या सिर्फ इसलिए कि बिना सिन्दूर के आपकी स्वच्छंदता सुनिश्चित होती है, जबकि लिपस्टिक, फेयरनेस क्रीम और नेलपॉलिश पुरुषों के आपके प्रति आकर्षण को सुनिश्चित करते हैं। उच्च शिक्षा और अत्याधुनिक जीवन-शैली में पगी आप विदुषियाँ बिना विवाह के, बिना सिन्दूर लगाए किसी के साथ सहवास को नैतिक और पवित्र मानती हैं! खैर, जो भी हो! आप स्वतंत्र-स्वच्छंद हैं! जो मर्जी हो करें! दूसरों की इच्छाओं पर सवाल न उठाएँ और उठाएँ, तो प्रत्युत्तर के लिए भी तैयार रहें। आस्था का अपमान कर स्वयं को विक्टिम दिखाने की नायाब कलाबाजी आपलोगों से बेहतर कौन जानता है!

विदुषियों ! जब माथे के सिन्दूर पर ‘अभिमान’ की बजाय ‘शर्म’ आए, जब वक्ष में ‘वात्सल्य’ की जगह ‘गोलाई’ नजर आए तो खुद को ‘नारी’ की बजाय ‘मादा’ समझें तो अधिक उपयुक्त होगा।

(4) घाट पर खड़े पुरुष हमारे पति, पिता, पुत्र और अन्य रिश्तेदार होते हैं जो छठ पर्व में हमारी मदद करने, हमारा हौसला बढाने वहां खड़े होते हैं, न कि आपके अनुसार हमारे अंगों को निहारने हेतु दृष्टि गड़ाने के लिए। हमें सबसे ज्यादा दुःख आपकी इसी बात से पहुँचा है जिसके कारण हम बोलने को विवश हुईं हैं। यह आपकी प्रगतिवादी (?) कुत्सित सोच है जो पूरे समाज का चीरहरण कर लेना चाहती है।

समझने का प्रयत्न कीजिए कि छठ सिर्फ त्योहार नहीं है। यह एक परम्परा भी है, एक संस्कार भी जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आता है।

बिहार के लोग जहाँ भी गए, छठ उनके साथ गया। दक्षिण अफ्रीका से लेकर कैलिफोर्निया तक, केन्या, न्यूजीलैंड, आयरलैण्ड और कनाडा तक में छठ पर्व की गूँज है। हाल ही में अमेरिकी लड़की क्रिएस्तीनो ने, जो हिंदी नहीं बोल पाती, अत्यंत श्रद्धा से छठ का लोकगीत गाया। यह छठगीत की मोहिनी है, स्वस्थ परम्परा का आकर्षण है, लोकमंगल की कामना का आनंद है। जीवन में पवित्रता, शुचिता और अनुशासन का सन्देश देने वाला यह पर्व हमें एक नया नजरिया देता है। यह लोक-आस्था का महापर्व भर नहीं है, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ने का सुनहरा मौका भी है। प्रकृति के निकट जाने का सुअवसर भी है। एकजुटता का सन्देश तो है ही।

तथाकथित विदुषियों! छठ के लोकगीतों को कभी तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि ने समझने की कोशिश की है!

एक ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय
होखे न सुरुज देव सहईया बहंगी घाट पहुँचाय

लोकगीत की ये पंक्ति पूर्वांचल के उन किसानों की बात कहती है जो समान खेती करते हैं और अन्नदाता बन सबके खाने का उत्तरदायित्व वहन करते हैं।

ब्रा-बिकनी गैंग की विदुषियाँ धान के फसल के पकने की ख़ुशी का अनुमान नहीं लगा सकती जो पूर्वांचल की एक साधारण गृहिणी भी लगा सकती है ।

‘बाट जे जोहे ला बटोहिया पूछे ई दौरा केकर जाए ?
आन्हर होइबे रे बटोहिया ई दौरा सूरज बाबा के जाए ।’

ये पंक्तियाँ आप जैसी कूल डूड्स/डूडनी को हम जैसी महिलाओं का जवाब है जो बटोही को बताती हैं कि जीवनदायी सूर्यदेव के प्रकाश से फसल पकती है और उन्हीं की किरणों के कारण धरती पर जीवन का अस्तित्व है । यह आराधना उन्हीं सूर्यदेव के लिए है ।

हमारी विरोध धर्म, धर्म के प्रतीकों या उसके आलोचकों से नहीं है, बल्कि आक्रामक तेवर से है, विकृतियों से है, भाषा की मर्यादा की अप्रतिष्ठा से है । लोक जीवन का विवेक समस्याओं को समझता है क्योंकि वे जीवन के वास्तविक धरातल पर रहते हैं । भाषा का अमर्यादित प्रयोग एक नयी सामजिक-राजनैतिक आक्रामकता को जन्म देता है जिससे व्यवस्थाएँ प्रभावित होती हैं । अपनी सामजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को रखते हुए विकास अच्छी चीज है पर अपनी परम्परा का पूर्णरुपेन उपेक्षा करते हुए जो आधुनिकीकरण हुआ—पारिवारिक विघटन, यौन-अराजकता, सामजिक सरोकारों को पीछे ठेलने की प्रवृति—ये सब उसी आधुनिकता की विफलताएँ हैं और यहीं ‘एकमात्र आधुनिकता’ से मोहभंग होता है ।

विदुषियों ! चाटुकारों/चमचों की फौज से घिरे रहना बुद्धिमान और श्रेष्ठ होने का अनवरत बोध तो देता है पर कलम की संजीवनी सूख जाती है । जहाँ तक हमें लगता है, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से ज्यादा ऊंची श्रेणी की तो साहित्यकार न होगी आप सब! उनकी ‘परम्परा’ कविता को ही पढ़ लेतीं तो आप सबको परम्परा को देखने की कुछ सही दृष्टि प्राप्त हो जाती—

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो ।
उसमें बहुत कुछ है,
जो जीवित है, जीवनदायक है,
जैसे भी हो, ध्वंस से बचा रखने लायक है …
पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना
यह क्रान्ति का नाम है ।
लेकिन घाट बाँधकर पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है…

जन-प्रतिबद्धता से परहेज की बात कोई सोच भी नहीं सकता, पर इस प्रतिबद्धता की आड़ में नारों के नगाड़ों के बीच अपने संकुचित विचारों के नाज-नखरे दिखलाने की छूट तो किसी को भी नहीं दी जा सकती। आपलोगों का दावा है कि आप समाज की विकृतियों को दूर कर नवजागरण लाना चाहती हैं, जनता को, समाज को, देश को अंधविश्वासों से मुक्त कर वैज्ञानिक चिंतन की ओर अग्रशील करना चाहती हैं। तो क्या यह लक्ष्य ऐसे पूरा होगा! स्वस्थ परम्परा को अंधी लाठी से पीटकर! परम्पराओं का ‘पोत देना’ जैसे व्यंग्यात्मक शब्दों से उपहास तो जनमानस को आपसे ही विमुख कर देगा। इससे विद्वता का स्तर बढ़ रहा है क्या! साहित्य किसी का गुलाम नहीं है। लोक को समझने के लिए लोक के बीच जाना होता है। जिन्होंने समझा, जिन्होंने कोशिश की, लोक ने उन्हें अपने मन में जगह दी और जो बौद्धिकता की डींग हाँकते रहे, उन्हें लोक ने भी भुला दिया। आपलोगों से कहीं अधिक विद्वान साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बहुत पहले एक बात कही थी जो आपलोगों को हमेशा याद रखनी चाहिए—‘छोटे मन से बड़ा काम नहीं होता ।’

बाकी आप सब खुद समझदार हैं!

और चलते-चलते। आप सबने बिहारियों को खूब गालियाँ दीं। आज आपको बताते हैं बिहारी होने के मानी क्या हैं!

बिहारी होना है पहचान विनम्र, श्रमी होने का,
अध्यवसायी, ईमानदार, तेजोदीप्त विक्रमी होने का।
बिहारी तो है इक भावना, सबको अपनाने का,
बिहारी बुद्ध की वीणा है, प्रेम गीत गाने का।।
प्रेम में सब त्याग कर दे, वह बिहारी है।
मित्रता में प्राण दे दे, वह बिहारी है।।
द्वेष के बदले प्रेम भेंट दे, वही बिहारी है।
सब कुछ देकर भी मुस्काए, वही बिहारी है।।
थोड़े में ज्यादा कह डाले, वही बिहारी है।
प्रतिभा-बीज कहीं बो डाले, वही बिहारी है।।

चलती हैं जी। इस आशा के साथ कि हिंदी को समृद्ध बनाइएगा, भाषा की उत्कृष्टता सुनिश्चित कीजिएगा, मनुष्य के हृदय का विकास कीजिएगा, मनुष्यता की रक्षा कीजिएगा…जो साहित्य का परम लक्ष्य है और साहित्यकार का परम उत्तरदायित्व।

जय छठी मइया, जय भारत, जय बिहार।


लेखक: अविनाश कुमार सिंह एवं श्रीमती अनुपम सिंह
(अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं।)

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