माह-ए-मुहब्बत 6: ‘अनाम’ प्रेयसी की याद में कुछ यूँ बेकरार है ये प्रेमी

‘माह-ए-मुहब्बत’ सिर्फ उनके लिए नहीं जिनकी प्रेयसी या प्रेमी है, ये उनके लिए भी है जिनके मन-मष्तिष्क में कहीं एक अमिट छाप है किसी की। ये खुद उस अजनबी से अंजान हैं पर उसी परछाई के पीछे भागते जा रहे हैं, जिसमें ये अपना जीवनसाथी ढूंढ रहे हैं। भूमिका में ज्यादा नहीं, बस इतना कि ये कहानी गद्द रूप में लिखी गयी है, किसी अनजाने को याद करते हुए लिखी गयी है, किसी छवि से बेइंतहां प्रेम में लिखी गयी है।

 

“दिल्लगी में मैं उनके मरता रहा,

मन ही मन मैं उनसे प्यार करता रहा,

कहीं खो न दूँ एक अच्छी दोस्त,

इसी डर से उनसे कहने को डरता रहा।
काश कि वो हमें भी पढ़ पाते,

हम भी उनके प्यार में आगे बढ़ पाते,

इश्क़ की सीढियाँ चढ़नी आती नहीं मुझे ऐ दोस्त,

अगर होता हाथो में हाथ उनका ,

तो उन सीढ़ियों को भी हम चढ़ जाते।
बचपन की वो यादें, वो पल मस्ताने,

मैं तो तभी से था शामिल उनमें,

जिनमें होते उनके दीवाने।
मेरी चाहत की गहराई को जब उन्होंनेे था जाना,

तब समाज की सच्चाई ने हमें नहीं पहचाना।
जैसी चाहे मज़बूरी हो, चाहे  जितनी  भी दुरी  हो,

सिर्फ एक ही इच्छा जाहिर है भगवान तुम्हारे चरणों  में,

उनकी सारी मांगे पूरी हों, उनकी सारी मांगे पूरी हों।
नोट- यह कहानी हमें लिखी है ब्लॉगर विपुल श्रीवास्तव जी ने। आप भी अपनी या अपने आसपास की कोई प्रेम में डूबी कहानी/रचना साझा करें, पढ़ेगा पूरा बिहार। हमारा पता- [email protected]

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