मीडिया क्या अब ‘उनके’ लिए भी वही चश्मा पहनाएगी जो आजतक सिर्फ बिहारियों के लिए था?

यही कोई 2012 का साल था। बिहार के आरा में सामान्य जातिवर्ग की लड़ाई लड़ने वाले ब्रह्मेश्वर मुखिया का मर्डर हुआ था। बहुत हंगामा हुआ। समर्थकों का तांडव भी हुआ। लेकिन उससे भी बढ़कर जो हुआ वो ये कि देश की हर मीडिया ने इस केस के लिए पूरे बिहार को आड़े हाथों लिया। जंगलराज की वापसी का हवाला देने से लेकर हर वो संज्ञा-विशेषण जोड़े गए जो जरूरी-गैर जरूरी, जायज-नाजायज हो सकते थे। मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी जनता को ‘बिहारी’ नाम को गाली बना देने वाला चश्मा पहनाने में।

मतलब इतने जलील कर देने वाले सवाल आते थे गैर-बिहारियों के कि हमें खुद लगने लगा था कैसे गंदे जगह जन्में हैं हम, हमारे यहाँ सब गुंडे ही हैं, वैगेरह-वैगेरह… सारी ग्लानि और अपराधबोध बताई तो नहीं जा सकती न!

 

हर बार बिहारियों पर ऐसे आरोप लगते आये हैं कि दिल्ली-मुम्बई जैसे शहर बिहारियों ने खराब कर रखे हैं। उनकी वजह से बड़े शहरों में झुग्गी बस्तियाँ हैं। उनकी वजह से वहाँ हर तरह के कदाचार हो रहे हैं। बिहारी अंधविश्वासी होते हैं। बिहार में जातिवाद का बोलबाला है। ये आरोप सरासर ग़लत भी नहीं कहे जा सकते, मगर ऐसा क्यों नहीं सोचते हम, हमारे देश के लोग, कि ये समस्या पूरे देश में फैली है।

जहाँ तक बात आज राम-रहीम के केस की है, बताते चलें ये कोई आज का जन्मा केस नहीं है। ये केस है 15 साल पुराना। केस जहाँ से शुरू होता है, उससे भी कई साल पहले से पर्दे के पीछे अंधभक्ति में लोगों को फंसाने का काम चल रहा था।

हुआ यूँ कि 15 साल पहले किसी ने बेनाम चिट्ठी लिखी, देश के प्रधानमंत्री को, और उसमें बाबा राम- रहीम द्वारा चलाये जा रही संस्था ‘डेरा सच्चा सौदा’ के पीछे हो रहे दुष्कर्म को सामने लाया। उस चिट्ठी की एक-एक प्रति हर प्रशासनिक अधिकारी समेत मीडिया को भी भेजी गई। किसी मीडिया हाउस ने उसे गंभीरता से लेना उचित नहीं समझा। हालाँकि फिर भी सच छपा, एक लोकल अख़बार ‘पूरा सच’ में, जिसे चलाने वाले पत्रकार रामचंद्र छत्रपति बाद में मार दिए गए। इस केस में और भी कई लोगों की जानें गयीं, जैसे ‘डेरा’ के मैनेजर रहे रंजीत सिंह की जान भी इसी केस के सिलसिले में ली गयी।

ये सारी घटनाएँ खुल-ए-आम हो रही थीं। इसके बावजूद न ही राम रहीम के भक्तों की संख्या घटी, न ही घटी उनकी अंधभक्ति। यहाँ तक कि ये शख्स खुद को स्वयंभू मान बैठा और ‘मैसेंजर ऑफ गॉड’ तक कहलाने लगा। इन्हें लोकप्रियता के चरम पर पहुँचा चुकी जनता कभी पीड़ितों की नहीं सुन सकी। वहाँ हो रहे दुष्कर्म को स्वीकार चुकी 7 लड़कियों में से सिर्फ 2 लड़कियाँ राज़ी हुईं सीबीआई को बयान देने के लिए। बयान के लिए तैयार हुई लड़कियों और उनके परिवार को भी इतना परेशान किया गया कि पहले उन्हें पुलिस सुरक्षा देना पड़ा और आखिरकार अंडरग्राउंड कर दिया गया।

इतना बड़ा आरोपी होने के बावजूद राम रहीम जब बॉलीवुड में फिल्में लाते हैं तो लोगों की अंधभक्ति उसे भी हिट करा देती है, वहीं मीडिया भी इसमें अपना भरपूर सहयोग देती है।
आज बिहारी जानना चाहते हैं आशाराम और राम-रहीम जैसों पर भरोसा करने वाले कौन हैं? उनके लिए सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वाले कौन हैं? उनके लिए कर्फ़्यू की नौबत लाने वाले कौन हैं? महिलाओं के प्रति पिछले 15 से अधिक सालों से उदासीनता बरतने वाला समाज किसका है? इन जैसे बाबाओं की पूंजी बढ़ाने वाले महादानी कहाँ से आते हैं? दोष इन बाबाओं का है, सरकार का है, समाज का या मीडिया का?

और हाँ, मीडिया क्या अब हरियाणा, पंजाब और दिल्ली के लिए भी वही चश्मा पहनाएगी या वो सिर्फ बिहारियों के नाम ही रहेगा?

जवाब हमें दे या न दे, अपने आप को जरूर दे ये देश और देश की मीडिया, इस मुसीबत से निकलने के बाद। इस मुसीबत की घड़ी में हर बिहारी देश के अन्य नागरिकों की भाँति, देश के न्यायालय के सम्मान में खड़ा है।

नोट:- हमारा मकसद देश के किसी भी हिस्से या किसी भी जाति विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है। हम अखंड भारत की स्मिता बचाये रखने के पक्षधर हैं। हमारे लिए देश की एकल नागरिकता होना गर्व का विषय है। हम सिर्फ उस नज़रिए को बदलना चाहते हैं जो बिहारियों को देश से अलग समझते हैं और जाने-अनजाने में बिहारियत की भावना को ठेस पहुँचाते हैं। जय हिंद!

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