तो छठ में घर जाइएगा? – “एमकि त नहींए मैडम जी। अगा साल फगुआ में जाएब..”

..न टिकट न हैय, देखनी ह। पइसबा भेज देनी ह शंभुआ जौरे। किन दिहा फ्रॉक-पैंट जे बुझाई। होइ त अइसे ही चल आयम बिना रिज़वी (रिज़र्वेशन) के। – हँ माई के कहा परेसान न होइ। महाजन के पइसा चूक न जाई। दीपक इस्कूल गेल है न ? – हँ धरा काम पर हति अक्खनी। रात में फोन करं। ……..

दूसरों की बातें सुनना गलत बात है मगर जब कमरे में कोई बात कर रहा और वही हॉल में आप बैठे होंगे तो आवाज़ आ ही जाएगी न। घर के रेनोवेशन का काम चल रहा तो आज लंच ब्रेक में किसी को अपने घर पर बातें करते सुना। अब ये लहज़ा सुन कर मुझसे क्या रहा जायेगा। थोड़ी देर बाद किसी काम के लिए वो मुझे बुलाये तो मैंने पूछ ही लिया, “कहाँ से हैं भईया?”… “मैडम जी बिहार से।”

“हाँ, उ फोन पर आप बात कर रहे थे तो सुने, तभिये पूछे।”… “हाँ मैडम जी। छौ साल की एगो बेटी है उसी का जन्मदिन है विजे (विजयादशमी) के दिन। त उहे फोन कइले रहे पापा घरे आबा।” …”अच्छा! तो जा रहे हैं घर क्या?” …”नहीं कहाँ मैडम जी। दाहर (बाढ़ ) में त सब खेती चउपट (चौपट) हो गिया। परुको साल ये ही हुआ था। महाजन से पांच रूपइये सैकड़ पर पईसा उठा कर खेती किये सब गंगा मईया बहइले चल गेलन। तब न देस छोड़ इहाँ परदेस अगोरले हैं।”… “तो सरकार आप लोगों की मदद नहीं करती? कोई योजना नहीं है जिसके तहत आपलोगों को नौकरी मिल सके?”

“मैडम जी सब चोरें न हैय ऊपर से नीचा तक। सरकार जोजना (योजना) बनया मगर सब पइसा खा जाता है ई बीडीओ-सरपंच आ मुखिया।”…

“तो छठ में घर जाइएगा?”.. “न एमकि त नहींए मैडम जी। अगा साल फगुआ में जाएब।”

कह कर वो फिर से काम में लग गए। काम करते-करते बताने लगे कि महीने का कोई बारह-चौदह हज़ार कमाते हैं। जिनमें से रहने-खाने का सब मिला कर पांच-छौ हज़ार खर्चा हो जाता है, जो बचता है उ घर पर भेज देते हैं| घर पर माँ-पत्नी और तीन बच्चें हैं। जो सबसे छोटा है उसे देखे भी नहीं हैं। बहिन बियाह के बाद पहिली बार आयी है, छठ में दोंगा (गौना) है त और खर्चा का घर है। एहि सब के लिए पईसा जुगता (जुटा) रहें हैं। बहिन को सिलाई-मशीन चाहिए और भी न जानें कितनी बातें वो बताते चले गए।

ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके मन पर कितना बोझ है, कितनी कहानियाँ हैं जो बस किसी को सुना देना चाहते हैं। वैसे भी इस अजनबी शहर में किसे फ़ुरसत है कि वो इनसे एक मुँह अच्छे से बात कर लें। एक बार हाल-चाल पूछ लें। किसे पड़ी है इन मज़दूरों की जो अपनों से दूर, अपनों की खुशियों के लिए इस शहर में झुलस रहें हैं। कौन करता है इनकी परवाह? वक़्त है क्या किसी के पास?

ख़ैर, आज जाते-जाते वो बोल कर गए “मैडम जी आपसे बतिया कर बहुते अच्छा लगा। हम लोगों को त लोग नीच नज़र से देखते हैं। कहते हैं साला चोर है मगर मैडम जी हम लोग का खेती-बारी है, घर-दुआर सब है। सब बख्त की बात है।”

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