मिथिला लोक आस्था का एक महान पारंपरिक त्योहार सतुआईन’ और ‘जुड़शीतल’

 

पता नही आप लोगों में से कितनों को इस पर्व के बारे में मालूम है । निश्चित ही इस आधुनिक युग मे बहुतों को नही पता होगा । आइये थोड़ा डिटेल बताते है आपको ।

आज सतुआईन पर्व है यानी आज अपने कुल देवता,घर की देवता को सत्तू,गुड़, आम का टिकोला और तुलसी दल चढ़ा कर पूजा पाठ किया जाता है । इस मौसम में सत्तू का भी अपना विशेष महत्व है । आम के पेड़ पर लगने वाला मंजर से टिकोला बनता है फिर उसी टिकोला से आम । इसी टिकोला और सत्तू का पहला भोग भगवान को चढ़ाने की सदियों पुरानी परंपरा है ।

कल जुड़शीतल पर्व है यानि अगले दिन लोग कीचड़ मिट्टी से भी खेलने की परंपरा है जैसे होली में रंगों से खेलते है । कल के दिन सुबह सुबह घर के बड़े बुजुर्ग परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर जल/पानी का हल्का छींटा मारते हैं । भगवान पर चढ़ा हुआ जल से उच्छरँगा करने को शुद्धता और आशीर्वाद माना जाता है । हलांकि  कीचड़ कादो से खेलने की यह परंपरा विलुप्त होता जा रहा है । बहुत सीमित स्तर पर सिर्फ गाँव देहात में बचा रह गया है ।गर्मी का मौसम आ चुका है । आम फल का सीज़न शुरू हो रहा है ।

 

एक जमाना था जब जुड़ शीतल नाम से प्रसिद्ध मिथिला के ख्याति प्राप्त पर्व धार्मिक अनुष्ठान के साथ साथ कई को समेटने में सक्षम था परंतु आज यह पर्व खुद अपनी अस्तित्व को भी सहेजने में असक्षम प्रतीत होता जा रहा है. कई कारण से यहां के लोग इस पर्व को अन्य परंपराओं की तरह भुलते जा रहे हैं। पहले जहां मिथिला के गांवों में जुड़ शीतल मनाने की कवायद 10-15 दिन पूर्व से ही आरंभ हो जाती थी।

मिथिला पेंटिंग के जरिए इस पर्व को श्री मति मुक्ति झा ने प्रदर्शित किया है।

खासकर नौजवान एवं बच्चे बांस की हस्तनिर्मित पिचकारी बनाने व उस पिचकारी को लेकर तालाबों में खेलने की तैयारी में जुट जाते थे। गांव के नौजवान एवं बच्चे दो टोली में बंट कर तालाबों के पानी में पिचकारी से एक दूसरे के ऊपर पानी उड़ेलने का खेल खेलते थे तो बड़े बुजुर्ग अपने अपने घरों के आसपास की कीचड़ की सफाई व तालाबों एवं कुआं की उड़ाही का कार्य भी खेल- खेल में संपादित करते थे। कीचड़ एवं गोबर एक दूसरे पर फेंकने की प्रथा जुड़ शीतल वर्षो से चलती आयी है। इस खेल में गांवों की महिलाएं भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी। यह खेल सुबह के पहले पहर में खेला जाता था। माना जाता है कि इसका प्राकृतिक चिकित्सा के दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण माना जाता है। जुड़ शीतल पर्व के दिन अहले सुबह घर की श्रेष्ठ महिला द्वारा सभी सदस्यों के माथे को पानी से शिक्त किया जाता है. जिसे जुड़ाया जाना कहा जाता है। कहा जाता है कि परिवार के बड़ों के आशीर्वाद से लोग पूरे साल खुशहाली की जिंदगी जीते हैं। विभिन्न ग्रंथों में इसकी चर्चा है. वहीं इस परंपरा को निभाये जाने के बाद हर कोई तमाम पेड़ पौधे की सिंचाई में जुट जाते हैं।

 

माना जाता है कि गरमी की बढ़ती तपिश से बचाने के लिए हर कोई संकल्पित है। फिर लोग नहा धोकर मिथिला की अति विशिष्ट व्यंजन कढ़ी और बड़ी के साथ चावल को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। इसके उपरांत दो बजते बजते लोग झुंड में लाठी, भाला, बरछी, फरसा आदि से लैश होकर वन में शिकार खेलने निकल जाते थे। शिकार में शाही, खरहा सहित अन्य खाद्य पशु पक्षियों की शिकार की जाती थी। यदि शिकार नहीं मिला या लोग शिकार करने में असफल रहे तो अशुभ माना जाता था. कहीं कहीं इस विशेष पर्व की विशिष्टता को भुनाने के उद्देश्य से इस दिन दंगल एवं कुश्ती की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती थी।शाम होते ही लोग भांग एवं चीनी की शरबत पीकर मदमस्त हो जाते थे। इसके बाद गांवों में लोग भजन कीर्तन का आयोजन करते थे। परंतु अफसोस की आज कल के युवक इसे महज एक इतिहास की कहानी ही समझते हैं क्योंकि आज जुड़ शीतल पर्व की लोकप्रियता पूर्णत: धूमिल हो गयी है। या यूं कहें कि युवा वर्गो में इस पर्व को लेकर उत्साह देखा ही नहीं जाता है।

आज भी सीतामढ़ी,मधुबनी,दरभंगा,सहरसा, नेपाल के जनकपुर,मलंगवा जैसे समस्त मिथिलांचल में ये सतुआईन/सतुआ/सत्तू और जुड़शीतल का पर्व खूब धूम धाम से रोमांच के साथ मनाया जाता है ।

 

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